विज्ञान भैरव तंत्र – ४ (७३-७५)

Conscious doing:

७३…
‘ग्रीष्‍म ऋतु में जब तुम समस्‍त आकाश को अंतहीन निर्मलता में देखो, उस निर्मलता में प्रवेश करो।‘’
IN SUMMER WHEN YOU SEE THE ENTIRE SKY ENDLESSLY CLEAR, ENTER SUCH CLARITY.

७४…
‘हे शक्‍ति, समस्‍त तेजोमय अंतरिक्ष मेरे सिर में ही समाहित है, ऐसा भाव करो।’
SHAKTI, SEE ALL SPACE AS IF ALREADY ABSORBED IN YOUR OWN HEAD IN THE BRILLIANCE.

७५ …
‘जागते हुए सोते हुए, स्‍वप्‍न देखते हुए, अपने को प्रकाश समझो।’
WAKING, SLEEPING, DREAMING, KNOW YOU AS LIGHT.

पहिली विधी :

७३…
‘ग्रीष्‍म ऋतु में जब तुम समस्‍त आकाश को अंतहीन निर्मलता में देखो, उस निर्मलता में प्रवेश करो।‘’
IN SUMMER WHEN YOU SEE THE ENTIRE SKY ENDLESSLY CLEAR, ENTER SUCH CLARITY.

मन विभ्रम है; मन उलझन है। उसमें स्‍पष्‍टता नहीं है। निर्मलता नहीं है। और मन सदा बादलों से घिरा रहता है। वह कभी निरभ्र, शुन्‍य आकाश नहीं होता। मन निर्मल हो ही नहीं सकता। तुम अपने मन को शांत-निर्मल नहीं बना सकते हो। ऐसा होना मन के स्‍वभाव में ही नहीं है। मन अस्‍पष्‍ट रहेगा, धुंधला-धुंधला ही रहेगा। अगर तुम मन को पीछे छोड़ सके, अगर तुम मन का अतिक्रमण कर सके, उसके पार जा सके, तो एक स्‍पष्‍टता तुम्‍हें उपलब्‍ध होगी। तुम द्वंद्व रहित हो सकते हो। मन नहीं। द्वंद्व रहित मन जैसी कोई चीज होती ही नहीं। न कभी अतीत में थे और न कभी भविष्‍य में होगी। मन का अर्थ ही द्वंद्व है उलझाव है।

मन की संरचना को समझने की कोशिश करो और तब यह विधि तुम्‍हें स्‍पष्‍ट हो जाएगी। मन क्‍या है? मन विचारों की एक प्रक्रिया है, विचारों का एक सतत प्रवाह है—चाहे वे विचार संगत हों या असंगत हो। चाहे वे प्रासंगिक हो या अप्रासंगिक हो। मन सब जगहों से संग्रहित किए गए बहुआयामी प्रभावों का एक लंबा जलूस है। तुम्‍हारा सारा जीवन एक संग्रह है—धूल का संग्रह। और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है।

एक बच्‍चा जन्‍म लेता है। बच्‍चे की दृष्‍टि निर्मल है; क्‍योंकि उसके पास मन नहीं है। लेकिन जैसे ही मन प्रवेश करता है, उसके साथ ही द्वंद्व और उलझन भी प्रवेश कर जाती है। बच्‍चा निर्मल है। निर्मलता ही है। लेकिन उसे ज्ञान, सूचना, संस्‍कृति, धर्म और संस्‍कारों का संग्रह करना ही पड़ेगा। वे जरूरी है। उपयोगी है, उसे अनेक जगहों से, अनेक स्रोतों से इकट्ठा करेगा। और तब उसका मन एक बाजार बन जाएगा—एक मेला, एक भिड़। और क्‍योंकि उसके स्‍त्रोत अनेक है, उलझन और भ्रांति और विभ्रम का होना है। और तुम कितना भी इकट्ठा करो, कुछ भी निश्‍चित नहीं हो पाता है। क्‍योंकि ज्ञान सदा बदलता रहता है। और बढ़ता रहता है।

मुझे स्‍मरण आता है कि किसी ने मुझे एक चुटकला सुनाया था। वह एक बड़ा शोधकर्ता था और यह चुटकला उसके एक प्रोफेसर के बाबत था जिन्‍होंने उसे मेडिकल कालेज में पाँच वर्षों तक पढ़ाया था। वह प्रोफेसर अपने विषय का भारी विद्वान था। और उसने जो अंतिम काम किया वह यह था कि उसने अपने सारे विद्यार्थियों को जमा किया और कहा: ‘मुझे तुम्‍हें एक और चीज सिखानी है। मैंने तुम्‍हें जो कुछ पढ़ाया है उकसा पचास प्रतिशत ही सही है। और शेष पचास प्रतिशत बिलकुल गलत है। लेकिन कठिनाई यह कि मैं नहीं जानता कि कौन सा पचास प्रतिशत सही है और कौन सा पचास प्रतिशत गलत है।’

ज्ञान की सारी इमारत ऐसे ही खड़ी है। कुछ भी निश्‍चित नही है। कोई नहीं जानता है; हर कोई अंधेरे में टटोल रहा है। ऐसे ही टटोल-टटोल कर हम शास्‍त्र निर्मित करते है; विचार पद्धतियां बनाते है। और ऐसे ही हजारों-हजारों शास्‍त्र बन गए है। हिंदू कुछ कहते है; ईसाई कुछ और कहते है। मुसलमान कुछ और कहते है। और सब एक दूसरे का खंडन करते है। उनमें कोई सहमति नहीं है। और कोई भी निश्‍चित नहीं है। असंदिग्‍ध नहीं है। और ये सारे स्‍त्रोत ही तुम्‍हारे मन के स्‍त्रोत है। तुम इनसे ही अपना संग्रह निर्मित करते हो। तुम्‍हारा मन एक कबाड़ खाना बन जाता है। विभ्रम अनिवार्य है; उलझन अनिवार्य है।

केवल वही आदमी निश्‍चित हो सकता है। जो बहुत जानता है। तुम जितना अधिक जानोंगे, उतने ही भ्रमित होगे। उलझन ग्रस्‍त होगे। आदिवासी लोग ज्‍यादा निश्‍चिंत थे और उनकी आंखें ज्‍यादा निर्मल मालूम पड़ती है। यह दृष्‍टि की निर्मलता नहीं थे। यह सिर्फ परस्‍पर विरोधी तथ्‍यों के प्रति उनका अज्ञान था। अगर आधुनिक चित ज्‍यादा भ्रमित है तो उसका कारण है कि आधुनिक चित बहुत ज्‍यादा जानता है। अगर तुम ज्‍यादा जानोंगे तो तुम ज्‍यादा भ्रमित होगे। क्‍योंकि अब तुम बहुत कुछ जानते हो। और तुम जितना ज्‍यादा जानोंगे उतने ही ज्‍यादा अनिश्‍चित होगे। केवल मूढ़ ही असंदिग्‍ध होंगे। केवल मूढ़ ही मतांध होंगे; केवल मूढ़ ही कभी झिझक में नहीं पड़ते। तुम जितना ही जानोंगे उतनी ही तुम्‍हारे पांव के नीचे से जमीन खिसक जाएगी। तुम उतनी ही अधिक उधेड़बुन में पड़ोगे।

