विज्ञान भैरव तंत्र – ४ (९०-९१)

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९०…
“आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है। और वहां ब्रह्मांड व्‍याप जाता है।”
TOUCHING EYEBALLS AS A FEATHER, LIGHTNESS BETWEEN THEM OPENS INTO HEART AND THERE PERMEATES THE COSMOS.

९१…
“हे दयामयी, अपने रूप के बहुत ऊपर और बहुत नीचे, आकाशीय उपस्‍थिति में प्रवेश करो।”
KIND DEVI, ENTER ETHERIC PRESENCE PERVADING FAR ABOVE AND BELOW YOUR FORM.

पहली विधि:

९०…
“आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है। और वहां ब्रह्मांड व्‍याप जाता है।”
TOUCHING EYEBALLS AS A FEATHER, LIGHTNESS BETWEEN THEM OPENS INTO HEART AND THERE PERMEATES THE COSMOS.

विधि में प्रवेश के पहले कुछ भूमिका की बातें समझ लेनी है। पहली बात कि आँख के बाबत कुछ समझना जरूरी है। क्‍योंकि पूरी विधि इस पर निर्भर करती है।

पहली बात यह है कि बाहर तुम जो भी हो या जो दिखाई पड़ते हो वह झूठ हो सकता है। लेकिन तुम अपनी आंखों को नहीं झुठला सकते। तुम झूठी आंखें नहीं बना सकते हो। तुम झूठा चेहरा बना सकते हो। लेकिन झूठी आंखें नहीं बना सकते। वह असंभव है। जब तक कि तुम गुरजिएफ की तरह परम निष्‍णात हीन हो जाओ। जब तक तुम अपनी सारी शक्‍तियों के मालिक न हो जाओ। तुम अपनी आंखों को नहीं झुठला सकते। सामान्‍य आदमी यह नहीं कर सकता है। आंखों को झुठलाना असंभव है।

यहीं कारण है कि जब कोई आदमी तुम्‍हारी आंखों में झाँकता है, तुम्‍हारी आंखों में आंखें डालकर देखता है तो तुम्‍हें बहुत बुरा लगाता है। क्‍योंकि वह आदमी तुम्‍हारी असलियत में झांकने की चेष्‍टा कर रहा है। और वहां तुम कुछ भी नहीं कर सकते; तुम्‍हारी आंखें असलियत को प्रकट कर देंगी,वे उसे प्रकट कर देंगी तो तुम सचमुच हो। इसीलिए किसी की आंखों में झांकना शिष्‍टाचार के विरूद्ध माना जाता है। किसी से बातचीत करते समय भी तुम उसकी आंखों में झांकने से बचते हो। जब तक तुम किसी के प्रेम में नहीं हो। जब तक कोई तुम्‍हारे साथ प्रामाणिक होने को राज़ी नहीं था। तब तक तुम उसकी आँख में नहीं देख सकते।

एक सीमा है। मनस्विदों ने बताया है कि तीस सेकेंड सीम है। किसी अजनबी की आंखों में तुम तीस सेकेंड तक देख सकते हो—उससे अधिक नहीं। अगर उससे ज्‍यादा देर तक देखेंगे तो तुम आक्रामक हो रहे हो और दूसरा व्‍यक्‍ति तुरंत बुरा मानेगा। हां, बहुत दूर से तुम किसी की आँख में देख सकते हो; क्‍योंकि तब दूसरे को उकसा बोध नहीं होता। अगर तुम सौ फीट की दूरी पर हो तो मैं तुम्‍हें घूरता रह सकता हूं। लेकिन अगर सिर्फ दो फीट की दूरी हो तो वैसा करना असंभव है।

किसी भीड़-भरी रेलगाड़ी में, या किसी लिफ्ट में आस-पास बैठे या खड़े होकर भी तुम एक दूसरे की आंखों में नहीं देखते हो। हो सकता है किसी का शरीर छू जाए वह उतना बुरा नहीं है; लेकिन तुम दूसरे की आंखों में कभी नहीं झाँकते हो। क्‍योंकि वह जरा ज्‍यादा हो जाएगा। इतनी निकट से तुम आदमी की असलियत में प्रवेश कर जाओगे।

तो पहली बात कि आंखों का कोई संस्‍कारित रूप नहीं होता; आंखें शुद्ध प्रकृति है। आंखों पर मुखौटा नहीं है। और दूसरी बात याद रखने की यह है कि तुम संसार में करीब-करीब सिर्फ आँख के द्वारा गति करते हो। कहते हो कि तुम्‍हारी अस्‍सी प्रतिशत जीवन यात्रा आँख के सहारे होती है। जिन्‍होंने आंखों पर काम किया है उन मनोवैज्ञानिक को का कहना है कि संसार के साथ तुम्‍हारा अस्‍सी प्रतिशत संपर्क आंखों के द्वारा ही होता है। तुम्‍हारा अस्‍सी प्रतिशत जीवन आँख से चलता है।

यही कारण है कि जब तुम किसी अंधे आदमी को देखते हो तो तुम्‍हें दया आती है। तुम्‍हें उतनी दया और सहानुभूति तब नहीं होती जब कि बहरे आदमी को देखते हो। लेकिन जब तुम्‍हें कोई अंधा आदमी दिखाई देता है तो तुम्‍हें अचानक उसके प्रति सहानुभूति और करूणा अनुभव होती है। क्‍यों? क्‍योंकि यह अस्‍सी प्रतिशत मरा हुआ है। बहरा आदमी उतना मरा हुआ नहीं है। अगर तुम्‍हारे हाथ-पाँव भी कट जाएं तो भी तुम इतना मृत अनुभव नहीं करोगे। लेकिन अंधा आदमी अस्‍सी प्रतिशत मुर्दा है। वह केवल बीस प्रतिशत जीवित है।

