Come back to existence:
७६…
‘वर्षा की अंधेरी राम में उस अंधकार में प्रवेश करो,जो रूपों का रूप है।’
IN RAIN DURING A BLACK NIGHT, ENTER THAT BLACKNESS AS THE FORM OF FORMS.७७….
‘जब चंद्रमाहीन वर्षा की रात में उपलब्ध न हो तो आंखें बंद करो और अपने सामने अंधकार को देखो। फिर आंखे खोकर अंधकार को देखो। इस प्रकार दोष सदा के लिए विलीन हो जाते है।’
WHEN A MOONLESS RAINY NIGHT IS NOT PRESENT CLOSE EYES AND FIND BLACKNESS BEFORE YOU.
OPENING EYES, SEE BLACKNESS.
SO FAULTS DISAPPEAR FOREVER.७८…
“जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर अनुभव।”
WHEREVER YOUR ATTENTION ALIGHTS, AT THIS VERY POINT, EXPERIENCE.
अंधकार—संबंधी पहली विधि:
७६…
‘वर्षा की अंधेरी राम में उस अंधकार में प्रवेश करो,जो रूपों का रूप है।’
IN RAIN DURING A BLACK NIGHT, ENTER THAT BLACKNESS AS THE FORM OF FORMS.
अतीत में एक बहुत पुराना गुह्म विधा का संप्रदाय था। जिसके बारे में शायद तुमने न सुना हो। यह संप्रदाय ‘इसेनी’ नाम से जाना जाता था। जीसस की शिक्षा-दीक्षा उसी संप्रदाय में हुई थी। जीसस उस संप्रदाय के सदस्य थे। इसेनी संप्रदाय संसार में अकेला संप्रदाय है जिसने परमात्मा की धारणा परम अंधकार के रूप में कि है। कुरान कहती है कि परमात्मा प्रकाश है। वेद कहते है कि परमात्मा प्रकाश है। बाइबिल भी कहती है की परमात्मा प्रकाश है। पूरी दुनियां में सिर्फ इसेनी की परंपरा कहती है कि परमात्मा घनघोर अंधकार है। परमात्मा सर्वथा अंधकार है; एक अनंत रात जैसा है।
यह धारणा बहुत सुंदर है। आश्चर्यजनक है, पर बहुत सुंदर है। और बहुत अर्थपूर्ण भी है। तुम्हें इसका अर्थ जरूर समझना चाहिए। और तब यह विधि बहुत सहयोगी हो जाएगी। क्योंकि इस विधि का प्रयोग इसेनी साधक अंधकार में प्रवेश करने के लिए, उसके साथ एक होने के लिए करते थे।
थोड़ा इस पर विचार करो कि क्यों परमात्मा को सब जगह प्रकाश की भांति चित्रित किया गया है। इसलिए नहीं क्योंकि परमात्मा प्रकाश है, बल्कि इसलिए क्योंकि मनुष्य अंधकार से भयभीत है। यह मानवीय भय है। हम प्रकाश को पसंद करते है और अंधकार से डरते है। इसलिए हम अंधकार या कालिमा के रूप में ईश्वर की धारणा नही बना सकते। वह मानवीय धारणा है। हम ईश्वर को प्रकाश की भांति सोचते है। क्योंकि हम अंधकार से भयभीत है।
हमारे ईश्वर हमारे भय की ही निर्मिति है। हम ही उन्हें आकार और रूप देते है। और क्योंकि आकार और रूप हम देते है। ये आकार और रूप हमारे संबंध में खबर देते है। परमात्मा के संबंध में नहीं। वे हमारी निर्मिति है। हम अंधकार से भयभीत है; इसलिए परमात्मा प्रकाश है।
लेकिन ये विधियां एक भिन्न संप्रदाय की विधियां है। इसेनी कहते है कि ईश्वर अंधकार है। और इस बात में कुछ सार है।
पहली बात : पहली तो बात की अंधकार शाश्वत है। प्रकाश आता है जाता है। अंधकार सदा है। सुबह सूर्य उगता है। और प्रकाश होता है। अंधकार सदा है। डूबता है और अंधकार छा जाता है। अंधकार के लिए कुछ उदय नहीं होता है; अंधकार सदा है। वह न कभी उगता है और न डूबता हे। प्रकाश आता है जाता है। अंधकार बन रहता है। और प्रकाश का सदा कोई स्त्रोत है। अंधकार स्त्रोत हीन है। और जिसका कोई स्त्रोत है वह शाश्वत नहीं हो सकता है। असीम और शाश्वत तो वही हो सकता है। जिसका कोई स्त्रोत न हो, जो स्त्रोत हीन हो। और प्रकाश में थोड़ा तनाव है। यही कारण है कि तुम प्रकाश में कभी सो नहीं सकते। वह तनाव पैदा करता है। अंधकार विश्राम है—समग्र विश्राम।
लेकिन हम अंधकार से भयभीत क्यों है। कारण यह है कि प्रकाश हमें जीवन जैसा मालूम पड़ता है। वह जीवन है। और अंधकार मृत्यु जैसा प्रतीत होता है; वह मृत्यु है। जीवन प्रकाश से आता हे। और जब तुम मरते हो तो ऐसा लगता है कि तुम शाश्वत अंधकार में गिर रहे हो। यही कारण है हम मृत्यु को काले रंग से चित्रित करते है। और काला रंग शोक का रंग बन गया है। ईश्वर प्रकाश है ओर मृत्यु अंधकार है।
लेकिन ये हमारे भय है—प्रक्षेपित और आरोपित भय। वस्तुत: अंधकार असीम है; प्रकाश सीमित है। अंधकार गर्भ जैसा है। जिसमें सब चीजें जन्म लेती है और जिसमें फिर विलीन हो जाती है।
यह इसेनियों का दृष्टिकोण बहुत सुंदर है। और बहुत सहयोगी भी। क्योंकि अगर तुम अंधकार को प्रेम कर सको तो तुम मृत्यु से निर्भय हो जाओगे। अगर तुम अंधकार में प्रवेश कर सको—और यह प्रवेश तभी हो सकता है जब भय न हो—तो तुम समग्र विश्राम को उपलब्ध हो जाओगे। अगर तुम अंधकार के साथ एक हो सको तो तुम खो जाओगे। विलीन हो जाओगे। सही समर्पण है। अब कोई भय न रहा। क्योंकि जब तुम अंधकार के साथ एक हो गए तो तुम मृत्यु के साथ एक हो गए। अंग तुम्हारी मृत्यु नहीं हो सकती। तुम अब अमृत हो गए। अंधकार अमृत है। प्रकाश जन्मता है और मर जाता है। अंधकार बस है। वह अमृत है।
इस विधियों के संबंध में पहली बात यह स्मरण रखना चाहिए कि तुम्हारे मन में अंधकार के प्रति, कालिमा के प्रति कोई भय न रहे। अन्यथा तुम यह प्रयोग नहीं कर सकोगे। पहले भय को छोड़ना होगा। तो आरंभिक चरण के रूप में एक काम यह करो; अंधकार में बैठ जाओ, रोशनी बुझा दो और अंधकार को अनुभव करो। उसके प्रति प्रेमपूर्ण दृष्टि रखो; अंधकार को तुम्हें छूने दो। उसे देखो। अंधेरे कमरे में या अंधेरी रात में अपनी आंखे खोलों और अंधकार को अनुभव करो। उसके साथ संवाद करो, उससे मैत्री बांधों।