मैं यह कहना चाहता हूं कि मन जितना ही बड़ा होगा तुम उतना ही जानोंगे कि भ्रांति मन का स्‍वभाव है। और जब मैं कहता हूं कि केवल मूढ़ ही निश्‍चित हो सकते है। तो उसका अर्थ यह नहीं है कि बुद्ध मूढ़ है। क्‍योंकि वे संदिग्‍ध नहीं है। इस भेद को स्‍मरण रखो; बुद्ध ने निश्‍चित है न अनिश्‍चित; बुद्ध की दृष्‍टि स्‍पष्‍ट है। मनके साथ अनिश्‍चय है; मूढ़ मन के साथ निश्‍चित है; और अ-मन के साथ निश्‍चय-अनिश्‍चिय दोनों विदा हो जाते है।

बुद्ध परम होश है, शुद्ध बोध है—खुले आकाश जैसे है। वे निश्‍चित नहीं है; निश्‍चित होने को क्‍या है? वे अनिश्‍चित भी नहीं है; अनिश्‍चित होने का क्‍या है? केवल वही अनिश्‍चित हो सकता है जो निश्‍चित की खोज में है। मन सदा अनिश्‍चित रहता है। और निश्चय की खोज करता है। मन सदा कन्फ्यूज रहता है और क्‍लैरिटी की तलाश करता है। बुद्ध ने मन को ही गिरा दिया है। और मन के साथ सारे विभ्रम को, सारे निश्‍चय-अनिश्‍चय को,सब कुछ को गिरा दिया है।

इसे इस तरह देखा। तुम्‍हारी चेतना आकाश जैसी है और तुम्‍हारा मन बदलों जैसा है। आकाश बादलों से अछूता रहता है। बादल आते है जाते है, लेकिन आकाश पर उनका कोई चिन्‍ह नहीं छूटता है। बादलों की कोई स्‍मृति कुछ भी नहीं पीछे रहता है। बादला आते-जाते है, आकाश अनुद्विग्न शांत रहता है।

तुम्‍हारे साथ भी यहीं बात है, तुम्‍हारी चेतना अनुद्विग्‍न, अक्षुब्‍ध शांत रहती है। विचार आते है और जाते है, मन उठते है और खो जाते है। ऐसा मत सोचो कि तुम्‍हारे पास एक ही मन है, तुम्‍हारे पास अनेक मन है। मनों की एक भीड़ है। और तुम्‍हारे मन बदलते रहते है।

तुम कम्‍युनिस्‍ट हो; तो तुम्‍हारे पास एक तरह का मन होगा। फिर तुम कम्यूनिज् छोड़कर कम्यूनिज़म विरोधी बन सकते हो। तब तुम्‍हारे पास भिन्‍न मन होगा। भिन्‍न ही नहीं होगा, सर्वथा विपरीत मन होगा। तुम वस्‍त्रों की भांति अपने मन बदलते रह सकते हो। और तुम बदलते रहते हो; तुम्‍हें इसका पता हो या न हो। ये बादल आते है जाते है।

निर्मलता तो तब प्राप्‍त होती है जब तुम अपनी दृष्‍टि को बादलों से हटाते हो। जब तुम आकाश के प्रति बोधपूर्ण होते हो। अगर तुम्‍हारी दृष्‍टि आकाश पर नहीं है तो उसका अर्थ है कि वह बादलों पर लगी है। उसे बादलों से हटाकर आकाश पर केंद्रित करो।

यह विधि कहती है: ‘ग्रीष्‍म ऋतु में जब तुम समस्‍त आकाश को अंतहीन निर्मलता में देखो, उस निर्मलता में प्रवेश करो।’
आकाश पर ध्‍यान करो। ग्रीष्‍म ऋतु का निरभ्र आकाश, दूर-दूर तक रिक्‍त और निर्मल, निपट खाली अस्‍पर्शित और कुंवारा। उस पन मनन करो। ध्‍यान करो। उस निर्मलता में प्रवेश करो। वह निर्मलता ही हो जाओ—आकाश जैसी निर्मलता।

अगर तुम निर्मल, निरभ्र आकाश पर ध्‍यान करोगे तो तुम अचानक महसूस करोगे कि तुम्‍हारा मन विलीन हो रहा है। विदा हो रहा है। ऐसे अंतराल होंगे। जिनमें अचानक तुम्‍हें बोध होगा कि निर्मल आकाश तुम्‍हारे भीतर प्रवेश कर गया है। ऐसे अंतराल होंगे। जिनमें कुछ देर के लिए विचार खो जायेंगे। मानों चलती सड़क अचानक सूनी हो गई है। और वहां कोई नहीं चल रहा है।

आरंभ में यह अनुभव कुछ क्षणों के लिए होगा; लेकिन वे क्षण भी बहुत रूपांतरण कारी होगे। फिर धीरे-धीरे मन की गति धीमी होने लगेगी और अंतराल बड़े होने लगेंगे। अनेक क्षणों तक कोई विचार, कोई बादल नहीं होगा। और जब कोई विचार, कोई बादल नहीं होगा तो बाहरी आकाश और भीतरी आकाश एक हो जाएंगे। क्‍योंकि विचार ही बाधा है, विचार ही दीवार निर्मित करते है; विचारों के कारण ही बाहर भीतर का भेद खड़ा होता है जब विचार नहीं होते तो बाहरी और भीतरी दोनों अपनी सीमाएं खो देते है। और एक हो जाते है। वास्‍तव में सीमाएं वहां कभी नहीं थी। सिर्फ विचार के कारण, विचार के अवरोध के कारण सीमाएं मालूम पड़ती थी।

आकाश पर ध्‍यान करना बहुत सुंदर है। बस लेट जाओ, ताकि पृथ्‍वी को भूल सको। किसी एकांत सागर तट पर, या कहीं भी जमीन पर पीठ के बल लेट जाओ और आकाश को देखो। लेकिन इसके लिए निर्मल आकाश सहयोगी होगा—निर्मल और निरभ्र आकाश। और आकाश को देखते हुए,उसे अपलक देखते हुए उसकी निर्मलता को, उसके निरभ्र फैलाव को अनुभव करो। और फिर उस निर्मलता में प्रवेश करो, उसके साथ एक हो जाओ। अनुभव करो कि जैसे तुम आकाश ही हो गए हो।

आरंभ में अगर तुम सिर्फ कुछ और नहीं करो खुले आकाश पर ही ध्‍यान करो। तो अंतराल आने शुरू हो जाएंगे। क्‍योंकि तुम जो कुछ देखते हो वह तुम्‍हारे भीतर प्रवेश कर जाता है। तुम जो कुछ देखते हो वह तुम्‍हें भीतर से उद्वेलित कर देता है। तुम जो कुछ देखते हो वह तुममें बिंबित-प्रतिबिंबित हो जाता है।

तुम एक मकान देखते हो। तुम उसे मात्र देखते ही तुम्‍हारे भीतर कुछ होने भी लगता है। तुम एक पुरूष को या एक स्‍त्री को देखते हो, एक कार को देखते हो, या कुछ भी देखते हो। वह अब बहार हीन ही; तुम्‍हारे भीतर भी कुछ होने लगता है। कोई प्रतिबिंब बनने लगता है। और तुम प्रतिक्रिया करने लगते हो तुम जो कुछ देखते हो वह तुम्‍हें ढालता है, गढ़ता है; वह तुम्‍हें बदलता है। निर्मित करता है। बाह्म सतत भीतर से जूड़ा है।