तुम्‍हारी अस्‍सी प्रतिशत ऊर्जा तुम्‍हारी आंखों से बाहर जाती है। तुम संसार में आंखों के द्वारा गति करते हो। इसलिए जब तुम थकते हो तो सबसे पहले आंखें थकती है। और फिर शरीर के दूसरे अंग थकते है। सबसे पहले तुम्‍हारी आंखें ही ऊर्जा से रिक्त होती है। अगर तुम अपनी आंखें तुम्‍हारी अस्‍सी प्रतिशत ऊर्जा है। अगर तुम अपनी आंखों को पुनर्जीवित कर लो तो तुमने अपने को पुनर्जीवन दे दिया।

तुम किसी प्राकृतिक परिवेश में कभी उतना नहीं थकते हो जितना किसी अप्राकृतिक शहर में थकते हो। कारण यह है कि प्राकृतिक परिवेश में तुम्‍हारी आंखों को निरंतर पोषण मिलता है। वहां की हरियाली, वहां की ताजी हवा,वहां की हर चीज तुम्‍हारी आंखों को आराम देती है। पोषण देती है। एक आधुनिक शहर में बात उलटी है; वहां सब कुछ तुम्‍हारी आंखों को शोषण करता है; वहां उन्‍हें पोषण नहीं मिलता।

तुम किसी दूर देहात में चले जाओ। या किसी पहाड़ पर चले जाओ जहां के माहौल में कुछ भी कृत्रिम नहीं है। जहां सब कुछ प्राकृतिक है, और वहां तुम्‍हें भिन्‍न ही ढंग की आंखें देखने को मिलेंगी। उनकी झलक उनकी गुणवता और होगी। वह ताजी होंगी। पशुओं जैसी निर्मल होंगी। गहरी होंगी। जीवंत और नाचती हुई होंगी। आधुनिक शहर में आंखें मृत होती है। बुझी-बुझी होती है। उन्‍हें उत्‍सव का पता नहीं है। उन्‍हें मालूम नहीं है कि ताजगी क्‍या है। वहां आंखों में जीवन का प्रवाह नहीं है। बस उनका शोषण होता है।

भारत में हम अंधे व्‍यक्‍तियों को प्रज्ञाचक्षु कहते है। उसका विशेष कारण है। प्रत्‍येक दुर्भाग्य को महान अवसर में रूपांतरित किया जा सकता है। आंखों से होकर अस्‍सी प्रतिशत ऊर्जा काम करती है; और अंधा आदमी अस्‍सी प्रतिशत मुर्दा होता है, संसार के साथ अस्‍सी प्रतिशत संपर्क टूटा होता है। जहां तक बाहरी दुनिया का संबंध है, वह आदमी बहुत दीन है। लेकिन अगर वह इस अवसर का, इस अंधे होने के अवसर का उपयोग करना चाहे तो वह इस अस्‍सी प्रतिशत ऊर्जा का उपयोग कर सकता है। वह अस्‍सी प्रतिशत ऊर्जा, जिसके बहने के द्वार बंद है। बिना उपयोग के रह जाती है। यदि वह उसकी कला नहीं जानता है।

तो उसके पास अस्‍सी प्रतिशत ऊर्जा का भंडार पडा है। और जो ऊर्जा सामान्‍यत: बहिर्यात्रा में लगती है वही ऊर्जा अंतर्यात्रा में लग सकती है। अगर वह उसे अंतर्यात्रा में संलग्‍न करना जान ले तो वह प्रज्ञाचक्षु हो जाएगा। विवेकवान हो जाएगा।

अंधा होने से कही कोई प्रज्ञाचक्षु नहीं होता है। लेकिन वह हो सकता है। उसके पास सामान्‍य आंखें तो नहीं है। लेकिन उसे प्रज्ञा की आंखें मिल सकती है। इसकी संभावना है। हमने उसे प्रज्ञाचक्षु नाम यह बोध देने के इरादे से दिया कि वह इसके लिए दुःख न माने कि उसे आंखें नही है। वह अंतर्चक्षु निर्मित कर सकता है। उसके पास अस्‍सी प्रतिशत उर्जा का भंडार अछूता पडा है। जो आँख वालों के पास नहीं है। वह उसका उपयोग कर सकता है।

यदि अंधा आदमी बोधपूर्ण नहीं है तो भी वह तुमसे ज्‍यादा शांत होता है। ज्‍यादा विश्रामपूर्ण होता है। किसी अंधे आदमी को देखो वह ज्‍यादा शांत है। उसका चेहरा ज्‍यादा विश्राम पूर्ण है। वह अपने आप में संतुष्‍ट है, उसमें अंसतोष नहीं है। यह बात बहरे आदमी के साथ नहीं होती है। बहरा आदमी तुमसे ज्‍यादा अशांत होगा और चालाक होगा। लेकिन अंधा आदमी न अशांत होता है और न चालाक और हिसाबी-किताबी होता है। यह बुनियादी तौर से श्रद्धावान होता हे। अस्‍तित्‍व के प्रति श्रद्धावान होता है।

ऐसा क्‍यों होता है। क्‍योंकि उसकी अस्‍सी प्रतिशत ऊर्जा,हालांकि वह उसके बारे में कुछ नहीं जानता है। भीतर की और प्रवाहित हो रही है। वह ऊर्जा सतत भीतर गिर रही है। ठीक जलप्रपात की तरह गिर रही है। उसे इसका बोध नहीं है। लेकिन यह ऊर्जा उसके ह्रदय पर बरसती रहती है। वही ऊर्जा जो बाहर जाती है, उसके ह्रदय में जा रही है। और यह चीज उसके जीवन का गुणधर्म बदल देती है। प्राचीन भारत में अंधे आदमी को बहुत आदर मिलता था—बहुत-बहुत आदर। अत्‍यंत आदर में हमने उसे प्रज्ञाचक्षु कहा है।

तुम यही अपनी आंखों के साथ कर सकते हो। यह विधि उसके लिए ही है। यह तुम्‍हारी बाहर जाने वाली ऊर्जा को वापस लाने, तुम्‍हारे ह्रदय केंद्र पर उतारने की विधि है। अगर वह ऊर्जा तुम्‍हारे ह्रदय में उतर जाए तो तुम बहुत हलके हो जाओगे। तुम्‍हें ऐसा लगेगा कि सारा शरीर एक पंख बन गया है, कि तुम पर अब गुरूत्‍वाकर्षण का कोई प्रभाव न रहा। और तुम तब तुरंत अपने अस्‍तित्‍व के गहनत्‍म स्‍त्रोत से जुड़ जाते हो। और वह तुम्‍हें पुनरुज्जीवित कर देता है।