यदि तुम भयभीत हो गए तो ये विधियां तुम्हारे लिए किसी काम की नहीं है। तब तुम इनका प्रयोग नहीं कर सकोगे। पहले अंधकार के साथ घनिष्ठ मैत्री की जरूरत है। कभी रात में, जब सब लोग सोने के लिए चले जाये,तुम अंधकार के साथ रहो। कुछ मत करो,बस उसके साथ रहो। और उसके साथ मात्र रहना ही तुम्हें उससे प्रति गहन भाव से भर देगा। कारण यह है कि अंधकार बहुत विश्राम दायी है। सिर्फ भय के कारण तुम्हें अंधकार के इस पहलू से परिचित नहीं हुए। अगर रात में तुम नींद न आए तो तुम तुरंत बत्ती जला लोगे और कुछ करने या पढ़ने लगोगे। लेकिन तुम अंधकार के साथ नहीं रह सकते। अंधकार के साथ रहो। और अगर तुम उसके साथ रह सके तो तुम्हारा उसके साथ एक नया संपर्क बनेगा, तुम्हें उसमें एक नया द्वार मिलेगा।
मनुष्य ने अपने को अंधकार के प्रति बिलकुल बंद कर लिया है। उसके कारण थे ऐतिहासिक कारण थे। पुराने जमाने में मनुष्य जंगलों और गुफाओं में रहा करता था। वहां रातें बहुत खतरनाक होती थी। दिन में तो वह सुरक्षित अनुभव करता था। चारो और देख सकता था। दिन में वह अपने को जंगली जानवरों के हमने से बचा सकता था। कम से कम उनसे भाग तो सकता था। लेकिन रात में चारों तरफ अँधेरा होता था। और वह बहुत असहाय हो जाता था। इससे ही वह अंधकार से भयभीत हो गया।
और यह भय उसके अचेतन में गहरा समा गया है। हम अब भी भयभीत है। तुम्हारा अचेतन तुम्हारा अपना अचेतन नहीं है; वह सामूहिक है, वंशानुगत है। वह तुम्हें विरासत में मिला है। वह भय वहां है और उस भय के कारण तुम अंधेरे के साथ संवाद नहीं कर सकते हो।
एक और बात इस भय के कारण ही मनुष्य ने अग्नि को पूजना शुरू कर दिया। जब आग खोजी गई तो आग देवता बन गई। ऐसा नहीं कि आग को पूजना शुरू किया। ऐसा नहीं है कि आग देवता है। पर अंधेरे के डर के कारण वह देवता बन गई। तो जब आग का आविष्कार हुआ तो वह देवता बन गई। वह उस समय सबसे सुरक्षित और विश्वास तुल्य बन गई। पारसी लोग आज भी अग्नि की पूजा करते है। रात के कारण आग आदमी की मित्र और सुरक्षा बन गई—दैवी सुरक्षा बन गई।
यह भय आज भी बना हुआ है। भले ही तुम्हें उसका बोध न हो; क्योंकि उसके प्रति बोधपूर्ण होने की स्थितियाँ नहीं है। लेकिन किसी भी रात रोशनी बुझा दो और अंधकार में बैठो। और वह आदिम भय आज भी तुम्हें घेर लेगा। तुम्हें अपने घर में लगेगा कि चारों और जंगली जानवर खड़े है। कोई आवाज होगी और तुम्हें जंगली जानवरों का भय पकड़ लेगा। प्रयोग कर सकते हो यह अद्भुत है। तब तुम ऐसे प्रगाढ़ विश्राम में प्रवेश करोगे जिसका अनुभव तुम्हें कभी न हुआ होगा।
लेकिन पहले अपने अचेतन भयो को उघाड़ो तथा अंधकार को जीना और प्रेम करना सिखों। वह बहुत आनंददायी है। एक बार तुम इसे जान लेते हो और इसके संपर्क में होते हो तो तुम एक बहुत गहन जागतिक घटना के संपर्क में आ जाते हो।
जब भी तुम्हें अंधेरे में होने का मौका मिले तो जागे रहने का ख्याल रखो। क्योंकि तुम दो काम कर सकते हो: या तो तुम रोशनी जला लोगे या नींद में चल जाओगे। ये दोनों अंधकार से बचने की तरकीबें है। अगर तुम सो जाते हो तो भय चला जाता है। क्योंकि तुम चेतन नहीं रहे। या अगर तुम चेतन रहे तो तुम रोशनी जला लोगे। न रोशनी जलाओ और न नींद में उतरो। अंधकार के साथ रहो।
बहुत से भय पकड़ेगे उन्हें अनुभव करो। उनके प्रति सजग होओ। उन्हें अपने चेतन में ले आओ। वह अपने आप ही आएँगे। और वह जब आएं तो उनके साक्षी भर रहो। वे भय विदा हो जाएंगे। और शीध्र ही वह दिन आएगा जब तुम अंधेरे में पूरे समर्पण के साथ रहोगे। और तुम्हें कोई डर नहीं घेरेगा। तब तुम सहजता से अंधकार के साथ रह सकते हो। और तब एक सुंदर घटना घटती है। और तभी तुम इसेनियों के इस वक्तव्य को समझ सकोगे। परमात्मा अंधकार है। परम अंधकार है।
‘वर्षा की अंधेरी रात में उस अंधकार में प्रवेश करो, जो रूपों का रूप है।’
शिव कहते है कि यह विधि वर्षा की रात में करने योग्य है। जब सब कुछ अंधकार में डूबा हो। जब काले बादलों में तारे भी नहीं दिखाई देते हो। अंधेरी रात में जब चाँद न हो ‘उस अंधकार में प्रवेश करो, जो रूपों का रूप है।’ उस अंधकार के साक्षी बनों। और फिर उसमे विलीन हो जाओ। वह सब रूपों का रूप है। तुम रूप हो; तुम उसमे विलीन हो सकते हो।
जब प्रकाश होता है तो तुम परिभाषित हो जाते हो, सीमित हो जाते हो। मैं तुम्हें देख सकता हूं। क्योंकि प्रकाश है। तुम्हारे शरीर की सीमाएं है। तुम्हारी सीमाएं बन जाती है। तुम्हारी हदे निर्मित हो जाती है। तुम्हारी सीमाएं प्रकाश के कारण है। जब प्रकाश नहीं होता तो सीमाएं खो जाती है। अंधकार में कहीं कोई सीमा नहीं है। हर चीज दूसरी चीज में समा जाती है। रूप विसर्जित हो जाता है।
वह भी हमारे भा का एक कारण हो सकता है। क्योंकि तब तुम्हारी परिभाषा नही रहती है। और तुम नहीं जानते हो कि तुम कौन हो। तब तुम्हारा चेहरा नहीं देखा जा सकता, तुम्हारा शरीर नहीं देखा जा सकता है। सब कुछ रूप ही अस्तित्व में घुल मिल जाता है। वह भय का एक कारण हो सकता है। क्योंकि तुम्हें तुम्हारे सीमित अस्तित्व का अहसास नहीं रहता। अस्तित्व धुंधला-धुंधला हो जाता है। और भय तुम्हें पकड़ लेता है। क्योंकि अब तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो। तब अहंकार नहीं रह सकता। सीमा के बिना अहंकार का होना कठिन है। आदमी भय अनुभव करता है। वह प्रकाश चाहता है।
धारण और ध्यान करते हुए प्रकाश की बजाएं अंधकार में विलीन होना आसान है। प्रकाश तोड़ता है। पृथकता पैदा करता है। अंधकार सभी पृथकता और फर्क मिटा देता है। प्रकाश में तुम सुंदर हो या कुरूप हो। अमीर हो या गरीब हो। प्रकाश तुम्हें व्यक्तित्व देता है। विशिष्टता देता है। शिक्षित हो, अशिक्षित हो, पुण्य आत्मा हो या पापी हो। प्रकाश तुम्हें पृथक व्यक्ति की तरह प्रकट करता है। अंधकार तुम्हें अपने में समेट लेता है। तुम्हें स्वीकार कर लेता है। वह तुम्हें पृथक व्यक्ति की तरह नहीं लेता है। वह तुम्हें बिना किसी परिभाषा के स्वीकार कर लेता है। तुम उसमें डूब जाते हो। तुम उसमें एक हो जाते हो।
अंधकार में सदा ही ऐसा होता है। लेकिन भयभीत होने के कारण तुम नहीं समझ पाते हो। अपने भय को अलग करो और उससे एक हो जाओ।