तो खुले आकाश को देखना बढ़िया है। उसका असीम विस्‍तार बहुत सुंदर है। उस असीम के संपर्क में तुम्‍हारी सीमाएं भी विलीन होने लगती है; क्‍योंकि वह असीम आकाश तुम्‍हारे भी प्रतिबिंबित होने लगता है।

और तुम अगर आंखों को झपके बिना अपलक ताक सको तो बहुत अच्‍छा है। अपलक ताकना बहुत अच्‍छा है। क्‍योंकि अगर तुम पलक झपकते हो विचार प्रक्रिया चालू रहेगी। तो बिना पलक झपकाए अपलक देखो। शून्‍य में देखो; उस शून्‍य में डूब जाओ। भाव करो कि तुम उससे एक हो गए हो। और फिर आकाश तुममें उतर आएगा।

पहले तुम आकाश में प्रवेश करते हो फिर आकाश तुम में प्रवेश करता है। तब मिलन घटित होता है। आंतरिक आकाश बाह्म आकाश से मिलता है। और उस मिलन में उपलब्‍धि है। उस मिलन में मन नहीं होता। क्‍योंकि वह मिलन ही तब होता है जब मन नहीं होता। उस मिलन में तुम पहली दफा मन नहीं होते हो। और इसके साथ सारी भ्रांति विदा हो जाती है। मन के बिना भ्रांति नहीं हो सकती है। सारा दूःख समाप्ति हो जाता है। क्‍योंकि दूःख भी मन के बिना नहीं हो सकता है।

तुमने क्‍या कभी इस बात पर ध्‍यान दिया है। दुःख मन के बिना नहीं हो सकता हे। तुम मन के बिना दुःखी नहीं हो सकते हो। उसका स्‍त्रोत ही नहीं रहा। कौन तुम्‍हें दुःख देगा। कौन तुम्‍हें दुःखी बनाएगा? और उलटी बात भी सही है। तुम मन के बिना दुःखी नहीं हो सकते हो। तुम मन के रहते आनंदित नहीं रह सकते हो। मन कभी आनंद का स्‍त्रोत नहीं हो सकता है।

यदि भीतर और बाहरी आकाश क्षण भर के लिए भी मिलते है और मन विलीन हो जाता है। तो तुम एक नए जीवन से भर जाओगे। उस जीवन की गुणवता ही और है। यहीं शाश्‍वत जीवन है—मृत्‍यु से अस्‍पर्शित शाश्‍वत जीवन।

उस मिलन में तुम यहां और अभी होगे। वर्तमान में होगे। क्‍योंकि अतीत विचार का हिस्‍सा है और भविष्‍य भी विचार का हिस्‍सा हे। अतीत और भविष्‍य मन के हिस्‍से है; वर्तमान अस्‍तित्‍व है; वह तुम्‍हारे मन का हिस्‍सा नहीं है। जो क्षण बीत गया वह मन का है, जो क्षण आने वाला है वह मन का है। लेकिन वर्तमान क्षण कभी तुम्‍हारे मन का हिस्‍सा नहीं हो सकते है। बल्‍कि तुम ही इस क्षण के हिस्‍से हो। तुम यहीं हो, ठीक अभी और यहीं हो। लेकिन तुम्‍हारा मन कहीं और होता है। सदा कहीं और होता है।

तो अपने को भार-मुक्‍त करो। मैं एक सूफी संत की कहानी पढ़ रहा था। वह एक सुनसान रास्‍ते से यात्रा कर रहा था। रास्‍ता निर्जन हो चला था, तभी उसे एक किसान अपनी बैलगाड़ी के पास दिखाई पडा। बैलगाड़ी कीचड़ में फंस गई थी। रास्‍ता उबड़-खाबड़ था। किसान अपनी गाड़ी में सेब भर कर ला रहा था; लेकिन रास्‍ते में कहीं गाड़ी का पिछला तख्‍ता खुल गया था और सेब गिरते गए थे। लेकिन उसे इसकी खबर नहीं थी। किसान को इसका पता नहीं था। जब गाड़ी कीचड़ मे फंसी तो पहले तो उसने उसे निकालने की भरसक चेष्‍टा कि, लेकिन उसके सब प्रयत्‍न व्‍यर्थ गए। तब उसने सोचा कि मैं गाड़ी को खाली कर लूं तो निकालना आसान हो जाएगा।

उसने जब लौटकर देखा तो मुश्‍किल से दर्जन भर सेब बचे थे। सब बोझ पहले ही उतर चूका था। तुम उसकी पीड़ा समझ सकते हो। उस सूफी ने अपने संस्‍मरणों में लिखा है कि थके-हारे किसान ने एक आह भरी: ‘नरक में गाड़ी फंसी और उतारने को कुछ भी नहीं है।’यही एक आशा बची थी कि गाड़ी खाली हो तो कीचड़ से निकल आएगी। पर अब खाली करने को भी कुछ नहीं है।

सौभाग्‍य से तुम इस तरह नहीं फंसे हो। तुम खाली कर सकते हो। तुम्‍हारी गाड़ी बहुत बोझिल है। तुम मन को खाली कर सकते हो। और जैसे ही मन गया कि तुम उड़ सकते हो। तुम्‍हें पंख लग जाते है।

यह विधि—आकाश की निर्मलता में झांकने और उसके साथ एक होने की विधि—उन विधियों में सक एक है जिनका बहुत उपयोग किया गया है। अनेक परंपराओं ने इसका उपयोग किया है। और खास कर आधुनिक चित के लिए यह विधि बहुत उपयोगी है। क्‍योंकि पृथ्‍वी पर कुछ भी नहीं बचा है जिस पर ध्‍यान किया जा सके। सिर्फ आकाश बचा है। तुम यदि अपने चारों ओर देखोगें तो पाओगे कि प्रत्‍येक चीज मनुष्‍य निर्मित है। प्रत्‍येक चीज सीमित हो गई है; प्रत्‍येक चीज सीमा में सिकुउ गई है। सौभाग्‍य से आकाश अब भी बचा है। जो ध्‍यान करने के लिए उपलब्‍ध है।

तो इस विधि करो; यह उपयोगी होगी। लेकिन तीन बातें याद रखने जैसी है। पहली बात की पलकें मत झपकना, अपलक देखो। अगर तुम्‍हारी आंखें दुखन लगे और आंसू बहने लगें तो भी चिंता मत करना। वे आंसू भी तुम्‍हारे निर्भार करने में सहयोगी होंगे। वे आंसू तुम्‍हारी आंखों को ज्‍यादा निर्दोष और ताजा बना जाएंगे। वे उन्‍हें नहला देंगे। तुम अपलक देखते जाओ।

दूसरी बात आकाश के बारे में सोच-विचार मत करो। इस बात को ख्‍याल में रख लो। तुम आकाश के संबंध में सोच विचार करने लग सकते हो। तुम्‍हें आकाश के संबंध में अनेक कविताएं, सुंदर-सुंदर कविताएं याद आ सकती है। लेकिन तब तुम चूक जाओगे। तुम्‍हें आकाश के बारे में सोच-विचार नहीं करना है। तुम्‍हें तो उसमें डूबना है। तुम्‍हें उसके साथ एक होना है। अगर तुम उसके संबंध में सोच-विचार करने लगे तो फिर अवरोध निर्मित हो जाएगा। तब तुम आकाश को चूक जाओगे। और अपने ही मन में बंद हो जाओगे।

