विज्ञान भैरव तंत्र – ४ (७९-८१)

From death to deathlessness:

अग्‍नि संबंधि पहली विधि:

७९…
‘भाव करो कि एक आग तुम्‍हारे पाँव के अंगूठे से शुरू होकर पूरे शरीर में ऊपर उठ रही है। और अंतत: शरीर जलकर राख हो जाता है। लेकिन तुम नहीं।’
FOCUS ON FIRE RISING THROUGH YOUR FORM FROM THE TOES UP UNTIL THE BODY BURNS TO ASHES BUT NOT YOU.

यह बहुत सरल विधि है और बहुत अद्भुत है, प्रयोग करने में भी सरल है। लेकिन पहले कुछ बुनियादी जरूरतें पूरी करनी होती है।

बुद्ध को यह विधि बहुत प्रीतिकर थी और वे अपने शिष्‍यों को इस विधि में दीक्षित करते थे। जब भी कोई व्‍यक्‍ति बुद्ध से दीक्षित होता था तो वे उससे पहली बात यही कहते थे; कि मरघट चले जाओ और वहां किसी जलती चिता को देखो, जलते हुए मरघट में बैठकर देखना था।

तो साधक गांव के मरघट में चला जाता था और तीन महीने तक दिन-रात वही रहता था। और जब भी कोई मुर्दा आता, वह बैठकर उस पर ध्‍यान करता था। वह पहले शव को देखता; फिर आग जलाई जाती और शरीर जलने लगता और वह देखता रहता। तीन महीने तक वह इसके सिवाय कुछ और नहीं करता। वह मुर्दों को जलते देखता रहता।
बुद्ध कहते थे, ‘उसके संबंध में विचार मत करना, उसे बस देखना।’

और यह कठिन है कि साधक के मन में यह विचार न उठे कि देर-अबेर मेरा शरीर भी जला दिया जायेगा। तीन महीने लंबा समय है। और साधक को रात दिन निरंतर जब भी कोई चिता जलती, उस पर ध्‍यान करना था। देर अबेर उसे दिखाई देने लगता कि चिता पर मेरा शरीर ही जल रहा है। चिता पर मैं ही जलाया जा रहा हूं।

लोग अपने सगे-संबंधियों को जलाने ले जाते है। लेकिन वे कभी उस घटना को देखते नहीं। वे दूसरी चीजों के संबंध में या मृत्‍यु के संबंध में ही बातचीत करने लगते है। वे विवाद करते है। विवेचन करते है, वे बहुत कुछ करते है, गपशप करते है, लेकिन वे कभी दाह-संस्‍कार क्रिया का निरीक्षण नहीं करते है। इसे तो ध्‍यान बना लेना चाहिए। वहां बातचीत की इजाजत नहीं होनी चाहिए। अपने किसी प्रिय को जलते हुए देखना दुर्लभ अनुभव है। वहां तुम्‍हें यह भाव अवश्‍य उठेगा कि मैं जल रहा हूं। अगर तुम अपनी मां को जलते हुए देख रहे हो, या पिता को, या पत्‍नी को, या पति को, तो यह असंभव है कि तुम अपने को भी उस चिता में जलते हुए न देखो।
यह अनुभव इस विधि के लिए सहयोगी होगा—यह पहली बात।

दूसरी बात कि अगर तुम मृत्‍यु से बहुत भयभीत हो तो तुम इस विधि का प्रयोग नहीं कर सकोगे। क्‍योंकि यह भय ही अवरोध बन जाएगा। तुम उसमें प्रवेश न कर सकोगे। या तुम ऊपर-ऊपर कल्‍पना करते रहोगे। मगर तुम अपने गहन प्राणों से उसमें प्रवेश नहीं करोगे।

तब तुम्‍हें कुछ भी नहीं होगा। तो यह दूसरी बात स्‍मरण रहे कि तुम चाहे भयभीत हो या नहीं हो, मृत्‍यु निश्‍चित है। केवल मृत्‍यु निश्‍चित है। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कि तुम भयभीत हो या नहीं; यह अप्रासंगिक है। जीवन में मृत्‍यु के अतिरिक्‍त कुछ भी निश्‍चित नहीं है। सब कुछ अनिश्‍चित है। केवल मृत्‍यु निश्‍चित है। सब कुछ सांयोगिक है—हो सकता है या नहीं भी हो सकता है। लेकिन मृत्‍यु सांयोगिक नहीं है।