‘उस अंधकार में प्रवेश करो, जो रूपों का रूप है। उस अंधकार में प्रवेश करो।’
तुम अंधकार में कैसे प्रवेश कर सकते हो। ती बात है। एक अंधकार को देखो। यह कठिन है। किसी ज्योति को, किसी रोशनी के स्त्रोत को देखना आसान है; क्योंकि वह एक आब्जेक्ट्स की भांति सामने है और तुम उसे देख सकते हो। अंधकार कोई आब्जेक्ट्स नहीं है। वह सब जगह है, चारों और है। तुम उसे एक आब्जेक्ट्स की तरह नहीं देख सकते हो। शून्य में देखो, खालीपन में झांको। वह सब और है। तुम बस देखा। शिथिल होकर विश्राम पूर्व देखते रहो। वह तुम्हारी आंखों में प्रवेश करने लगेगा। और जब अंधकार तुम्हारी आंखों में प्रवेश करता है तो तुम भी उसमें प्रवेश करते हो।
अंधेरी रात में इस विधि का प्रयोग करते हुए अपनी आंखें खुली रखो। आंखों को बंद मत करो। बंद आंखों से तुम एक अलग तरह के अंधकार में होते हो। वह तुम्हारा निजी अंधकार है। तुम्हारे मन का अंधकार है। वह यथार्थ नहीं है। सच तो यह है कि बंद आंखों का अंधकार नकारात्मक हे; वह विधायक अंधकार नहीं है।
यहां प्रकाश है; और तुम अपनी आंखें बंद कर लेते हो। तब तुम्हें जो अंधकार दिखाई देता है वह सिर्फ प्रकाश का नकारात्मक रूप है। वह सच्चा अंधकार नहीं है। जैसे कि तुम खिड़की को देखते हो ओर फिर आंखें बंद कर लेते हो। तो तुम्हारी आंखों में खिड़की की नकारात्मक आकृति तैरती रहती है। हमारे सभी अनुभव प्रकाश के है। इसलिए हम जब आँख बंद करते हे तो हमें प्रकाश का नकारात्मक अनुभव होता है। जिसे हम अंधकार कहते है वह असली अंधकार नहीं है। उससे काम नहीं चलेगा।
अपनी आंखें खुली रखो और अंधकार में खुली आंखों से देखते रहे। तब तुम्हें एक अगर ही किस्म का अंधकार मिलेगा—विधायक अंधकार। वह सचमुच है। उसमें टकटकी लगाओ । अंधकार को घूरते रहो। तुम्हारे आंसू बहने लगेंगे। तुम्हारी आंखें दूखने लगेगी। इसकी चिंता मत करना। प्रयोग को जारी रखो। जिस क्षण अंधकार असली अंधकार तुम्हारी आंखों में प्रवेश करेगा, वह तुम्हें एक सुखद भाव से भर देगा। मानों कड़ी घूप में चलने वाली राही को घनी छाया मिल गई हो। और विधायक अंधकार का प्रवेश तुम्हारे भीतर से सभी नकारात्मक अंधकार को हटा देगा। यह बहुत अद्भुत अनुभव है।
असली अंधकार से इसेनियों के और शिव के अंधकार से हमारा संपर्क खो गया है। उसके साथ हमारा कोई संपर्क नहीं है। हम उससे इतने भयभीत है कि हम उससे बिलकुल ही विमुख हो गए है। हमने उसकी तरफ अपनी पीठ कर ली है।
तो यह विधि प्रयोग में कठिन होगी। लेकिन अगर तुम इसे कर सको तो यह अद्भुत है। तब तुम्हारा होना सर्वथा भिन्न होगा; तब तुम और ही व्यक्ति होगे।
जब अंधकार तुममें प्रवेश करता है तो तुम उसमें प्रवेश करते हो। यह सदा पारस्परिक है। दोनों तरफ से है। तुम किसी जागतिक तत्व में नहीं प्रवेश कर सकते हो। अगर वह तत्व तुम्हारे प्रवेश न करो। तुम जबरदस्ती नहीं कर सकते; उसमें जबरदस्ती प्रवेश नहीं हो सकता है। अगर तुम उपलब्ध हो, खुले हो वलनरेबल हो, अगर तुम किसी जागतिक तत्व को अपने भीतर प्रवेश देते हो, तो ही तुम उस तत्व में प्रवेश कर सकते हो। यह सदा पारस्परिक है, साथ-साथ है। तुम जबरदस्ती नहीं कर सकते, तुम उसे सिर्फ घटित होने दे सकते हो।
अभी तो शहरों में हमारे घरों में असली अंधकार का मिलना कठिन हो गया है। और नकली प्रकाश के साथ हमारा सब कुछ नकली हो गया है। हमारा अंधकार भी प्रदूषित है; वह भी शुद्ध नहीं है। तो अच्छा है कि सिर्फ अंधकार के अनुभव के लिए हम कहीं दूर निकल जाएं। तो किसी गांव में चले जाओ; जहां अभी बिजली न पहुंची हो। या किसी पहली पर चले जाओ और वहां हफ्ते भर रहो। ताकि शुद्ध अंधकार का अनुभव हो सके। तुम वहां से और ही आदमी होकर लौटोगे।
पूर्ण अंधकार में बिताए उन साथ दिनों में तुम्हारे सारे भय, सारे आदिम भय उभर कर ऊपर आ जाएंगे। भयानक जीव-जंतुओं से तुम्हारा सामना होगा। तुम्हें तुम्हारे अचेतन का साक्षात होगा। ऐसा लगेगा कि तुम उस पूरे विकास क्रम से गुजर रहे हो। जिससे पूरी मनुष्यता गुजरी है। अचेतन की गहराई में दबी बहुत चीजें ऊपर आ जाएंगी। और वे यथार्थ मालूम पड़ेगी। तुम भयभीत हो सकते हो। आतंकित हो सकते हो। क्योंकि वह चीजें यथार्थ मालूम पड़ेगी—और वे तुम्हारी मानसिक निर्मितियां भर है।
हमारे पागल खानों में अनेक पागल बंद है जो किसी और चीज से नहीं, इसी आदिम भय से पीडित है। जो भय उनके अचेतन से उभरकर बाहर आ गया है। यह भय वहां मौजूद है, और विक्षिप्त लोग उससे ही हमेशा भयभीत है, आतंकित है। और हम अभी तक नहीं मालूम है कि इन आदिम भयो से मुक्त कैसे हुआ जाए। यदि इन पागलों को अंधकार पर ध्यान करने के लिए राज़ी किया जा सके तो उनका पागल पन विदा हो जाएगा।
सिर्फ जापन में इस दिशा में इस कुछ प्रयास किया है। वे अपने पागल लोगों के साथ बिलकुल भिन्न व्यवहार करते है। यदि कोई व्यक्ति पागल हो जाता है विक्षिप्त हो जाता है, तो जापन में वे उसे उसकी जरूरत के मुताबिक तीन या छह हफ्तों के लिए एकांत में रख देते है। वे उसे सिर्फ एकांत में रहने के लिए छोड़ देते है। उसकी अन्य जरूरतें पूरी करते रहते है। वे उसे समय पर भोजन देते है। लेकि एक काम किया जाता है, राम में रोशनी नहीं जलाई जाती। उसे अंधेरे में अकेले रहना पड़ता है। निश्चित ही उसे बहुत पीड़ा से गुजरना होता है। अनेक अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। उसकी सब देख की जाती है, लेकिन उसे किसी तरह का साथ-संग नहीं दिया जाता। उसे अपनी विक्षिप्तता का साक्षात्कार सीधे और प्रत्यक्ष रूप से करना पड़ता है। और तीन से छह सप्ताह के अंदर उसका पागलपन दूर होने लगता है।