आकाश के संबंध में सोच-विचार मर करो; आकाश की हो जाओ। बस उसमे झांको और उसमें प्रवेश करो और उसे भी अपने में प्रवेश करने दो। अगर तुम आकाश में डूबोगे तो आकाश भी तुममें डूबने लगेगा।

यह आकाश में प्रवेश कैसे होगा? यह कैसे संभव होगा कि तुम आकाश में गति करो? आकाश में गहरे और गहरे अपलक देखते जाओ। मानो तुम उसकी सीमा खोजने की कोशिश कर रहे हो। उसकी गहराई में झाँकते जाओ। जहां तक संभव हो। यह गहराई ही अवरोध को तोड़ देगी। और इस विधि का अभ्‍यास कम से कम चालीस मिनट तक करना चाहिए। उससे कम में काम नहीं चलेगा। उससे कम समय करना बहुत उपयोगी नहीं होगा।

जब तुम्‍हें वास्‍तव में लगे कि तुम आकाश के साथ एक हो गए हो तो तुम आंखें बंद कर सकते हो। जब आकाश तुममें प्रवेश कर जाए तो तुम आंखें बद कर सकते हो। तब तुम उसे अपने भीतर देखने में भी सामर्थ्य हो सकते हो। तब बहार देखना जरूरी नहीं है। तो चालीस मिनट के बाद जब तुम्‍हें लगे कि एकता सध गई। संवाद सध गया, तुम उसके हिस्‍से हो गये। और अब मन नहीं है, तो तुम आंखें बंद कर सकते हो और भीतर आकाश को अनुभव कर सकते हो।

आकाश निर्मल है, शुद्ध है, अस्‍तित्‍व की शुद्धतम चीज है। कुछ भी उसे अशुद्ध नहीं करता। संसार आते है, और चले जाते है। पृथ्वीयां बनती है,और खो जाती है। लेकिन आकाश निर्मल का निर्मल बना रहता है। तो शुद्धता है; तुम्‍हें उसे प्रक्षेपित नहीं करना है। तुम्‍हें सिर्फ उसे अनुभव करना है,उसके प्रति संवेदनशील होना है। ताकि उसका अनुभव हो सके। निर्मलता तो मौजूद ही है। तुम आकाश को राह दो। तुम उसे जबरदस्‍ती नहीं ला सकते हो। तुम्‍हें उसे सिर्फ प्रेमपूर्वक राह देनी हे।

सभी ध्‍यान सिर्फ प्रेम पूर्वक राह देने की बात है। कभी आक्रमण की भाषा में मत सोचो; कभी जबरदस्‍ती मत करो। तुम जबरदस्‍ती कुछ भी नहीं कर सकते हो। सच तो यह है कि तुम्‍हारी जबरदस्‍ती करने की चेष्‍टा से ही तुम्‍हारे सभी दुःख निर्मित हुए है। जबरदस्‍ती कुछ भी नहीं हो सकता है। लेकिन तुम चीजों को घटित होने दे सकते हो। स्‍त्रैण बनो; चीजों को घटित होने दो। निष्‍क्रिय बनो। आकाश पूर्णत: निष्‍क्रिय है, कुछ भी तो नहीं करता है। बस है। तुम भी निष्‍क्रिय होकर आकाश को देखते रहो। खुल ग्रहण शील, स्‍त्रैण अपनी और से किसी तरह की भी जल्‍दबाजी किए बिना। और तब आकाश तुममें उतरेगा।

‘ग्रीष्‍म ऋतु में जब तुम समस्‍त आकाश को अंतहीन निर्मलता में देखो, उस निर्मलता में प्रवेश करो।’
लेकिन अगर ग्रीष्‍म ऋतु न हो तो तुम क्‍या करोगे? अगर आकाश में बादल हों,आकाश साफ न हो। तो अपनी आंखे बंद कर लो और आंतरिक आकाश को देखो। आंखे बंद कर लो अगर कुछ विचार दिखाई पड़े तो उन्‍हें वैसे ही देखा जैसे कि आकाश में तैरते बादल हो। पृष्‍ठभूमि के प्रति, आकाश के प्रति सजग हो जाओ। और बादलों के प्रति उदासीन रहो।

हम विचारों से इतने जुड़ रहते है कि बीच के अंतरालों के प्रति कभी ध्‍यान नहीं दे पाते है। एक विचार गुजरता है और इसके पहले कि दूसरा विचार प्रवेश करे, वहां एक अंतराल होता है। उस अंतराल में ही आकाश की झलक है। जब विचार नहीं होता है तो क्‍या होता है? एक शून्यता होती है। एक खालीपन होता है। अगर आकाश बादलों से आच्‍छादित है—ग्रीष्‍मऋतु नहीं है और आकाश साफ नहीं है—तो अपनी आंखें बंद कर लो और पृष्‍ठभूमि पर मन को एकाग्र करो; उस आंतरिक आकाश पर ध्‍यान करो जिस पर विचार आते-जाते है। विचारों पर बहुत ध्‍यान मत दो; उस आकाश पर ध्‍यान दो जि पर विचार की भाग-दौड़ होती है।

उदाहरण के लिए हम लोग एक कमरे में बैठे है। मैं इस कमरे को दो ढंगों से देख कसता हूं। एक कि मैं तुम्‍हें देखू और उस स्‍थान के प्रति उदासीन रहूँ जिसमें तुम बैठे हो। उस कमरे के प्रति तटस्‍थ रहूँ जिसमें तुम बैठे हो। मैं तुम्‍हें देखता हूं, मेरा ध्‍यान तुम पर है। उस खाली स्‍थान पर नहीं जिसमें तुम बैठे हो। अथवा मैं अपने दृष्‍टि कोण बदल लेता हूं और कमरे को, उसके खाली स्‍थान को देखता हूं और तुम्‍हारे प्रति उदासीन हो जाता हूं। तुम यही हो, लेकिन मेरा ध्‍यान, मेरा फोकस कमरे पर चला गया है। तब सारा परिप्रेक्ष्‍य बदल जाता है।

यही आंतरिक जगत में करो; आकाश पर ध्‍यान दो। विचार वहां चल रहे है, उसके प्रति उदासीन हो जाओ। उन पर कोई ध्‍यान मत दो वह है, चल रहे है, देख लो कि ठीक है, विचार चल रहे है। सड़क पर लोग चल रहे है; देख लो और उदासीन रहो। यह मत देखो कि कौन जा रहा है। इतना भर जानों कि कुछ गुजर रहा है। और उस स्‍थान के प्रति सजग होओ जिसमें गति हो रही है। तब ग्रीष्‍म ऋतु का आकाश भीतर घटित होगा।

ग्रीष्‍म ऋतु की प्रतीक्षा की जरूरत नहीं है। अन्‍यथा हमारा मन ऐसा है कि वह कोई भी बहाना पकड़ ले सकता है। वह कहेगा कि अभी ग्रीष्‍म ऋतु नहीं है। और यदि ग्रीष्‍म ऋतु भी हो तो वह कहेगा की आकाश निर्मल नहीं है।

दुसरी  विधी :

७४…
‘हे शक्‍ति, समस्‍त तेजोमय अंतरिक्ष मेरे सिर में ही समाहित है, ऐसा भाव करो।’
SHAKTI, SEE ALL SPACE AS IF ALREADY ABSORBED IN YOUR OWN HEAD IN THE BRILLIANCE.