तंत्र के अनुसार गाढ़ी नींद के गाद तुम्‍हें जो नव जीवन मिलता है, जो ताजगी मिलती है उसका कारण नींद नहीं है। उसका कारण है कि जो ऊर्जा बाहर जा रही थी, वही ऊर्जा भीतर आ जाती है। अगर तुम यह राज जान लो तो जो नींद सामान्‍य व्‍यक्‍ति छह या आठ घंटों में पूरी करता है। तुम कुछ मिनटों में पूरी कर सकते हो। छह या आठ घंटे की नींद में तुम खुद कुछ नहीं करते हो, प्रकृति ही कुछ करती है। और इसका तुम्हें बोध नहीं है कि यह क्‍या करती है। तुम्‍हारी नींद में एक रहस्‍यपूर्ण प्रक्रिया घटती है। उसकी एक बुनियादी बात यह है कि तुम्‍हारी ऊर्जा बाहर नहीं जाती है। वह तुम्‍हारी ह्रदय पर बरसती रहती है। और वहीं चीज तुम्‍हें नया जीवन देती है। तुम अपनी ही ऊर्जा में गहन स्‍नान कर लेते हो।

इस गतिशील ऊर्जा के संबंध में कुछ और बातें समझने की है। तुमने गौर किया होगा कि अगर कोई व्‍यक्‍ति तुमसे ऊपर है तो वह तुम्‍हारी आंखों में सीधे देखता है। और अगर वह तुमसे कमजोर है तो वह नीचे की तरफ देखता है। नौकर गुलाम या कोई भी कम महत्‍व का व्‍यक्‍ति अपने से बड़े व्‍यक्‍ति की आंखों में नहीं देखेगा। लेकिन बड़ा आदमी घूर सकता है। सम्राट घूर सकता है। लेकिन सम्राट के सामने खड़े होकर तुम उसकी आंखे से आँख मिलाकर नहीं देख सकते हो। वह गुनाह समझा जाएगा। तुम्‍हें अपनी आंखों को झुकाएं रहना है।

असल में तुम्‍हारी ऊर्जा तुम्‍हारी आंखों से गति करती है। और वह सूक्ष्‍म हिंसा बन सकती है। यह बात मनुष्‍यों के लिए ही नहीं, पशुओं के लिए भी सही है। जब दो अजनबी मिलती है, दो जानवर मिलते है। तो वे एक-दूसरे की आँख नीची कर ली तो मामला तय हो गया; फिर वे लड़ते नहीं। बात खत्‍म हो गई। निशचित हो गया कि उनमें कौन श्रेष्‍ठ है।

बच्चे भी एक दूसरे की आँख में घूरने का खेल खेलते है; और जो भी आँख पहले हटा लेता है। वह हार गया माना जाता है। और बच्‍चे सही है। जब दो बच्‍चे एक दूसरे की आंखों में घूरते है तो उनमें जो भी पहले बेचैनी अनुभव करता है। इधर-उधर देखने लगता है। दूसरे की आँख से बचता है। वह पराजित माना जाता है। और तो घूरता ही रहता है। वह शक्‍तिशाली माना जाता है। अगर तुम्‍हारी आंखें दूसरे की आंखों को हरा दे तो वह इस बात का सूक्ष्‍म लक्षण है कि तुम दूसरे से शक्‍तिशाली हो।

जब कोई व्‍यक्‍ति भाषण देने या अभिनय करने के लिए मंच पर खड़ा होता है। तो वह बहुत भयभीत होता है। वह कांपने लगता है। जो लोग पुराने अभिनेता है, वे भी जब मंच पर आते है तो उन्‍हें भय पकड़ लेता है। कारण यह है कि उन्‍हें इतनी आंखें देख रही है। उनकी और इतनी आक्रामक ऊर्जा प्रवाहित हो रही है। उनकी और हजारों लोगों से इतनी ऊर्जा प्रवाहित होती है वे अचानक अपने भीतर कांपने लगते है।

एक सूक्ष्‍म ऊर्जा आंखों से प्रवाहित होती है। एक अत्‍यंत सूक्ष्‍म, अत्‍यंत परिष्‍कृत शक्‍ति आंखों से प्रवाहित होती है। और व्‍यक्‍ति-व्‍यक्‍ति के साथ इस ऊर्जा का गुण धर्म बदल जाती है।

बुद्ध की ऊर्जा एक तरह की आंखों से प्रवाहित होती है, हिटलर की आंखों से सर्वथा भिन्‍न तरह की ऊर्जा प्रवाहित होती है। अगर तुम बुद्ध की आंखों से देखो तो पाओगे कि वह आंखें तुम्‍हें बुला रही है। तुम्‍हारा स्‍वागत कर रही है। बुद्ध की आंखें तुम्‍हारे लिए द्वार बन जाती है। और अगर तुम हिटलर की आंखों से देखो तो पाओगे कि वे तुम्‍हें अस्‍वीकार कर रही है। तुम्‍हारी निंदा कर रही है। तुम्‍हें दूर हटा रही है। हिटलर की आंखें तलवार जैसी है और बुद्ध की आंखें कमल जैसी है, हिटलर कि आंखों में हिंसा है, बुद्ध की आंखों में करूणा।

आंखों का गुणधर्म अलग-अलग है। देर अबेर हम आँख की ऊर्जा को नापने की विधि खोज लेंगे। और तब मनुष्‍य के संबंध में जानने को बहुत नहीं बचेगा। सिर्फ आँख की ऊर्जा आँख का गुणधर्म बता देगा कि उसके पीछे किस किस्‍म का व्‍यक्‍ति छिपा है। देर-अबेर इसे नापना संभव हो जाएगा।

सह सूत्र यह विधि इस प्रकार है: ‘आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है और वहां ब्रह्मांड व्‍याप जाता है।’