दरअसल कुछ नहीं किया गया, उसे सिर्फ एकांत में रखा गया है। बस इतना ही किया गया। पश्चिम के मनोचिकित्सक चकित है। उन्हें यह बात समझ में नहीं आती कि यह कैसे हो सकता है। वे खुद वर्षों मेहनत करते है। वे मनोविश्लेषण करते है, उपचार करते है। वे सब कुछ करते है। लेकिन वे रोगी को कभी अकेला नहीं छोड़ते। वे उसे कभी स्वयं ही अपने आंतरिक अचेतन का साक्षात्कार करने का मौका नहीं देते। क्योंकि तुम उसे जितना ही सहारा देते हो, वह उतना ही बेसहारा हो जाता है। वह उतना ही तुम पर निर्भर हो जाता है। और उतना ही तुम पर निर्भर हो जाता है। और असली सवाल आंतरिक साक्षात्कार का है। स्वयं को देखने का है। सच में कोई भी कुछ सहारा नहीं दे सकता हे। तो जो जानते है वे तुम्हें अपना साक्षात्कार करने को छोड़ देंगे। तुम्हें अपने अचेतन को भर आँख देखना होगा।
और अंधकार पर किया जानेवाला ध्यान तुम्हारे सारे पागलपन को पी जायेगा। इस प्रयोग को करो। तुम अपने घर में भी इस प्रयोग को कर सकते हो। रोज रात को एक घंटा अंधकार के साथ रहो। कुछ मत करो; सिर्फ अंधकार में टकटकी लगाओ, उसे देखो। तुम्हें पिघलने जैसा अनुभव होगा। तुम्हें एहसास होगा कि कोई चीज तुम्हारे भीतर प्रवेश कर रही हे। और तुम किसी चीज में प्रवेश कर रहे हो। तीन महीने तक रोज रात एक घंटा अंधकार के साथ रहने पर तुम्हारे वैयक्तिकता के, पृथकता के सब भाव विदा हो जायेगे। तब तुम द्वीप नहीं रहोगे,तुम सागर हो जाओगे। तुम अंधकार के साथ एक हो जाओगे।
और यह अंधकार इतना विराट है, कुछ भी उतना विराट और शाश्वत नहीं है। और कुछ भी उतना निकट नहीं है। और तुम इस अंधकार से जितने भयभीत हो त्रस्त हो उतने भयभीत और त्रस्त किसी अन्य चीज से नहीं हो। और यह तुम्हारे पास ही है, सदा तुम्हारी प्रतीक्षा में है।
‘वर्षा की अंधेरी रात में उस अंधकार में प्रवेश करो, जो रूपों का रूप है।’
उसे इस तरह देखो कि वह तुममें प्रविष्ट हो जाए।
दूसरी बात: लेट जाओ और भाव करो कि तुम अपनी मां के पास हो। अंधकार मां है—सब की मां। थोड़ा विचार करो कि जब कुछ भी नहीं था तो क्या था? तुम अंधकार के अतिरिक्त ओर किसी चीज की कल्पना नहीं कर सकते हो। और यदि सब कुछ विलीन हो जाए तो क्या रहेगा? अंधकार रहेगा। अंधकार माता है, गर्भ है।
तो लेट जाओ और भाव करो कि मैं अपनी मां के गर्भ में पडा हूं। और वह सच में वैसा अनुभव होगा। वह उष्ण मालूम पड़ेगा। और देर अबेर तुम महसूस करोगे कि अंधकार का गर्भ मुझे सब तरफ से घेरे है। और मैं उसमे हूं।
और तीसरी बात: चलते हुए, काम करते हुए, भोजन करते हुए, कुछ भी करते हुए अपने साथ अंधकार का एक हिस्सा साथ लिए चलो। जो अंधकार तुममें प्रवेश कर गया है उसे साथ लिए चलो। जैसे हम ज्योति को साथ लिए चलने की बात करते थे। वैसे ही अंधकार को साथ लिए चलो। और जैसे मैंने तुम्हें बताया कि अगर तुम अपने साथ ज्योति को लिए चलो और भाव करो कि मैं प्रकाश हूं तो तुम्हारा शरीर एक अद्भुत प्रकाश विकीरित करेगा और संवेदनशील लोग उसे अनुभव भी करेंगे। ठीक वही बात अंधकार के इस प्रयोग के साथ भी घटित होगी।
अगर तुम अपने साथ अंधकार को लिए चलो तो तुम्हारा सारा शरीर इतना विश्रांत हो जाएगा, इतना शांत और शीतल हो जाएगा कि वह दूसरों को भी अनुभव होने लगेगा। और जैसे साथ में प्रकाश साथ लिए चलने पर कुछ लोग तुम्हारे प्रति आकर्षित होंगे वैसे ही साथ में अंधकार लिए चलने पर कुछ लोग तुमसे विकर्षित होंगे, दूर भागेगे। वे तुमसे भयभीत और त्रस्त होंगे। वे ऐसा उपस्थिति को झेल नहीं पाएंगे। यह उनके लिए असह्य होगा।
अगर तुम अपने साथ अंधकार लिए चलोगे तो अंधकार से भयभीत लोग तुमसे बचने की कोशिश करेंगे, वे तुम्हारे पास नहीं आएँगे। और प्रत्येक आदमी अंधकार से डरा हुआ है। तब तुम्हें लगेगा कि मित्र मुझे छोड़ रहे है। जब तुम अपने घर आओगे तो तुम्हारा परिवार परेशान होगा। क्योंकि तुम तो शीतलता के पुंज की तरह प्रवेश करोगे। और लोग अशांत ओर क्षुब्ध है। उनके लिए तुम्हारी आंखों मे देखना कठिन होगा; तुम्हारी आंखें घाटी की तरह गहन खाई की तरह होंगी। अगर कोई व्यक्ति तुम्हारी आंखों मे झांकेगा तो वहां उसे ऐसी अतल खाई दिखेगी कि उसका सर चकराने लगेगा।
दिन भर अपने साथ अंधकार चलना तुम्हारे लिए बहुत उपयोगी होगा। क्योंकि जब तुम रात में अंधकार पर ध्यान करोगे तो जो आंतरिक अंधकार तुम अपने साथ दिन भर लिए चले रहे थे वह तुम्हें बाहरी अंधकार से जुड़ने में सहयोग देगा। आंतरिक बाह्म से मिलने के लिए उभर आयेगा।
और सिर्फ इसके स्मरण से—कि मैं अंधकार लिए चल रहा हूं कि मैं अंधकार से भरा हूं कि मेरे शरीर की एक-एक कोशिका अंधकार से भरी है। तुम बहुत विश्राम अनुभव करोगे। इसे प्रयोग करो; तुम्हारे भीतर सब कुछ शांत और विश्रामपूर्ण हो जाएगा। तब तुम दौड़ नहीं सकोगे। तुम बस चलोगे र वह चलना भी धीमे-धीमे होगा। तुम धीरे-धीरे चलोगे—जैसे की कोई गर्भवती स्त्री चलती है। तुम धीरे-धीरे चलोगे और बहुत सजगता से चलोगे। तुम अपने साथ कुछ लिए चल रहे हो।
और जब तुम अपने साथ ज्योति लेकर चलोगे तो उलटी बात घटित होगी। तब तुम्हारा चलना तेज हो जाएगा। बल्कि तुम दौड़ना चाहोगे। तुम्हारी गतिविधि बढ़ जायेगी। तुम ज्यादा सक्रिय होगे। अंधकार को साथ लिए हुए तुम विश्राम अनुभव करोगे और दूसरे लोग समझेंगे कि तुम आलसी हो गये हो।
जिन दिनों मैं विश्वविद्यालय में था, दो वर्षों तक मैंने इस विधि का प्रयोग किया। और मैं इतना आलसी हो गया कि सुबह बिस्तर से उठना भी मुश्किल था। मेरे प्राध्यापक इससे बहुत चिंतित थे और उन्हें लगाता था कि मेरे साथ कुछ गड़बड़ हो गई है। वे सोचते थे कि या तो मैं बीमार हूं या बिलकुल उदासीन हो गया हूं। एक प्राध्यापक तो, जो विभागीय अध्यक्ष थे और मुझे बहुत प्रेम करते थे इतने चिंतित थे कि परीक्षा के दिनों में वे खूद मुझे सुबह होस्टल से लेकर परीक्षा कक्ष पहुंचा आते थे। ताकि में वहां समय पर पहुंचूं। यह उनका रोज का काम था कि वे मुझे परीक्षा कक्ष में दाखिल करके चैन लेते थे और घर चले जाते थे।