अपनी आंखे बंद कर लो। जब इस प्रयोग को करो तो आंखें बंद कर लो और भाव करो कि सारा अंतरिक्ष मेरे सिर में ही समाहित है।

आरंभ में यह कठिन होगा। यह विधि उच्‍चतर विधियों में से एक है। इसलिए इसे एक-एक कदम समझना अच्‍छा होगा। तो एक काम करो। यदि इस विधि को प्रयोग में लाना चाहते हो तो एक-एक कदम चलो,क्रम से चलो।

पहला चरण: सोते समय, जब तुम सोने जाओ तो विस्‍तर पर लेट जाओ। और आंखे बंद कर लो और महसूस करो कि तुम्‍हारे पाँव कहां है, अगर तुम छह फिट लंबे हो या पाँच फीट हो, बस यह महसूस करो कि तुम्‍हारे पाँव कहां है, उनकी सीमा क्‍या है। और फिर भाव करो कि मेरी लंबाई छह इंच बढ़ गई है। मैं छह इंच और लंबा हो गया हूं। आंखें बंद किए बस यह भाव करो। कल्‍पना में महसूस करो कि मेरी लंबाई छह इंच बढ़ गई है।

फिर दूसरा चरण: अपने सिर को अनुभव करो कि वह कहां है। भीतर-भीतर अनुभव करो कि वह कहां है। और फिर भाव करो कि सिर भी छह इंच बड़ा हो गया है। अगर तुम इतना कर सके तो बात बहुत आसान हो जाएगी। फिर उसे और भी बड़ा किया जा सकता है। भाव करो कि तुम बारह फीट हो गए हो। और तुम पूरे कमरे में फैल गए हो। अब तुम अपनी कल्‍पना में दीवारों को छू रहे हो; तुमने पूरे कमरे को भर दिया है। और तब क्रमश: भाव करो कि तुम इतने फैल गये हो कि पूरा मकान तुम्‍हारे अंदर आ गया है। और एक बार तुमने भाव करना जान लिया तो ये बहुत आसान है। अगर तुम छह इंच बढ़ सकते हो तो कितना भी बढ़ सकते हो। अगर तुम भाव करा सके कि मैं पाँच फीट लंबा हूं तो फिर कुछ भी कठिन नहीं है। तब यह विधि बहुत ही आसान है।

पहले तीन दिन लंबे होने का भाव करो और फिर तीन दिन भाव करो कि मैं इतना बड़ा हो गया हूं कि कमरे में भर गया हूं। यह केवल कल्‍पना का प्रशिक्षण है। फिर और तीन दिन यह भाव करो कि मैंने फैलकर पूरे घर को घेर लिया है। फिर तीन दिन भाव करो कि मैं आकाश हो गया हुं। तब यह विधि बहुत ही आसान हो जाएगी।

‘हे शक्‍ति, समस्‍त तेजोमय अंतरिक्ष मेरे सिर में ही समाहित है, ऐसा भाव करो।’

तब तुम आंखें बंद करके अनुभव कर सकते हो कि सारा आकाश, सारा अंतरिक्ष तुम्‍हारे सिर में समाहित है। और जिस क्षण तुम्‍हें यह अनुभव होगा, मन विलीन होने लगेगा। क्‍योंकि मन बहुत क्षुद्रता में जीता है। आकाश जैसे विस्‍तार में मन नहीं टिक सकता; वह खो जाता है। इस महाविस्‍तार में मन असंभव है। मन क्षुद्र और सीमित में ही हो सकता है। इतने विराट आकाश में मन को जीने के लिए जगह कही नहीं मिलती है।

यह विधि सुंदरतम विधियों में से एक है। मन अचानक बिखर जाता हे। और आकाश प्रकट हो जाता है। तीन महीने के भीतर यह अनुभव संभव है और तुम्‍हारा संपूर्ण जीवन रूपांतरित हो जाएगा।

लेकिन एक-एक कदम चलना होगा। क्‍योंकि कभी-कभी इस विधि से लोग विक्षिप्‍त भी हो जाते है। अपना संतुलन खो देते है। यह प्रयोग और इसका प्रभाव बहुत विराट है। अगर अचानक यह विराट आकाश तुम पर टूट पड़े और तुम्‍हें बोध हो कि तुम्‍हारे सिर में समस्‍त अंतरिक्ष समाहित हो गया है और तुम्‍हारे सिर में चाँद-तारे और पूरा ब्रह्मांड घूम रहा है। तो तुम्‍हारा सिर चकराने लगेगा। इसलिए अनेक परंपराओं में इस विधि के प्रयोग में बहुत सावधानियां बरती जाती है।

इस सदी में एक संत, राम तीर्थ ने इस विधि का प्रयोग किया था। और अनेक लोगों को, जो जानते है, संदेह है कि इसी विधि के कारण उन्‍होंने आत्‍मघात कर लिया। राम तीर्थ के लिए आत्‍मघात नहीं था। क्‍योंकि उसने जान लिया था कि सारा अंतरिक्ष उसमें समाहित है। उसके लिए आत्‍मघात असंभव है—वह आत्‍मघात नहीं कर सकता। वहां कोई आत्‍मघात करने वाला ही नहीं बचा। लेकिन दूसरों के लिए, जो बाहर से देख रहे थे, यह आत्‍मघात है।

राम तीर्थ को ऐसा अनुभव होने लगा कि सारा ब्रह्मांड उनके भीतर, उनके सिर के भीतर घूम रहा हे। उनके शिष्‍यों ने पहले तो सोचा कि वे काव्‍य की भाषा में बोल रहे है। लेकिन फिर उन्‍हें लगने लगा कि वे पागल हो गये है। क्‍योंकि उन्‍होंने दावा करना शुरू कर दिया कि मैं ब्रह्मांड हूं और सब कुछ मेरे भीतर है। और फिर एक दिन वे एक पहाड़ की चोटी से नदी में कूद गये।

राम तीर्थ ने नदी में कूदने के पहले एक सुंदर कविता लिखी। जिसमें उन्‍होंने कहा है: ‘मैं ब्रह्मांड हो गया हूं,अब मेरा शरीर भार हो गया है, इस शरीर को मैं अब अनावश्‍यक मानता हूं। इसलिए मैं इसे वापस करता हूं। अब मुझ किसी सीमा की जरूरत नहीं है। मैं निस्‍सीम ब्रह्म हो गया हूं।’

मनोचिकित्‍सक तो सोचते है कि वे विक्षिप्‍त हो गए। वह पागल हो गए। लेकिन जिन्‍हें मनुष्‍य चेतना के गहन आयामों का पता है, वे कहते है कि मुक्‍त हो गये। बुद्ध हो गये। लेकिन सामान्‍य चित के लिए यह आत्‍मघात है।

तो ऐसी विधि से खतरा हो सकता है। इस कारण में कहता हूं उनकी तरफ क्रमश: बढ़ो, धीरे-धीरे चलो। तुम्‍हें इसका पता नहीं है, अत: कुछ भी संभव है। तुम्‍हें अपनी संभावनाओं का ज्ञान नहीं है। तुम्‍हारी कितनी तैयारी है, इसकी भी तुम्‍हें प्रत्‍यभिज्ञा नहीं है। ओर कुछ भी संभव है। अंत: सावधानीपूर्वक इस प्रयोग को करने की जरूरत है।