‘आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से…..।’
दोनों हथेलियों का उपयोग करो, उन्‍हें अपनी आंखों पर रखो और हथेलियों से पुतलियों को स्‍पर्श करो—जैसे पंख से उन्‍हें छू रहे हो। पुतलियों पर जरा भी दबाव मत डालों। अगर दबाव डालते हो तो तुम पूरी बात से चूक जाते हो। तब पूरी विधि ही व्‍यर्थ हो गई। कोई दबाव मत डालों; बस पंख की तरह छुओ।

ऐसा स्‍पर्श, पंखवत स्‍पर्श धीरे-धीरे आएगा। आरंभ में तुम दबाव दोगे। इस दबाव को कम से कम करते जाओ—जब तक कि दबाव बिलकुल न मालूम हो, तुम्‍हारी हथैलियां पुतलियों को स्‍पर्श भर करें। मात्र स्‍पर्श। इस स्‍पर्श में जरा भी दबाव न रहे। यदि जरा भी दबाव रह गया तो विधि काम न करेगी। इसलिए इसे पंख-स्‍पर्श कहा गया है।

क्‍यों? क्‍योंकि जहां सूई से काम चले वहां तलवार चलाने से क्‍या होगा। कुछ काम है जिन्‍हें सुई ही कर सकती है। उन्‍हें तलवार नहीं कर सकती। अगर तुम पुतलियों पर दबाव देते हो तो स्‍पर्श का गुण बदल गया; तब तुम आक्रामक हो गए। और जो ऊर्जा आंखों से बहती है वह बहुत सूक्ष्‍म है। बहुत बारीक है। जरा सा दबाव, और स्‍पर्श, एक संघर्ष, एक प्रतिरोध पैदा कर देता है। दबाव पड़ने से आंखों से बहने वाली ऊर्जा लड़ेंगी, प्रतिरोध करेगी। एक संघर्ष चलेगा।

तो बिलकुल दबाव मत डालों; आँख की ऊर्जा को हलके से दबाव का भी पता चल जाता है। वह बहुत सूक्ष्‍म है, कोमल है। तो दबाव बिलकुल नहीं, तुम्‍हारी हथैलियां पंख की तरह पुतलियों को ऐसे छुएँ जैसे न छू रही हो। आंखों को ऐसे स्‍पर्श करो कि वह स्‍पर्श पता भी न चले। किंचित भी दबाव न पड़े;बस हलका सा अहसास हो कि हथेली पुतली को छू रही है। बस।

इससे क्‍या होगा? जब तुम किसी दबाव के बिना स्‍पर्श करते हो तो ऊर्जा भीतर की और गति करने लगती है। और अगर दबाव पड़ता है तो ऊर्जा हाथ से लड़ने लगाती है। और वह बाहर चली जाती है। लेकिन अगर हलका सा स्‍पर्श हो, पंख-स्‍पर्श हो, तो ऊर्जा भीतर की और बहने लगती है। एक द्वार बंद है। और ऊर्जा पीछे की तरफ लौट पड़ती है। और जिस क्षण ऊर्जा पीछे की तरफ बहने लगेगी, तुम अनुभव करोगे कि तुम्‍हारे पूरे चेहरे पर और तुम्‍हारे सिर में एक हलकापन फैल गया। यह प्रतिक्रमण करती हुई ऊर्जा ही, पीछे लौटती है।

और इन दो आंखों में माध्‍य में तीसरी आँख है। प्रज्ञाचक्षु है। इन्‍हें दो आंखों के मध्‍य में शिवनेत्र कहते है। आंखों से पीछे की और बहने वाली ऊर्जा तीसरी आँख पर चोट करती है। और उसके कारण ही हल्‍का पन महसूस करते हो। जमीन से ऊपर उठते मालूम पड़ते हो। मानों गुरूत्‍वाकर्षण समाप्‍त हो गया। और यही ऊर्जा तीसरी आँख से चलकर ह्रदय पर बरसती है।

यह एक शारीरिक प्रक्रिया है। बूंद-बूंद ऊर्जा नीचे गिरती है। ह्रदय पर बरसती है। और तुम्‍हारे ह्रदय में बहुत हलकापन अनुभव होगा। ह्रदय की धड़कन बहुत धीमी हो जाएगी और श्‍वास की गति धीमी हो जाएगी और तुम्‍हारा शरीर विश्राम अनुभव करेगा।

यदि तुम इसे ध्‍यान की तरह नहीं भी करते हो तो भी यह प्रयोग तुम्‍हें शारीरिक रूप से सहयोगी होगा। दिन में कभी भी कुर्सी पर बैठे हुए, या यदि कुर्सी न हो तो रेलगाड़ी या कहीं भी बैठे हुए, आंखें बंद कर लो, पूरे शरीर को शिथिल छोड़ दो और अपनी हथेलियों को आंखों पर रखो। लेकिन आंखों पर दबाव मत डोलो—यही बात बहुत महत्‍व पूर्ण है—पंख की भांति छुओ भर।

जब तुम बिना दबाव के छूते हो तो तुम्‍हारे विचार तत्‍क्षण बंद हो जाते है। शांत मन में विचार नहीं चल सकते है। वह ठहर जाते है। विचारों को गति करने के लिए पागलपन जरूरी है। तनाव जरूरी है। विचार तनाव के सहारे जीते है। जब आंखें मौन, शिथिल और शांत है और ऊर्जा पीछे की तरफ गति करने लगती है तो विचार ठहर जाते है। तुम्‍हें एक सूक्ष्म सुख का अनुभव होगा जो रोज प्रगाढ़ होता जाता है।

दिन में यह प्रयोग कई बार करो। एक क्षण के लिए भी यह छूना अच्‍छा रहेगा। जब भी तुम्‍हारी आंखें थक जाएं, जब भी उनकी ऊर्जा चुक जाए। वे बोझिल अनुभव करें—जैसा पढ़ने, फिल्‍म देखने या टी वी शो देखने से होता है—तो आंखें बंद कर लो और उन्‍हें स्‍पर्श करो। उसका असर तत्‍क्षण होगा।