तो इस प्रयोग में लाओ। अपने भीतर अंधकार लिए चलना, अंधकार ही हो जाना, जीवन के सुंदरतम अनुभवों मे एक है। चलते हुए, बैठे हुए, भोजन करते हुए, कुछ भी करते हुए स्मरण रखो कि मैं अंधकार हूं। कि मैं अंधकार से भरा हूं। और फिर देखो कि चीजें किस तरह बदलती है। तब तुम उत्तेजित नही हो सकते, बहुत सक्रिय नही हो सकते, तनावग्रस्त नही हो सकते। तब तुम्हारी नींद इतनी गहरी हो जाएगी कि सपने विदा हो जाएंगे। और पूरे दिन तुम मदहोश जैसे रहोगे।
सूफियों ने, उनके एक संप्रदाय ने इस विधि का प्रयोग किया है। और वे मस्त सूफियों के नाम से जाने जाते है। वे इसी अंधकार के नशे में चूर रहते थे। वे जमीन में गड़े खोदकर उसमें पड़े-पड़े ध्यान करते थे। अंधकार पर ध्यान करते है। और अंधकार के साथ एक हो जाते है। उनकी आंखें तुम्हें कहेगी कि वी पीए हुए है। नशे में है। तुम्हें उनकी आंखों में ऐसे प्रगाढ़ विश्राम का एहसास होगा जो तभी घटित होता है जब तुम गहरे नशे में होते हो। या जब तुम्हें नींद आती हे। तभी तुम्हारी आंखों में वैसी अभिव्यक्ति होती है। वे मस्त सूफियों के नाम से प्रसिद्ध है। और उनका नशा अंधकार का नशा है।
अंधकार—संबंधी दूसरी विधि:
७७….
‘जब चंद्रमाहीन वर्षा की रात में उपलब्ध न हो तो आंखें बंद करो और अपने सामने अंधकार को देखो। फिर आंखे खोकर अंधकार को देखो। इस प्रकार दोष सदा के लिए विलीन हो जाते है।’
WHEN A MOONLESS RAINY NIGHT IS NOT PRESENT CLOSE EYES AND FIND BLACKNESS BEFORE YOU.
OPENING EYES, SEE BLACKNESS.
SO FAULTS DISAPPEAR FOREVER.
मैंने कहा कि अगर तुम आंखें बंद कर लोगे तो जो अंधकार मिलेगा वह झूठा अंधकार होगा। तो क्या किया जाए अगर चंद्रमाहीन रात, अंधेरी रात न हो। यदि चाँद हो और चाँदनी का प्रकाश हो तो क्या किया जाए? यह सूत्र उसकी कुंजी देता है।
‘जब चंद्रमाहीन वर्षा की रात उपलब्ध न हो तो आंखें बंद करो और अपने सामने अंधकार को देखो।’
आरंभ में यह अंधकार झूठा होगा। लेकिन तुम इसे सच्चा बना सकते हो, और यह इसे सच्चा बनाने का उपाय है।
‘फिर आंखें खोलकर अंधकार को देखो।’
पहले अपनी आंखें बंद करो और अंधकार को देखो। फिर आंखें खोलों और जिस अंधकार को तुमने भीतर देखा उसे बाहर देखो। अगर बाहर वह विलीन हो जाए तो उसका अर्थ है कि जो अंधकार तुम्हारे भीतर देखा था वह झूठा था।
यह कुछ ज्यादा कठिन है। पहली विधि में तुम असली अंधकार को भीतर लिए चलते हो। दूसरी विधि में तुम झूठे अंधकार का बाहर लाते हो। उसे बाहर लाते रहो। आंखें बंद करो अंधेरे को महसूस करो। आंखे खोलों और खुली आंखों से अंधेरे को बाहर फेंको। इस भांति तुम भीतर के झूठे अंधकार को बाहर फेंकते हो। उसे बाहर फेंकते रहो।
इसमें कम से कम तीन से छह सप्ताह का समय लगेगा। और तब एक दिन तुम अचानक भीतर के अंधकार को बाहर लाने में सफल हो जाओगे। और जि दिन तुम भीतर के अंधकार को बाहर ला सको,तुमने सच्चे आंतरिक अंधकार को पा लिया। सच्चे को ही बाहर लाया जा सकता है। झूठे को नहीं लाया जा सकता है।
यह एक बहुत अद्भुत अनुभव है। अगर तुम भीतरी अंधकार को बाहर ला सकते हो तो तुम इसे प्रकाशित कमरे में भी बाहर ला सकते हो। और अंधकार का टुकड़ा तुम्हारे सामने फैल जाएगा। यह बहुत अद्भुत अनुभव है, क्योंकि कमरा प्रकाशित है। सूर्य के प्रकाश में भी यह संभव है; अगर तुम आंतरिक अंधकार को पा सके तो तुम उसे बाहर भी ला सकते हो। तुम उसे देख सकते हो।
एक बार तुम जान गए कि ऐसा हो सकता है तो तुम भरी दोपहरी में भी अंधेरी से अंधेरी से अंधेरी रात जैसा अंधकार फैला सकते हो। सूर्य मौजूद है और तुम अंधकार को फैल सकते हो।
तिब्बत में इसी तरह की अनेक विधियां है। वे चीजों को भीतरी जगत से बाहरी जगत में ला सकते है। तुमने एक प्रसिद्ध विधि के संबंध में सूना होगा। वे इसे ताप-योग कहते है। सर्द रात में, बर्फ जैसी सर्द रात में बर्फ गिर रही है। एक तिब्बती लामा उस सर्द राम में जब चारों और बर्फ गिर रही है। और तापमान शून्य से नीचे हो, खुले आकाश के नीचे बैठता है और उसके शरीर से पसीना बहने लगता है।
शरीर शास्त्र के हिसाब से ये चमत्कार है। पसीना कैसे निकलने लगता है। वह भीतरी ताप को बाहर ला रहा है। वैसे ही आंतरिक शीतलता को भी बाहर लाया जा सकता है।
महावीर के जीवन में उल्लेख है; अब तक किसी ने भी उसको समझा नहीं है। जैन सोचते है कि महावीर कोई तप कर रहे थे। अब तक किसी ने भी उसको समझा नहीं है। कहां जाता है कि जब गर्मी होती है, सूर्य तपता है। तो महावीर सदा ऐसी जगह खड़े होते थे जहां कोई छाया, कोई वृक्ष नहीं होता, कुछ भी नहीं होता। गर्मी के दिनों में वे जलती धूप में खड़े होते। और सर्दी के दिनों में वे कोई शीतल स्थान, वृक्ष की छाया या नदी का किनारा चुनते थे। जहां ताप शून्य से नीचे हो। सर्दी के समय में वे ध्यान करने के लिए सर्द स्थान चुनते थे और गर्मी के दिनों में गर्म स्थान चुनते थे। लोग सोचते थे वे पागल हो गये है। और उनके अनुयायी सोचते है कि वे तप कर रहे थे।
ऐसी बात नहीं है। असल में महावीर इसी तरह की किसी आंतरिक विधि का प्रयोग कर रहे थे। जब गर्मी पड़ती थी तो वे भीतरी शीतलता को बाहर लाने का प्रयोग कर रहे थे। और यह विपरीत स्थिति में ही अनुभव किया जा सकता है। जब सर्दी पड़ती थी तो भीतरी ताप को बाहर लाने का प्रयत्न करते थे। और यह भी प्रतिकूल पृष्ठभूमि में ही महसूस हो सकता है। वे शरीर के शत्रु नही थे, वे शरीर के विरोध में नहीं थे, जैसा जैन समझते है।