पहले छोटी-छोटी चीजों पर अपनी कल्‍पना का प्रयोग करो। भाव करो कि शरीर बड़ा हो गया है। छोटा हो रहा है। तुम दोनों तरफ जा सकते हो। तुम यदि पाँच फीट छह इंच के हो तो भाव करो कि चार फीट का हो गया हुं, तीन फीट का हो गया हू….दो फीट का हो गया हूं…..एक फीट का हो गया हूं….एक बिंदू मात्र रह गया हूं।

यह तैयारी भर है, इस बात की तैयारी है कि धीरे-धीरे तुम जो भी भाव करना चाहों वह कर सकते हो। तुम्‍हारा आंतरिक चित भार करने के लिए बिलकुल स्‍वतंत्र है। उसे कुछ भी भाव करने में कोई बाधा नहीं है। यह तुम्‍हारा भाव है, तुम चाहों तो फैल कर बड़े हो सकते हो और चाहो तो सिकुड़कर छोटे हो सकते हो। और तुम्‍हें वैसा बोध भी होने लगेगा।

और अगर तुम इस प्रयोग को ठीक से करो तो तुम बहुत आसानी से अपने शरीर से बाहर आ सकते हो। अगर तुम कल्‍पना से शरीर को छोटा-बड़ा कर सकते हो तो तुम शरीर से बहार आने में समर्थ हो। तुम सिर्फ कल्‍पना करो कि मैं अपने शरीर के बाहर खड़ा हूं, और तुम बाहर खड़े हो जाओगे।

लेकिन यह इतनी जल्‍दी नहीं होगा। पहले छोटे-छोटे चरणों में प्रयोग करने होगें। और जब तुम्हें लगे कि तुम शांत रहते हो, घबराते नही, तब भाव करो कि तुम्‍हारे पूरे कमरे को भर दिया है। और तुम वास्‍तव में दीवारों का स्‍पर्श अनुभव करने लगोगे। और तब भाव करो कि पूरा मकान तुम्‍हारे भीतर समा गया है। और तुम उसे अपने भीतर अनुभव कर रहे हो। इस भांति एक-एक कदम आगे बढ़ो। और तब, धीरे-धीरे आकाश को अपने सिर के भीतर अनुभव करो। और जब तुम आकाश को अपने भीतर अनुभव करते हो। जब तुम आकाश को अपने साथ महसूस करते हो, उसके साथ एक हो जाते हो। तो मन एक दम विदा हो जाता है। अब वहां उसका कोई काम नहीं है।

इस विधि को किसी गुरु या मित्र के साथ रह कर करना अच्‍छा होगा। अकेले में प्रयोग करना खतरनाक भी हो सकता हे। तुम्‍हारे पास कोई होना चाहिए। जो तुम्‍हारी देखभाल कर सके। यह समूह विधि है। गुरूकुल या आश्रम में प्रयोग करने की विधि है। किसी आश्रम में जहां अनेक लोग मिलकर काम करते हों। वहां इस विधि का प्रयोग आसान है। कम खतरनाक और कम हानिकारक है। क्‍योंकि जब भीतर का आकाश विस्‍फोटित होता है। तो संभव है कि कई दिनों तक तुम्‍हें अपने शरीर की सुध ही नहीं रहे। तुम भाव में इतने आविष्‍ट हो जाओ कि तुम्‍हारा बाहर आना ही संभव न हो। क्‍योंकि उस विस्‍फोट के साथ समय विलीन हो जाता है। तो तुम्‍हें पता ही नहीं चलेगा कि कितना समय व्‍यतीत हो गया है। शरीर का पता ही नहीं चलेगा। शरीर का बोध ही नहीं रहता। तुम तो आकाश हो जाते हो।

तो कोई चाहिए जो तुम्‍हारे शरीर की देखभाल करे। बहुत ही प्रेमपूर्ण देखभाल की जरूरत होगी। इसीलिए किसी गुरू या समूह के साथ प्रयोग करने से यह विधि कम हानिकारक हो जाती हे। कम खतरनाक रह जाती हे। और समूह भी ऐसा होना चाहिए, जो जानता हो कि इस विधि में क्‍या-क्‍या संभव है, क्‍या-क्‍या घटित हो सकता है और तब क्‍या किया जा सकता है। क्‍योंकि मन की इस अवस्‍था में अगर तुम्‍हें अचानक जगा दिया जाए तो तुम विक्षिप्‍त भी हो सकते हो। क्‍योंकि मन को वापस आने के लिए समय की जरूरत होती है। अगर झटक से तुम्‍हें शरीर में वापस आना पड़े तो संभव है कि तुम्‍हारा स्‍नायु संस्‍थान उसे बर्दाश्‍त न कर सके। उसे कोई अभ्‍यास नहीं है। उसे प्रशिक्षित करना होगा।

तो अकेले प्रयोग न करें;समूह में या मित्रों के साथ एकांत जगह में यह प्रयोग कर सकते है। और धीरे-धीरे, एक-एक कदम बढ़े, जल्‍दबाजी न करे।

तिसरी  विधी :

७५ …
‘जागते हुए सोते हुए, स्‍वप्‍न देखते हुए, अपने को प्रकाश समझो।’
WAKING, SLEEPING, DREAMING, KNOW YOU AS LIGHT.

पहले जागरण से शुरू करो। योग ओर तंत्र मनुष्‍य के मन के जीवन को तीन भागों में बाँटता है—स्‍मरण रहे, मन के जीवन को। वे मन को तीन भोगों में बांटते है: जाग्रत,सुषुप्‍ति और स्‍वप्‍न। ये तुम्‍हारी चेतना के नहीं, तुम्‍हारे में के भाग है।

चेतना चौथी है—तुरीय। पूर्व मैं इसे कोई नाम नहीं दिया गया है। सिर्फ तुरीय या चतुर्थ कहा गया है। तीन के नाम है। वे बादल है जिनके नाम हो सकते है। कोई जागता हुआ बादल है, कोई सोया हुआ बादल है। और कोई स्‍वप्‍न देखता हुआ बादल है। और जिस आकाश में वह घूमते है, वह अनाम है, उसे मात्र तुरीय कहां जाता है।

पश्‍चिम का मनोविज्ञान हाल में ही स्‍वप्‍न के आयाम से परिचित हुआ है। असल में फ्रायड के साथ स्‍वप्‍न महत्‍वपूर्ण हुआ। लेकिन हिंदुओं के लिए यह अत्‍यंत प्राचीन धारणा है। कि तुम तब तक किसी मनुष्‍य को सच में नहीं जान सकते जब तक तुम यह नहीं जानते कि वह अपने स्‍वप्‍नों में क्‍या करता है। क्‍योंकि वह जागते समय में जो भी करता है वह अभिनय हो सकता है। झूठ हो सकता है। क्‍योंकि वह जागते समय में वह जो करता है बहुत मजबूरी में करता है। वह स्‍वतंत्र नहीं है; समाज है, नियम है, नैतिक व्‍यवस्‍था है। वह निरंतर अपनी कामनाओं के साथ संघर्ष करता है, उनका दमन करता है। उनमें हेर-फेर करता है। समाज के ढांचे के अनुरूप उन्‍हें बदलता है। और समाज तुम्‍हें कभी तुम्‍हारी समग्रता में स्‍वीकार नहीं करता है। वह चुनाव करता है, काट-छांट करता है।