लेकिन अगर तुम इसे ध्‍यान बनाना चाहते हो तो कम से कम चालीस मिनट तक इसे करना चाहिए। और कुल बात इतनी है कि दबाव मत डालों, सिर्फ छुओ। क्‍योंकि एक क्षण के लिए तो पंख जैसा स्‍पर्श आसान है। लेकिन ऐसा स्‍पर्श चालीस मिनट रह, यह कठिन है। अनेक बार तुम भूल जाते हो, और दबाव शुरू हो जाता है।

दबाव मत डालों। चालीस मिनट तक यह बोध बना रहे कि तुम्‍हारे हाथों में कोई वचन नहीं है। वे सिर्फ स्‍पर्श कर रहे है। इसका सतत होश बना रहे कि तुम आंखों को दबाते नहीं, केवल छूते हो। फिर वह श्‍वास की भांति गहरा बोध बन जाएगा। जैसे बुद्ध कहते है कि पूरे होश से श्‍वास लो, वैसे ही स्‍पर्श भी पूरे होश से करो। तुम्‍हें सतत स्‍मरण रहे कि मैं बिलकुल दबाव न डालु। तुम्‍हारे हाथों को पंख जैसा हलका होना चाहिए। बिलकुल वज़न शून्‍य मात्र स्‍पर्श। तुम्‍हारा अवधान एकाग्र होकर वहां रहेगा। और ऊर्जा निरंतर बहती रहेगी।

आरंभ में ऊर्जा बूंद-बूंद आएगी। फिर कुछ ही महीनों में तुम देखोगें कि वह सरित प्रवाह बन गया है। और वर्ष भर के भीतर वह बाढ़ बन जाएगी। और जब वह घटित होगा—‘आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन’—जब तुम छूओगे तो तुम्‍हें हलकापन अनुभव होगा। तुम इसे अभी ही अनुभव कर सकते हो। जैसे ही तुम छूते हो, तत्‍काल एक हलकापन पैदा हो जाता है। और वह उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है, वह हलकापन गहरे उतरता है, ह्रदय में खुलता है।

ह्रदय में केवल हल्‍कापन प्रवेश कर सकता है। कुछ भी जो भारी है वह ह्रदय में नहीं प्रवेश कर सकता है। ह्रदय में सिर्फ हलकी चीजें घटित हो सकती है। दो आंखों के बीच का यह हलकापन ह्रदय में गिरने लगेगा और ह्रदय उसे ग्रहण करने को खुल जाएगा।

‘और वहां ब्रह्मांड व्‍याप जाता है।’

और जैसे-जैसे यह ऊर्जा की वर्षा पहले झरना बनती है, फिर नदी बनती है और फिर बाढ़ बनती है। तुम उसमें खो जाओगे। बह जाओगे। तुम्‍हें अनुभव होगा कि तुम नहीं हो। तुम्‍हें अनुभव होगा कि सिर्फ ब्रह्मांड है। श्‍वास लेते हुए, श्‍वास छोड़ते हुए तुम ब्रह्मांड ही हो जाओगे। तब श्‍वास के साथ-साथ ब्रह्मांड ही भीतर आएगा। और ब्रह्मांड ही बाहर जायेगा। तब अहंकार, जो सदा रहे हो, नहीं रहेगा। तब अहंकार गया।

यह विधि बहुत सरल है; इसमें खतरा नहीं है। तुम जैसे चाहो इसके साथ प्रयोग कर सकते हो। लेकिन इसके सरल होने के कारण ही तुम इसे करने से भूल भी सकते हो। पूरी बात इस पर निर्भर है कि दबाव के बिना छूना है।

तुम्‍हें यह सीखना पड़ेगा। प्रयोग करते रहो। एक सप्‍ताह के भीतर यह सध जायेगा। अचानक किसी दिन जब तुम दबाव दिए बिना छूओगे, तुम्‍हें तत्‍क्षण वह अनुभव होगा जिसकी मैं बात कर रहा हूं। एक हलकापन, ह्रदय का खुलना और किसी चीज का सिर से ह्रदय में उतरना अनुभव होगा।

दूसरी विधि:

९१…
“हे दयामयी, अपने रूप के बहुत ऊपर और बहुत नीचे, आकाशीय उपस्‍थिति में प्रवेश करो।”
KIND DEVI, ENTER ETHERIC PRESENCE PERVADING FAR ABOVE AND BELOW YOUR FORM.

यह दूसरी विधि तभी प्रयोग की जा सकती है, जब तुमने पहली विधि पूरी कर ली है। यह प्रयोग अलग से भी किया जा सकता है। लेकिन तब यह बहुत कठिन होगा। इसलिए पहली विधि पूरी करके ही इसे करना अच्‍छा है। और तब यह विधि बहुत सरल भी हो जायेगी।

जब भी ऐसा होता है—कि तुम हलके-फुलके अनुभव करते हो, जमीन से उठते हुए अनुभव करते हो,मानों तुम उड़ सकते हो—तभी अचानक तुम्‍हें बोध होगा कि तुम्‍हारा शरीर को चारों और एक नीली आभा मंडल घेरे है।

लेकिन यह अनुभव तभी होगा जब तुम्‍हें लगे कि मैं जमीन से ऊपर उठ सकता हूं, कि मेरा शरीर आकाश में उड़ सकता है। कि यह बिलकुल हलका और निर्भार हो गया है। कि वह पृथ्‍वी के गुरूत्‍वाकर्षण से बिलकुल मुक्‍त हो गया है।

ऐसा नहीं है कि तुम उड़ सकते हो; वह प्रश्‍न नहीं है। हालांकि कभी-कभी यह भी होता है। कभी-कभी ऐसा संतुलन बैठ जाता है। कि तुम्‍हारा शरीर ऊपर उठ जाता है। लेकिन यह प्रश्‍न ही नहीं है। उसकी सोचो ही मत। बंद आंखों से इतना महसूस करना काफी है कि तुम्‍हारा शरीर ऊपर उठ गया है। जब तुम आँख खोलोगे तो पाओगे कि तुम जमीन पर ही बैठे हो। उसकी चिंता मत करो। अगर तुम बंद आंखों से महसूस कर सके कि शरीर ऊपर उठ गया है, कि उसमें कोई वज़न रहा, तो इतना काफी है।