जैन समझते है कि महावीर शरीर को मिटाने में लगे थे। क्योंकि अगर तुम अपने शरीर को मिटा सको तो तुम अपनी कामनाओं को भी मिटा सकते हो। यह निरी बकवास है। वे तप-वप नहीं कर रहे थे। वे बस आंतरिक को बाहर ला रहे थे। और वे आंतरिक द्वारा सुरक्षित थे। जैसे तिब्बती लामा गिरती बर्फ के नीचे ताप पैदा करके पसीना बहा सकते थे। वैसे ही महावीर जलती धूप में खड़े रहते और उन्हें पसीना नहीं आता था। वे अपनी आंतरिक शीतलता को बाहर ला रहे थे। वह आंतरिक शीतलता बाहर आकर उनके शरीर की रक्षा करती थी।
इस तरह तुम अपने आंतरिक अंधकार को बाहर ला सकते हो। और वह अनुभव बहुत शीतल होता है। अगर तुम उसे ला सके तो तुम उससे सुरक्षित रहोगे। कोई उत्तेजना कोई मनोवेग तुम्हें विचलित नहीं कर सकेगा।
तो प्रयोग करो। ये तीन बातें है। एक अंधकार में खुली आंखों से देखा और अंधकार को अपने भीतर प्रवेश करने दो। दूसरी अंधकार को अपने चारों और मां के गर्भ की तरह अनुभव करो, उसके साथ रहो ओर उसमें अपने को अधिकाधिक भूल जाओ। और तीसरी बात जहां भी जाओ अपने ह्रदय में अंधकार का एक टुकड़ा साथ लिए जाओ।
अगर तुम यह कर सके तो अंधकार प्रकाश बन जाएगा। तुम अंधकार के द्वारा बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओगे।
‘जब चंद्रमाहीन वर्षा की रता उपल्बध न हो तो आंखें बंद करो, और अपने सामने अंधकार को देखो, फिर आंखें खोल कर अंधकार को देखो।’
यह विधि है। पहले इसे भीतर अनुभव करो, गहन अनुभव करो, ताकि तुम उसे बाहर देख सको। फिर आंखों को अचानक खोल दो और बाहर अनुभव करो। इसमे थोड़ा समय जरूर लगेगा।
‘इस प्रकार दोष सदा के लिए विलीन हो जाते है।’
अगर तुम आंतरिक अंधकार को बाहर ला सके तो दोष सदा के लिए विलीन हो जाते है। क्योंकि आंतरिक अंधकार अनुभव में आ जाए तो तुम इतने शीतल, इतने शांत इतने अनुद्विग्न हो जाओगे। कि दोष तुम्हारे साथ नहीं रह सकेगा।
स्मरण रहे। दोष तभी तक रहते है जब तक तुम उत्तेजित होने की हालत में रहे हो। दोष अपने आप नहीं रहते; वे तुम्हारी उत्तेजना की क्षमता में ही रहते है। कोई व्यक्ति तुम्हारा अपमान करता है और तुम्हारे भीतर उस अपमान को पीने के लिए अंधकार नहीं है, तुम जल भूल जाते हो। क्रोधित हो जाते हो। और तब कुछ भी संभव है। तुम हिंसक हो सकते हो। तुम हत्या कर सकते हो। तुम वह सब कर सकते हो जो सिर्फ पागल आदमी कर सकता है। कुछ भी संभव है; अब तुम विक्षिप्त हो। फिर कोई व्यक्ति तुम्हारी प्रशंसा करता है और तुम दूसरे छोर पर विक्षिप्त हो। तुम्हारे चारों और स्थितियाँ है और तुम उन्हें चुपचाप आत्मसात करने में समर्थ नहीं हो।
किसी बुद्ध का अपमान करो। वे आत्मसात कर लेंगे। वे उसे पचा जाएंगे। कौन अपमान को पचा जात है? अंधकार का, शांति का आंतरिक पुंज उसे पचा लेता है। तुम कुछ भी विषाक्त फेंको, वह आत्मसात हो जाता है। उससे कोई प्रति क्रिया नही लौटती हे।
इसे प्रयोग करो। जब कोई तुम्हारा अपमान करे तो इतना ही स्मरण रखो। कि में अंधकार से भरा हूं। और सहसा तुम्हें प्रतीत होगा कि कोई प्रतिक्रिया नहीं उठती है। तुम रास्ते से गुजर रहे हो और एक सुंदर स्त्री या पुरूष दिखाई देता है और तुम उत्तेजित हो उठते हो। ख्याल करो कि मैं अंधकार से भरा हुआ हुं। और कामवासना विदा हो जाएगी। प्रयोग करके देखो। वह बिलकुल प्रायोगिक विधि है। इसमें विश्वास करने की जरूरत नहीं है।
जब भी तुम्हें मालूम पड़े कि मैं वासना से, या कामना से, या कामवासना से भरा हुआ हूं तो आंतरिक अंधकार को स्मरण करो। एक क्षण के लिए आंखें बंद करो। अंधकार की भावना करो और तुम देखोगें कि वासना विलीन हो गई है। कामना विदा हो गई है। आंतरिक अंधकार ने उसे पचा लिया। तुम एक असीम शून्य हो गए हो। जिसमें कोई भी चीज गिर कर फिर वापस लौट सकती है। तुम अब एक अतल खाई है।
इसलिए शिव कहते है: ‘इस प्रकार दोष सदा के लिए विलीन हो जाते है।’
ये विधियां आसान मालूम पड़ती है। वे आसान है। लेकिन क्योंकि वे सरल दिखती है, इसलिए उन्हें प्रयोग किए बगैर मत छोड़ दो। वे तुम्हारे अहंकार को चुनौती न भी दें तो भी प्रयोग करो। यह हमेशा होता है कि हम सरल चीजों को प्रयोग नहीं करते है। हम सोचते है कि वे इतनी सरल है कि सच नहीं हो सकती है। और सत्य सदा सरल होता है। वह कभी जटिल नहीं होता। उसे जटिल होने की जरूरत ही नहीं है। सिर्फ झूठ जटिल होता है। वह सरल नहीं हो सकता। अगर वह सरल हो तो उसका झूठ जाहिर हो जायेगा। और क्योंकि कोई चीज सरल मालूम पड़ती है। हम सोचते है कि इससे कुछ नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि उससे कुछ नहीं होता है। लेकिन हमारा अहंकार तभी चुनौती पाता है जब कोई चीज बहुत कठिन हो।
तुम्हारे ही कारण अनेक संप्रदायों ने अपनी विधियों को जटिल बना दिया है। उसकी कोई जरूरत नहीं है। लेकिन वे उसमे अनावश्यक जटिलता और अवरोध निर्मित करते है। ताकि वे कठिन हो सकें। ताकि वे तुम्हें भाएं। उनसे तुम्हारे अहंकार को चुनौती मिले। अगर कोई चीज बहुत कठिन हो, जिसे बहुत थोड़े लोग करने में समर्थ हों, तो तुम्हें लगता है कि यह करने जैसा है। यह तुम्हें सिर्फ इसलिए करने जैसा लगता है। क्यों कि बहुत थोड़े लोग ही इसे कर सकते है।
ये विधियां एक दम सरल है। शिव तुम्हारा विचार नहीं करते है; वे विधि का वर्णन ठीक वैसा कर रहे है जैसा वह है। वे उसे सरलतम रूप में, कम से कम शब्दों में सूत्र के रूप में प्रकट कर रहे है। तो अपने अहंकार के लिए चुनौती मत खोजों। ये विधियां तुम्हें अहंकार की यात्रा पर ले जाने के लिए नहीं है। वे तुम्हारे अहंकार को कोई चुनौती नहीं देती। लेकिन यदि तुम इनका प्रयोग करोगे तो वे तुम्हें रूपांतरित कर देंगी। और चुनौती कोई अच्छी बात नहीं है। क्योंकि चुनौती से तुम ज्वर-ग्रस्त हो जाते हो। विक्षिप्त हो जाते हो।
अंधकार संबंधि तीसरी विधि:
७८…
“जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर अनुभव।”
WHEREVER YOUR ATTENTION ALIGHTS, AT THIS VERY POINT, EXPERIENCE.