संस्‍कृति का यही अर्थ है; संस्‍कृति चुनाव है। प्रत्‍येक संस्‍कृति एक संस्‍कार है। कुछ चीजें स्‍वीकृत है और कुछ चीजें अस्‍वीकृत है। कहीं भी तुम्‍हारे समग्र अस्‍तित्‍व को, तुम्‍हारी निजता को स्‍वीकृति नहीं दी जाती है। कही भी नहीं। कहीं कुछ पहलू स्‍वीकृत है; कहीं कुछ और पहलू स्‍वीकृत है। कहीं भी समग्र मनुष्‍य नहीं है।

तो जाग्रत अवस्‍था में तुम झूठे, नकली कृत्रिम और दमित होने के लिए मजबूर हो। तुम जागते हुए प्रामाणिक नहीं हो सकते, अभिनेता भर हो सकते हो। तुम सहज नहीं हो सकते। तुम अंत: प्ररेणा से नहीं चलते, बाहर से धकाए जाते हो।

केवल अपने स्‍वप्‍नों में तुम प्रामाणिक हो सकते हो। तुम अपने स्‍वप्‍नों में जो चाहे कर सकते हो। उससे किसी को लेना-देना नहीं है। वहां तुम अकेले हो। तुम्‍हारे सिवाय कोई भी उसमें प्रवेश नहीं कर सकता है। कोई भी तुम्‍हारे स्‍वप्‍नों में नहीं झांक सकता है। और किसी को इसकी चिंता भी नहीं है। कि तुम अपने स्‍वप्‍नों में क्‍या करते हो। इससे किसी को क्‍या लेना-देना। सपने तुम्‍हारे बिलकुल निजी है। क्‍योंकि वे बिलकुल निजी है और उनका किसी से कोई लेना देना नहीं है। इसलिए तुम स्‍वतंत्र हो सकते हो।

तो जब तक तुम्‍हारे सपनों को नहीं जाना जाता, तुम्‍हारे असली चेहरे से भी परिचित नहीं हुआ जा सकता हे। हिंदुओं को इसका बोध था। सपनों में प्रवेश करना अनिवार्य है। लेकिन सपने भी बादल ही है। यद्यपि ये बादल निजी है, कुछ स्‍वतंत्र है; फिर भी बादल ही तो है। उनके भी पार जाना है।

ये तीन अवस्‍थाएं है: जाग्रत सुषुप्‍ति और स्‍वप्‍न। फ्रायड के साथ सपनों पर काम शुरू हुआ। अब सुषुप्‍ति पर, गहरी नींद पर काम होने लगा है। पश्‍चिम में अनेक प्रयोगशालाओं में यह जानने के लिए काम हो रहा है कि नींद क्‍या है। क्‍योंकि यह बहुत आश्‍चर्य की बात लगती है कि हमें यह भी नहीं पता कि नींद क्‍या है? कि नींद में क्‍या यथार्थत: घटित होता है। यह अभी वैज्ञानिक ढंग से नहीं जाना गया है।

और अगर हम नींद को नहीं जान सकते तो मनुष्‍य को जानना बहुत कठिन होगा। क्‍योंकि मनुष्‍य अपने जिंदगी का एक तिहाई हिस्‍सा नींद से गुजारता है। जीवन का एक तिहाई हिस्‍सा, अगर तुम साठ साल जीने वाले हो तो बीस साल तुम सौकर गुज़ारते हो। इतना बड़ा हिस्‍सा है यह। जब तुम सोए हो तो तुम क्‍या कर रहे हो?

जागरण की अवस्‍था में तुम समाज के साथ होते हो। स्‍वप्‍न के अवस्‍था में तुम अपनी कामनाओं के साथ होते हो। और गहरी नींद में तुम प्रकृति के साथ होते हो। प्रकृति के गहन गर्भ में होते हो। योग और तंत्र का कहना है कि इन तीनों के पार जाने पर ही तुम ब्रह्म में प्रवेश कर सकते हो। इन तीनों से गुजरना होगा। इनके पार जाना होगा, इनका अतिक्रमण करना होगा।

एक फर्क है। अभी पश्‍चिम का मनोविज्ञान इन अवस्‍थाओं के अध्‍ययन में उत्‍सुक हो रहा है। पूर्व के साधक इन अवस्‍थाओं में उत्‍सुक थे। इनके अध्‍ययन में नहीं। वे इसमे उत्‍सुक थे कि कैसे इनका अतिक्रमण किया जाए। यह विधि अतिक्रमण की विधि है।

‘जागते हुए, सोते हुए,स्‍वप्‍न देखते हुए, अपने को प्रकाश समझो।’
बहुत कठिन है। तुम जागरण से शुरू करना होगा। तुम स्‍वप्‍नों में कैसे स्‍मरण रख सकते हो? क्‍या तुम सचेतन रूप से कोई स्‍वप्‍न पैदा कर सकते हो? क्‍या तुम स्‍वप्‍न को व्‍यवस्‍था दे सकते हो। उसमें हेर-फेर कर सकते हो? आदमी कितना नापुंसग है। तुम अपने स्‍वप्‍न भी नहीं निर्मित कर सकते हो। वे भी अपने आप आते है; तुम बिलकुल असहाय हो।

लेकिन कुछ विधियां है जिनके द्वारा स्‍वप्‍न निर्मित किए जा सकते है। और ये विधियां अतिक्रमण करने में बहुत सहयोगी है। क्‍योंकि अगर तुम स्‍वप्‍न निर्मित कर सकते हो तो तुम उसका अतिक्रमण भी कर सकते हो। लेकिन आरंभ तो जाग्रत अवस्‍था से ही करना होगा।

जागते समय—चलते समय, खाते समय,काम करते समय। अपने को प्रकाश रूप में स्‍मरण रखो। मानो तुम्‍हारा ह्रदय में एक ज्‍योति जल रही है और तुम्‍हारा शरीर उस ज्‍योति का प्रभामंडल भर है। कल्‍पना करो कि तुम्‍हारे ह्रदय में एक लपट जल रही है। और तुम्‍हारा शरीर उस लपट के चारों और प्रभामंडल के अतिरिक्‍त कुछ नहीं है; तुम्‍हारा शरीर उस लपट के चारों और फैला प्रकाश है। इस कल्‍पना को, इस भाव को अपने मन ओर चेतना की गहराई में उतरने दो। इसे आत्‍मसात करो।

थोड़ा समय लगेगा। लेकिन यदि तुम यह स्‍मरण करते रहे,कल्‍पना करते रहे,तो धीरे-धीरे तुम इसे पूरे दिन स्‍मरण रखने में समर्थ हो जाओगे। जागते हुए, सड़क पर चलते हुए, तुम एक चलती फिरती ज्‍योति हो जाओगे। शुरू-शुरू में किसी दूसरे को इसका बोध नहीं होगा; लेकिन अगर तुमने यह स्‍मरण जारी रखा तो तीन महीनों में दूसरों को भी इसका बोध होने लगेगा।