ध्‍यान के लिए इतना काफी है। लेकिन अगर आकाश में उड़ना सीखने की चेष्‍टा कर रहे हो तो यह काफी नहीं है। लेकिन मैं उसमें उत्‍सुक नहीं हूं,और मैं तुम्‍हें उसके संबंध में कुछ नहीं बताऊंगा। इतना पर्याप्‍त है कि तुम्‍हें महसूस हो कि तुम्‍हारे शरीर पर कोई भार नहीं है, वह निर्भार हो गया है।

और जब भी यह हलकापन महसूस हो तो आंखें बंद रखे हुए ही अपने शरीर के आकार के प्रति बोधपूर्ण होओ। आंखों को बंद रखते हुए अँगूठों को और उनके आकार को महसूस करो, पैरों को और उनके आकार को महसूस करो। अगर तुम बुद्ध की भांति सिद्धासन में बैठे हो तो बैठे ही बैठे अपने शरीर के आकार को अनुभव करो। तुम्‍हें अनुभव होगा, स्‍पष्‍ट अनुभव होगा। और उसके साथ ही साथ तुम्‍हें बोध होगा कि उस आकार के चारों और नीला सा प्रकाश फैला है।

आरंभ में यह प्रयोग आंखों को बंद रख कर करो। और जब यह प्रकाश फैलता जाए और तुम्‍हें आकार के चारों और नीला प्रकाश मंडल महसूस हो, तब कभी यह प्रयोग रात में, अंधेरे कमरे में करते समय आंखें खोल लो, और तुम अपने शरीर के चारों और एक नीला प्रकाश, एक नीला आभा मंडल देखोगें। अगर तुम इसे बंद आंखों से नहीं, खुली आंखों से देखना चाहते हो तो इसे सचमुच देखना चाहते हो तो यह प्रयोग अंधेरे कमरे में करो जहां कोई रोशनी न हो।

यह नीला प्रकाश, यह नीला आभा मंडल तुम्‍हारे आकाश शरीर की उपस्‍थिति है। तुम्‍हारे शरीर एक द्वार है। यह विधि आकाश-शरीर से संबंध रखती है। और तुम आकाश शरीर के द्वारा ऊंची से ऊंची समाधि में प्रवेश कर सकते हो।

सात शरीर है और भगवत्‍ता में प्रवेश के लिए प्रत्‍येक शरीर का उपयोग हो सकता है। प्रत्‍येक शरीर एक द्वार है। यह विधि आकाश शरीर का उपयोग करती है। और आकाश शरीर को प्राप्‍त करना सबसे सरल है। शरीर के तल पर जितनी ज्‍यादा गहराई होगी उतनी ही उसकी उपलब्‍धि कठिन होगी। लेकिन आकाश शरीर तुम्‍हारे बहुत निकट है, स्‍थूल शरीर के बहुत निकट है। आकाश शरीर तुम्‍हारा दूसरा शरीर है। जो तुम्‍हारे चारों और है—तुम्‍हारे स्‍थूल शरीर के चारों और। यह तुम्‍हारे शरीर के भीतर भी है और यह शरीर को चारों और से एक धुँधली आभा की तरह, नीले प्रकाश को तरह ढीले परिधार की तरह घेर हुए है।

‘हे दयामयी, अपने रूप के बहुत ऊपर और बहुत नीचे, आकाशीय उपस्‍थिति में प्रवेश करो।’

बहुत ऊपर, बहुत नीचे—तुम्‍हारे चारों और सर्वत्र। यदि तुम अपने सब और उस नीले प्रकाश को देख सको तो विचार तुरंत ठहर जाएगा। क्‍योंकि आकाश शरीर के लिए विचार करने की जरूरत नही है। और यह नीला प्रकाश बहुत शांति दायी है। क्‍यों? क्‍योंकि वह तुम्‍हारे आकाश शरीर का प्रकाश है। नीला आकाश ही कितना विश्रामपूर्ण है। क्‍यों? क्‍योंकि वह तुम्‍हारे आकाश शरीर का रंग है। और आकाश-शरीर स्‍वयं बहुत विश्रामपूर्ण है।

जब भी कोई व्‍यक्‍ति तुम्‍हें प्रेम करता है, जब भी कोई व्‍यक्‍ति तुम्‍हें प्रेम से स्‍पर्श करता है, तब वह तुम्‍हारे आकाश शरीर को स्‍पर्श करता है। इसीलिए तुम्‍हें वह इतना सुखदायी मालूम पड़ता है। इसका तो फोटोग्राफ भी लिया जा चुका है। जब दो प्रेमी में संभोग में उतरते है, और यदि उनका संभोग एक खास अवधि तक चले, चालीस मिनट से ऊपर चले और स्‍खलन न हो, तो गहन प्रेम में डूबे उन दो शरीरों के चारों ओर एक नीला प्रकाश छा जाता है। उनका फोटो भी लिया जा सकता है।

और कभी-कभी तो बहुत अजीब घटनाएं घटती है। क्‍योंकि यह प्रकाश बहुत ही सूक्ष्‍म विद्युत शक्‍ति है। सारे संसार में बहुत सी ऐसी घटनाएं घटी है। नए प्रेमियों का एक जोड़ा हनीमून मनाने के लिए नए कमरे में ठहरा है; पहली रात है और वे एक दूसरे के शरीर से परिचित नहीं है, वे नहीं जानते है कि क्‍या संभव है। अगर दोनों के शरीर प्रेम के आकर्षण के लगाव और हार्दिकता के एक विशेष तरंग से तरंगायित है। एक दूसरे के प्रति खुले है, ग्रहणशील है कि उनके शरीर इतने विद्युत्मय हो गया है। उनके आकाश शरीर इतने आविष्‍ट और जीवंत हो गए है कि उनके प्रभाव से कमरे की चीजें गिरने लगी है।