क्या? क्या अनुभव? इस विधि में सबसे पहले तुम्हें अवधान साधना होगा, अवधान का विकास करना होगा। तुम्हें इस भांति का अवधान पूर्ण रूख, रुझान विकसित करना होगा; तो ही यह विधि संभव होगी। और तब जहां भी तुम्हारा अवधान उतरे, तुम अनुभव कर सकते हो—स्वयं को अनुभव कर सकते हो। एक फूल को देखने भर से तुम स्वयं को अनुभव कर सकते हो। तब फूल को देखना सिर्फ फूल को ही देखना नहीं है। वरन देखने वाले को भी देखना है। लेकिन यह तभी संभव है जब तुम अवधान का रहस्य जान लो।
तुम भी फूल को देखते हो और तुम सोच सकते हो कि मैं फूल को देख रहा हूं। लेकिन तुमने तो फूल के बारे में विचार करना शुरू कर दिया और तुम फूल को चूक गये। तुम वहां नहीं हो जहां फूल है। तुम कहीं और चले गए, तुम दूर हट गए। अवधान का अर्थ है कि जब तुम फूल को देखते हो तो तुम फूल को ही देखते हो। कोई दूसरा काम नहीं करते हो—मानों मत ठहर गया है। अब कोई विचारणा नहीं हे। फूल का सीधा अनुभव भर है। तुम यहां हो और फूल वहां है। और कोई विचारण नहीं, दोनों के बीच कोई विचार नहीं।
यदि यह संभव हो तो अचानक तुम्हारा अवधान फूल से लौटकर स्वयं पर आ जाएगा। एक वर्तुल बन जाएगा। तुम फूल को देखोगें और वह दृष्टि वापस लौटेंगी; फूल उसे वापस कर देगा, द्रष्टा पर ही लौटा देगा। अगर विचार नहीं तो यह घटित होता हे। तब तुम फूल को ही नहीं देखते, तुम देखने वाले को देखते हो। तब देखने वाला और फूल दो आब्जेक्ट्स हो जाते है। तुम दोनों के साक्षी हो जाते हो।
लेकिन पहले अवधान को प्रशिक्षित करना होगा। तुममें अवधान बिलकुल नहीं है। तुम्हारा अवधान सतत बदलता रहता है—यहां से वहां से कही और। तुम एक क्षण के लिए भी अवधान पूर्ण नहीं रहते हो। जब मैं यहां बोल रहा हूं तो तुम मेरी बात भी कभी नहीं सुनते। तुम एक शब्द सुनते हो और फिर तुम्हारा अवधान और कहीं चला जाता है। फिर तुम्हारा अवधान वापस मेरी बात पर आता है। फिर तुम एक शब्द सुनते हो, फिर तुम्हारा ध्यान कही और चला जाता है।
तुम थोड़े से शब्द सुनते हो और बाकी के खाली स्थानों पर अपने शब्द डाल लेते हो। और सोचते हो कि तुमने मुझे सुना। और तुम जो भी यहां से ले जाते हो वह तुम्हारी अपनी रचना है, तुम्हारा अपना धंधा है। तुमने मेरे थोड़े से शब्द सुने और खाली जगह पर अपने शब्द भर दिये। और तुम जितनी खाली जगह को भरते हो, वह पूरी चीज को बदल देती है।
मैं एक शब्द बोलता हूं और तुमने उसके संबंध में झट सोचना शुरू कर दिया; तुम मौन नहीं रह सकते। यदि तुम सुनते हुए मौन रह सको तो तुम अवधान पूर्ण हो। अवधान का अर्थ है वह मौन सजगता। वह शांत बोध। जिसमें विचारों का कोई व्यवधान न हो, बाधा न हो।
तो अवधान का विकास करो। और उसे करके ही तुम उसका विकास कर सकते हो; इसके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। अवधान दो, उसे बढ़ाते जाओ,प्रयोग से वह विकसित होगा। कुछ भी करते हुए। कहीं भी तुम अवधान को विकसित कर सकते हो। तुम कार में या रेलगाडी में यात्रा कर रहे हो। वही अवधान को बढ़ाने का प्रयोग करो। समय मत गंवाओ। तुम आधा घंटा कार या रेलगाड़ी में रहने वाले हो; वही अवधान साधो। बस वहां होओ। विचार मत करो। किसी व्यक्ति को देखो, रेलगाड़ी को देखो या बाहर देखो,पर द्रष्टा रहो। विचार मत करो। वहां होओ और देखो। तुम्हारी दृष्टि सीधी, प्रत्यक्ष और गहरी हो जाएगी। और तब सब तरफ से तुम्हारी दृष्टि वापस लौटने लगेगी। और तुम द्रष्टा के प्रति बोध से भर जाओगे।
तुम्हें अपना बोध नहीं है। तुम अपने प्रति सावचेत नहीं हो। क्योंकि विचारों की एक दीवार है। जब तुम एक फूल को देखते हो तो पहले तुम्हारे विचार तुम्हारी दृष्टि को बदल देते है; वह उसे अपना रंग दे देते है। और वह दृष्टि वापस आती है। वह तुम्हें कभी वहां नहीं पाती; तुम कहीं और चले गए होते हो। तुम वहां नहीं होते हो।
प्रत्येक दृष्टि वापस लौटती है। प्रत्येक चीज प्रतिबिंबित होती है। प्रतिसंवेदित होती है। लेकिन तुम उसे ग्रहण करने के लिए वहां मौजूद नहीं होते। तो उसके ग्रहण के लिए मौजूद रहो। पूरे दिन तुम अनेक चीजों पर यह प्रयोग कर सकते हो। और धीरे-धीरे तुम्हारा अवधान विकसित होगा। तब इस अवधान के साथ एक प्रयोग करो।
‘जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर, अनुभव।’
तब कहीं भी देखा, लेकिन देखो। अब अवधान वहां है। अब तुम स्वयं को अनुभव करोगे। लेकिन पहली शर्त है अवधान पूर्ण होने की क्षमता को प्राप्त करना। और तुम इसका अभ्यास कही भी कर सकते हो। उसके लिए अतिरिक्त समय की जरूरत नहीं है। तुम जो भी कर रहो हो, भोजन कर रहे हो, या स्नान कर रहे हो, बस अवधान पूर्ण होओ।