और जब दूसरों को आभास होने लगे तो तुम निश्‍चिंत हो सकते हो। किसी से कहना नहीं है। सिर्फ ज्‍योति का भा करना है। और भाव करना है कि तुम्‍हारा शरीर उसके चारों और फैला प्रभामंडल है। यह स्‍थूल शरीर नहीं हे। विद्युत शरीर है। प्रकाश शरीर है। अगर तुम धैर्य पूर्वक लगे रहे तो तीन महीनों में, करीब-करीब तीन महीनों में दूसरों को बोध होने लगेगा। कि तुम्‍हें कुछ घटित हो रहा हे। वे तुम्‍हारे चारों और एक सूक्ष्म प्रकाश महसूस करेंगें। जब तुम निकट जाओगे,उन्‍हें एक तरह की अलग उष्‍मा महसूस होगी। तुम यदि उन्‍हें स्‍पर्श करोगे तो उन्‍हें उष्‍मा स्‍पर्श महसूस होगी। उन्‍हें पता चल जायेगा कि तुम्‍हें कुछ अद्भुत घटित हो रहा है। पर किसी से कहो मत और जब दूसरों को पता चलने लगे तो तुम आश्‍वस्‍त हो सकते हो। और तब तुम दूसरे चरण में प्रवेश कर सकते हो। उसके पहले नहीं।

दूसरे चरण में इस विधि को स्‍वप्‍नावस्‍था में ले चलना है। अब तुम स्‍वप्‍न जगत में इसका प्रयोग शुरू कर सकते हो। यह अब यथार्थ है, अब यह कल्‍पना ही नहीं है। कल्‍पना के द्वारा तुम ने सत्‍य को उघाड़ लिया है। यह सत्‍य है। सब कुछ प्रकाश से बना है। सब कुछ प्रकाश मय है। तुम प्रकाश हो; हालांकि तुम्‍हें इसका बोध नहीं है। क्‍योंकि पदार्थ का कण-कण प्रकाश है। वैज्ञानिक कहते है कि पदार्थ इलेक्ट्रॉन से बना हे। वह वही बात है। प्रकाश ही सब का स्‍त्रोत है। तुम भी घनीभूत प्रकाश हो। कल्‍पना के जरिए तुम सिर्फ सत्‍य को उघाड़ रहे हो। प्रकट कर रहे हो। इस सत्‍य को आत्‍मसात करो। और जब तुम उससे आपूर हो जाओ तो उसे दूसरे चरण में, स्‍वप्‍न में ले जा सकते हो। उसके पहले नही।

तो नींद में उतरते हुए ज्‍योति को स्‍मरण करते रहो। देखते रहो, भाव करते रहो कि मैं प्रकाश हूं। और इसी स्‍मरण के साथ नींद में ओर उतर जाओ, और नींद में भी यही स्‍मरण जारी रहता है। आरंभ में कुछ ही स्‍वप्‍न ऐसे होंगे जिनमें तुम्‍हें भाव होगा कि तुम्‍हारे भीतर ज्‍योति है। कि तुम प्रकाश हो। पर धीरे-धीरे स्‍वप्‍न में भी तुम्‍हें यह भाव बना रहने लगेगा।

और जब यह भाव स्‍वप्‍न में प्रवेश कर जाएगा। सपने विलीन होने लगेंगे। सपने खोने लगेंगे। सपने कम से कम होने लगेंगे। और गहरी नींद की मात्रा बढ़ने लगेगी। और जब तुम्‍हारी स्‍वप्‍नावस्‍था में यह सत्‍य प्रकट हो कि तुम प्रकाश हो, ज्‍योति हो प्रज्‍वलित ज्‍योति हो, तब स्‍वप्‍न विदा हो जायेंगे।

और जब स्‍वप्‍न विदा हो जाते है, तभी इस भाव को सुषुप्‍ति में गहन नींद में ल जाया जा सकता है। उसके पहले नहीं। अब तुम द्वार पर हो। जब सपने विदा हो गए है और तुम अपने को ज्‍योति की भांति स्‍मरण रखते हो तो तुम नींद के द्वार पर हो। अब तुम इस भा के साथ नींद में प्रवेश कर सकते हो। और यदि तुम एक बार नींद में इस भाव के साथ उतर गये। कि मैं ज्‍योति हूं। तो तुम्‍हें नींद में भी बोध बना रहेगा। और अब नींद केवल तुम्‍हारे शरीर को घटित होगी। तुम्‍हें नहीं।

कृष्‍ण गीता में यही कहते है कि योगी कभी नहीं सोते; जब दूसरे सोते है तब भी वे जागते है। ऐसा नहीं है कि उनके शरीर को नींद नही आती। उनके शरीर तो सोते है। लेकिन शरीर ही। शरीर को विश्राम की जरूरत है। चेतना को विश्राम की कोई जरूरत नहीं है। क्‍योंकि शरीर यंत्र है। चेतना यंत्र नहीं है। शरीर को ईंधन चाहिए। उसे विश्राम चाहिए। यही कारण है। कि शरीर जन्‍म लेता है, युवा होता है, वृद्ध होता है। और मर जाता है। चेतना न कभी जन्‍म लेती है, न कभी बूढी होती है,और न कभी मरती है। उसे न ईंधन की जरूरत है और न विश्राम की। यह शुद्ध ऊर्जा है; नित्‍य-शाश्‍वत ऊर्जा।

अगर तुम इस ज्‍योति के, प्रकाश के बिंब को नींद के भीतर ले जा सके तो तुम फिर कभी नहीं सोओगे। सिर्फ तुम्‍हारा शरीर विश्राम करेगा। और जब शरीर सोया है तो तुम यह जानते रहोगे। और जैसे ही यह घटित होता है—तुम तुरीय हो, चतुर्थ हो। स्‍वप्‍न ओ सुषुप्‍ति मन के अंश है। वे अंश है और तुम तुरीय हो गय हो। चतुर्थ हो गए हो। तुरीय वह है जो उनमें से गुजरता है, लेकिन उनमें से कोई भी नहीं।

वस्‍तुत: यह बिलकुल सरल है। अगर तुम जाग्रत हो ओर फिर तुम स्‍वप्‍न देखने लगते हो तो तुम दोनों नहीं हो सकते। अगर तुम जाग्रति हो तो तुम स्‍वप्‍न नहीं देख सकते। और अगर तुम स्‍वप्‍न हो तो तुम सुषुप्ति में कैसे उतर सकते हो, जहां कोई सपने नहीं होते?

तुम एक यात्रा हो और ये अवस्‍थाएं पड़ाव है—तभी तुम यहां से वहां जा सकते हो। और फिर वापस आ सकते हो। सुबह तुम फिर जाग्रत अवस्‍था में वापस आ जाओगे। ये अवस्‍थाएं है; और जब इन अवस्‍थाओं से गुजरता है वह तुम हो। लेकिन वह तुम चतुर्थ हो। और इसी चतुर्थ को आत्‍मा कहते है। इसी चतुर्थ को भगवता कहते है; इसी चतुर्थ को अमृत तत्‍व कहते है, शाश्‍वत जीवन कहते है।

जागते हुए,सोते हुए,स्‍वप्‍न देखते हुए, अपने को प्रकाश समझो।
यह बहुत सुंदर विधि है। लेकिन जाग्रत अवस्‍था से आरंभ करो। और स्‍मरण रहे कि जब दूसरों को इसका बोध होने लगे तभी तुम सफल हुए। उन्‍हें बोध होगा। और तब तुम स्‍वप्‍न में और फिर निद्रा में प्रवेश कर सकते हो। और अंत में तुम उसके प्रति जागोगे जो तुम हो—तुरीय।