बहुत अजीब घटनाएं घटी है। मेज पर एक मूर्ति रखी है। वह जमीन पर गिर जाती है। मेज का शीशा अचानक टूट जाता है। वहां कोई तीसरा व्‍यक्‍ति नही है। मात्र वह जोड़ा है वहां। उन्‍होंने मेज या शीशे को स्‍पर्श भी नहीं किया और ऐसा भी हुआ है कि अचानक कुछ जलने लगता है। दुनियाभर में ऐसे मामलों की खबरें पुलिस चौकियों में दर्ज हुई है। उन पर खोजबीन की गई है ओर पाया गया है कि गहन प्रेम में संलग्‍न दो व्‍यक्‍ति ऐसी विद्युत शक्‍ति का सृजन कर सकते है कि उससे उनके आस-पास की चीजें प्रभावित हो सकती है।

वह शक्‍ति भी आकाश शरीर से आती है। तुम्‍हारा आकाश शरीर तुम्‍हारा विद्युत शरीर है। जब भी तुम ऊर्जा से भरे होते हो तब तुम्‍हारा आकाश-शरीर बड़ा हो जाता है। और जब तुम उदास,बुझे-बुझे होते हो तो तुम्‍हारा आकाश शरीर सिकुड़कर शरीर के भीतर सिमट जाता है। इसीलिए उदास और दुःखी व्‍यक्‍ति के पास तुम भी उदास और दुःखी हो जाते हो। अगर कोई दुःखी व्‍यक्‍ति इस कमरे में प्रवेश करे तो तुम्‍हें लगेगा कि कुछ गड़बड़ हो रही है, क्‍योंकि उसका आकाश शरीर तुम्‍हें तुंरत प्रभावित करता है। वह शक्‍ति चूसता है; क्‍योंकि उसकी अपनी शक्‍ति इतनी बुझी-बुझी है कि वह दूसरों की शक्‍ति चूसने लगता है।

उदास आदमी तुम्‍हें उदास बना देता है। दुःखी आदमी तुम्‍हें दुःखी कर देता है। बीमार व्‍यक्‍ति तुम्‍हें बीमार कर देगा। क्‍यो? क्‍योंकि वह उतना ही नहीं है जितना तुम देखते हो, उसके भीतर कुछ छिपा है जो काम कर रहा है। हालांकि उसने कुछ नहीं कहा है। हालांकि वह बाहर से मुस्‍कुरा रहा है; तो भी यदि वह दुःखी है तो वह तुम्‍हारा शोषण करेगा, तुम्‍हारे आकाश शरीर की ऊर्जा क्षीण हो जाएगी। वह तुम्‍हारी उतनी शक्‍ति खींच लेगा, वह तुम्‍हें उतना चूस लगा। और जब कोई सुखी व्‍यक्‍ति कमरे में प्रवेश करता है तो तुम भी तत्‍क्षण सुख महसूस करने लगते हो। सुखी व्‍यक्‍ति इतनी आकाशीय शक्‍ति बिखेरता है कि वह तुम्‍हारे लिए भोजन बन जाता है। वह तुम्‍हारा पोषण बन जाता है। उसके पास अतिशय ऊर्जा उससे बह रही है।

जब कोई बुद्ध, कोई क्राइस्‍ट, कोई कृष्‍ण तुम्‍हारे पास से गुजरते है तो वह तुम्‍हें निरंतर एक सूक्ष्‍म भोजन दे रहे है। और तुम निरंतर उनके मेहमान हो। और जब तुम किसी बुद्ध के दर्शन करके लौटते हो तो तुम अत्‍यंत पुन जीवित, अत्‍यंत ताजा,अत्‍यंत जीवंत अनुभव करते हो। हुआ क्‍या? बुद्ध कुछ बोले भी न हों; मात्र दर्शन से तुम्‍हें लगता है कि मेरे भीतर कुछ बदल गया है। मेरे भीतर कुछ प्रविष्‍ट हो गया है। क्‍या प्रविष्‍ट हो गया है? बुद्ध इतने आप्‍तकाम है, इतने आपूरित है, इतने लबालब भरे है। कि वे ऊर्जा का सागर बन गए है। और उनकी ऊर्जा बाढ़ की भांति बहा रही है।

जो भी व्‍यक्‍ति स्‍वास्‍थ होता है, शांत होता है, वह सदा बाढ़ बन जाता है। क्‍योंकि अब उसकी ऊर्जा उन व्‍यर्थ की बातों में उन ना समझियों में व्‍यय नहीं होती जिनमें तुम अपनी ऊर्जा गंवा रहे हो। उसके साथ उसके चारों और सदा ऊर्जा की बाढ़ चलती है। और जो भी उसके संपर्क में आता है। वह उसका लाभ ले सकता है।

जीसस कहते है: ‘मेरे पास आओ, अगर तुम बहुत बोझिल हो तो मेरे पास आओ। मैं तुम्‍हें निर्बोझ कर दूँगा।’

असल में जीसस कुछ नहीं करते है, बस उनकी उपस्‍थिति में कुछ होता है। कहते है कि जब कोई भगवता को उपलब्‍ध पुरूष, कोई तीर्थंकर, कोई अवतार, कोई क्राइस्‍ट पृथ्‍वी पर चलता है तो उसके चारो और एक विशेष वातावरण, एक प्रभाव-क्षेत्र निर्मित होता है। जैन योगियों ने तो इसका माप भी लिया है। वे कहते है कि यह प्रभाव-क्षेत्र चौबीस मील होता है। तीर्थंकर के चारों और चौबीस मील की परिधि होती है। चाहे उसे इसका बोध हो या न हो, चाहे वह मित्र हो या शत्रु हो, अनुयायी हो या विरोधी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।

हां,यदि तुम अनुयायी हो तो तुम खूब भर जाते हो। क्‍योंकि तुम खुले हुए हो। विरोधी भी भरता है, लेकिन उतना नहीं। क्‍योंकि विरोधी बंद होता है। लेकिन ऊर्जा तो सब पर बरसती है। एक अकेला व्‍यक्‍ति यदि अनुद्विग्‍न है, शांत है, मौन है, आनंदित है, तो वि शक्‍ति का पुंज बन जाता है—ऐसा पुंज कि उसके चारों और चौबीस मील में एक विशेष वातावरण बन जाता है। और उस वातावरण में तुम्‍हें एक सूक्ष्‍म पोषण मिलता है।