लेकिन समस्या क्या है? समस्या यह है कि हम सब काम मन के द्वारा करते है। और हम निरंतर भविष्य के लिए योजनाएं बनाते है। तुम रेलगाड़ी में सफर कर रहे हो और तुम्हारा मन किन्हीं दूसरी यात्राओं के आयोजन में व्यस्त है। उनके कार्यक्रम बनाने में संलग्न है। इसे बंद करो।
झेन संत बोकोजू ने कहा है: ‘मैं यही एक ध्यान जानता हूं। जब में भोजन करता हूं तो भोजन करता हूं। जब मैं चलता हूं तो चलता हूं। और जब मुझे नींद आती है तो मैं सो जाता हूं। जो भी होता है; होता है, उसमें मैं कभी हस्तक्षेप नहीं करता।’
इतना ही करने को है कि हस्तक्षेप मत करो। और जो भी घटित होता हो उसे घटित होने दो। तुम सिर्फ वहां मौजूद रहो। यही चीज तुम्हें अवधान पूर्ण बनाएगी। और जब तुम्हें अवधान प्राप्त हो जाए तो यह विधि तुम्हारे हाथ में है।
‘जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर, अनुभव।’
तुम अनुभव करने वाले को अनुभव करोगे। तुम स्वयं पर लौट आओगे। सब जगह से तुम प्रतिबिंबित होगे। सब जगह से तुम प्रतिध्वनित होगे। सारा अस्तित्व दर्पण बन जाएगा। तुम सब जगह प्रति बिंबित होगे। पूरा अस्तित्व तुम्हें प्रतिबिंबित करेगा।
और केवल तभी तुम स्वयं को जान सकते हो। उसके पहले नहीं । जब तक समस्त अस्तित्व ही तुम्हारे लिए दर्पण न बन जाए। जब तक अस्तित्व का कण-कण तुम्हें प्रकट न करे; जब तक प्रत्येक संबंध तुम्हें विस्तृत न करे…। तुम इतने असीम हो कि छोटे दर्पणों से नहीं चलेगा। तुम अंतस से इतने विराट हो कि जब तक सारा आस्तित्व दर्पण न बने, तुम्हें झलक नहीं मिल पाएगी। जब समस्त अस्तित्व दर्पण बन जाता है, केवल तभी तुम प्रतिबिंबित हो सकते हो। तुम्हारे भीतर भगवता विराजमान है।
और अस्तित्व को दर्पण बनाने की विधि है: अवधान पैदा करो, ज्यादा सावचेत बनो, और जहां कहीं तुम्हारा अवधान उतरे—जहां भी, जिस किसी विषय पर भी तुम्हारा ध्यान जाए—अचानक स्वयं को अनुभव करो।
यह संभव है। लेकिन अभी तो यह असंभव है। क्योंकि तुमने बुनियादी शर्त नहीं पूरी की है। तुम एक फूल को देख सकते हो। लेकिन वह अवधान नहीं है। अभी तो तुम फूल के चारों और बाहर-भीतर धूम रहे हो। तुमने भागते-भागते फूल को देखा है; तुम उसके साथ क्षण भर के लिए नहीं रहे हो। रुको, अवधान पैदा करो, सावचेत बनो, और समस्त जीवन ध्यान पूर्ण हो जाता है।
‘जहां कहीं भी तुम्हारा अवधान उतरे, उसी बिंदु पर, अनुभव।’
बस स्वयं को स्मरण करो।
इस विधि के सहयोगी होने का एक गहरा कारण है। तुम एक गेंद को दीवार पर मारो; गेंद वापस लौट आयेगी। जब तुम किसी फूल या किसी चेहरे को देखते हो तो तुम्हारी कुछ उर्जा उस दशा में गति कर रही है। तुम्हारा देखना ही उर्जा है। तुम्हें पता नहीं है कि जब तुम देखते हो तो तुम उर्जा दे रह हो। थोड़ी ऊर्जा फेंक रहे हो। तुम्हारी ऊर्जा का, तुम्हारी जीवन ऊर्जा का एक अंश फेंका जा रहा है। यही कारण है कि दिन भर रास्ते पर देखते-देखते तुम थक जाते हो। चलते हुए लोग, विज्ञापन, भीड़ दुकानें—इन्हें देखते देखते। तुम थकान अनुभव करते हो। और आराम करने के लिए आंखें बंद कर लेना चाहते हो। क्या हुआ? तुम इतने थके माँदे क्यों हो? तुम ऊर्जा फेंकते रहे हो।
बुद्ध और महावीर दोनों इस पर जोर देते थे। कि उनके शिष्य चलते हुए दूर तक न देखें। जमीन पर दृष्टि रखकर चलें। बुद्ध कहते थे कि तुम सिर्फ चार फीट आगे तक देख सकते हो। इधर-उधर कहीं मत देखो। सिर्फ अपनी राह को देखो जि पर चल रहे हो। चार फीट आगे सरक जाएगी। उससे ज्यादा दूर मत देखो। क्योंकि तुम्हें अकारण अपनी ऊर्जा का अपव्यय नहीं करना है।
जब तुम देखते हो तो तुम थोड़ी ऊर्जा बाहर फेंकते हो। रुको, मौन प्रतीक्षा करो,उस ऊर्जा को वापस आने दो। और तुम चकित हो जाओगे। अगर तुम ऊर्जा को वापस आने देते हो तो तुम कभी नहीं थकोंगे। इसे प्रयोग करो। कल सुबह इस विधि का प्रयोग करो। शांत हो जाओ। किसी चीज को देखो। शांति रहो। उसके बारे में विचार मत करो। और एक क्षण धैर्य से प्रतीक्षा करो। ऊर्जा वापस आएगी। असल में तुम और भी प्राणवान हो जाओगे।
लोग निरंतर मुझसे पूछते है; मैं सतत पढ़ता रहता हूं। इसलिए वे पूछते है; आपकी आंखें अभी भी ठीक कैसे है? आप जितना पढ़ते है, आपको कत का चश्मा लग जाना चाहिए था। तुम पढ़ सकते हो लेकिन अगर तुम निर्विचार मौन होकर पढ़ो तो ऊर्जा वापस आ जाती है। वह व्यर्थ नहीं होती है। और तुम कभी थकान अनुभव नहीं करोगे। मैं जिंदगी भर रोज बारह घंटे पढ़ता रहा हूं। कभी-कभी अठारह घंटे भी; लेकिन मैंने थकावट कभी महसूस नही की। मैंने अपनी आंखों में कभी कोई अड़चन, कभी कोई थकान नहीं अनुभव की।
निर्विचार अवस्था में उर्जा लौट आती है। कोई बाधा नहीं पड़ती है। और अगर तुम वहां मौजूद हो तो तुम उसे पुन: आत्मसात कर लेते हो। और वह पून: आत्मसात करना तुम्हें पुनरुज्जीवित कर देता है। सच तो यह है कि तुम्हारी आंखें थकनें के बजाय ज्यादा शिथिल, ज्यादा प्राणवान, ज्यादा ऊर्जावान हो जाती है।