यह घटना आकाश-शरीर के द्वारा घटती है। तुम्‍हारा आकाश शरीर विद्युत शरीर है। जो शरीर हमें दिखाई पड़ता है। वह भौतिक है, पार्थिव है। यह सच्‍चा जीवन नहीं है। इस शरीर में विद्युत शरीर आकाश शरीर के कारण जीवन आता है। वहीं तुम्‍हारा प्राण है।

तो शिव कहते है: ‘हे दयामयी, आकाशीय उपस्‍थिति में प्रवेश करो।’

पहले तुम्‍हें अपने भौतिक शरीर को घेरने वाले आकाश शरीर के प्रति बोधपूर्ण होना होगा। और जब तुम्‍हें उसका बोध होने लगे तो उसे बढ़ाओं। बड़ा करो, फैलाओ। इसके लिए तुम क्‍या कर सकते हो?

बस चुपचाप बैठना है और उसे देखना है। कुछ करना नहीं है; बस अपने चारो और फैले इस नीले आकार को देखते रहना है। और देखते-देखते तुम पाओगे कि वह बढ़ रहा है। बड़ा हो रहा है। सिर्फ देखने से वह बड़ा हो रहा है। क्‍योंकि जब तुम कुछ नहीं करते हो तो पूरी ऊर्जा आकाश शरीर को मिलती है। इसे स्‍मरण रखो। और जब तुम कुछ करते हो तो आकाश शरीर से ऊर्जा बाहर जाती है।

लाओत्से कहता है: ‘मैं कुछ नहीं करता हूं और मुझसे शक्‍तिशाली कोई नहीं है। मैं कभी कुछ नहीं करता है। और कोई मुझसे शक्‍तिशाली नहीं है। जो कुछ करने के कारण शक्‍ति शाली है, उन्‍हें हराया जा सकता है। लाओत्से कहता है; ‘मुझे हराया नहीं जा सकता क्‍योंकि मेरी शक्‍ति कुछ न करने से आती है। तो असली बात कुछ न करना है।’’

बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध क्‍या कर रहे थे? कुछ नहीं कर रहे थे। वे उस क्षण कुछ भी नहीं कर रहे थे। वे शून्‍य हो गया थे। और मात्र बैठे-बैठे उन्‍होंने परम को पा लिया। यह बात बेबूझ लगती है। यह बात बहुत हैरानी की लगती है। हम इतना प्रयत्‍न करते है और कुछ नहीं होता है। और बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे बैठे-बैठे बिना कुछ किये परम को उपलब्‍ध हो जाते है।

जब तुम कुछ नहीं करते हो तब तुम्‍हारी ऊर्जा बाहर गति नहीं करती है। तब वह ऊर्जा आकाश-शरीर को मिलती है। और वहां इकट्ठी होती है। फिर तुम्‍हारा आकाश-शरीर विद्युत शक्‍ति का भंडार बन जाता है। और वह भंडार जितना बढ़ता है। फिर तुम्‍हारी शक्‍ति उतनी ही बढ़ती है। और तुम जितना ज्‍यादा शांत होते हो उतनी ही ऊर्जा का भंडार भी बढ़ता है। और जिस क्षण तुम जान लेते हो। कि आकाश शरीर जो ऊर्जा कैसे दी जाए और कैसे ऊर्जा को व्‍यर्थ नष्‍ट न किया जाए, उसी क्षण गुप्‍त कुंजी तुम्‍हारे हाथ लग गई।

और तब तुम आनंदित हो सकते हो। वस्‍तुत: तभी तुम आनंदित हो सकते हो। उत्‍सव मना सकते हो। तुम अभी जैसे हो ऊर्जा से रिक्‍त, तुम कैसे उत्‍सवपूर्ण हो सकते हो? तुम कैसे उत्‍सव मना सकते हो? तुम कैसे फूल की तरह खिल सकते है। फूल तो अतिरिक्‍त ऊर्जा का वैभव है। वृक्ष ऊर्जा से लबालब होते हो तो उसमें फूल खिलते है। वृक्ष यदि भूखा हो तो उसमे फूल नहीं आएँगे। क्‍योंकि पत्‍तों के लिए भी पर्याप्‍त पोषण नहीं है। जड़ों के लिए भी पर्याप्‍त भोजन नहीं है।

उनमें भी एक क्रम है। पहले जड़ों को भोजन मिलेगा। क्‍योंकि वे बुनियादी है। अगर जड़ें ही सूख गईं तो फूल की संभावना कहां रहेगी? तो पहले जड़ों को भोजन दिया जाएगा। फिर शाखाओं को। अगर सब ठीक-ठाक चले और फिर भी ऊर्जा शेष रह जाए, तब पत्‍तों को पोषण दिया जाएगा। और उसके बाद भी भोजन बचे और वृक्ष समग्रत: संतुष्‍ट हो, जीने के लिए और भोजन की जरूरत न रहे, तब अचानक उसमें फूल लगते है। ऊर्जा का अतिरेक ही फूल बन जाता है। फूल दूसरों के लिए दान है। फूल भेंट है। फूल वृक्ष की तरफ से तुम्‍हें भेंट है।

और यही घटना मनुष्‍य में भी घटती है। बुद्ध वह वृक्ष है जिसमें फूल लगे। अब उनकी ऊर्जा इतनी अतिशय है कि उन्‍होंने सबको पूरे अस्‍तित्‍व को उसमे सहभागी होने के लिए आमंत्रित किया है।

पहले पहली विधि को प्रयोग करो और फिर दूसरी विधि को। तुम दोनों को अलग-अलग भी प्रयोग कर सकते हो। लेकिन तब आकाश-शरीर के नीले आभा मंडल को प्राप्‍त करना थोड़ा कठिन होगा।