लेकिन मनुष्‍य के मन को देखा। हम सदा मृत्‍यु की चर्चा इस भांति करते है मानों वह दुर्धटना हो। जब भी किसी की मृत्‍यु होती है, हम कहते है कि वह असमय मर गया। जब भी कोई मरता है तो हम इस तरह की बातें करने लगते है। मानों यह कोई अनहोनी घटना है। सिर्फ मृत्‍यु अनहोनी नहीं है। सिर्फ मृत्‍यु सुनिश्‍चित है। बाकी सब कुछ सांयोगिक है। मृत्‍यु बिलकुल निश्‍चित है। तुम्‍हें मरना है।

और जब मैं कहता हूं कि तुम्‍हें मरना है तो ऐसा लगता है कि यह मरना कहीं भविष्‍य में है, बहुत दूर है। ऐसी बात नहीं है। तुम मर ही चुके हो। जिस क्षण तुम पैदा हुए, तुम मर चुके। जन्‍म के साथ ही मृत्‍यु निश्‍चित है। उसका एक छोर, जन्‍म का छोर घटित हो चुका है। अब दूसरे छोर को, मृत्‍यु के छोर को घटित होना है। इसलिए तुम मर चुके हो, आधे मर चुके हो। क्‍योंकि जन्‍म लेने के साथ ही तुम मृत्‍यु के घेरे में आ गए, दाखिल हो गए। अब कुछ भी उसे नहीं बदल सकता है। अब उसे बदलने का उपाय नहीं है।

और दूसरी बात कि मृत्‍यु अंत में नहीं घटेगी, वह घट ही रही है। मृत्‍यु एक प्रक्रिया है। जैसे जीवन प्रक्रिया है, वैसे ही मृत्‍यु भी प्रक्रिया है। द्वैत हम निर्मित करते है। लेकिन जीवन ओर मृत्‍यु ठीक तुम्‍हारे दो पाँवों की तरह है। जीवन और मृत्‍यु दोनों एक प्रक्रिया है। तुम प्रतिक्षण मर रहे हो।

मुझे यह बात इस तरह से कहने दो: जब तुम श्‍वास भीतर ले जाते हो तो वह जीवन है; और जब तुम श्‍वास बाहर निकालते हो तो वह मृत्‍यु है। बच्‍चा जन्‍म लेने पर पहला काम करता है कि वह श्‍वास भीतर ले जाता है। बच्‍चा पहले श्‍वास छोड़ नही सकता है। उसका पहला काम श्‍वास लेना है। वह श्‍वास छोड़ नही सकता। क्‍योंकि उसके सीने में हवा नहीं है। और मरता हुआ बूढ़ा आदमी अंतिम कृत्‍य करता है कि वह श्‍वास छोड़ता है। मरते हुए तुम श्‍वास ले नहीं सकते। या कि ले सकते हो। जब तुम मर रहे हो तो तुम श्‍वास छोड़ना ही होगा। पहला काम श्‍वास लेना है और अंतिम काम श्‍वास छोड़ना है। श्‍वास लेना जीवन और श्‍वास छोड़ना मृत्‍यु है। प्रत्‍येक क्षण तुम यही काम कर रहे हो।

तुमने शायद यह निरीक्षण न किया हो, लेकिन यह निरीक्षण करने जैसा है। जब भी तुम श्‍वास छोड़ते हो, तुम शांत अनुभव करते हो। लंबी श्‍वास बाहर फेंको और तुम्‍हें अपने भीतर एक शांति का अनुभव होगा। और जब भी तुम श्‍वास भीतर लेते हो तुम बेचैन हो जाते हो। तनावग्रस्‍त हो जाते हो। भीतर जाती श्‍वास की तीव्रता ही तनाव पैदा करती है।

और सामान्‍यत: हम सदा श्‍वास लने पर जोर देते है। अगर मैं कहूं कि गहरी श्‍वास लो तो तुम सदा श्‍वास लने से शुरू करोगे। सच तो यह है कि हम श्‍वास छोड़ने से डरते है। यही कारण है कि हमारी श्‍वास इतनी उथली हो गई है। तुम कभी श्‍वास छोड़ते नहीं, तुम श्‍वास लेते हो। सिर्फ तुम्‍हारा शरीर श्‍वास छोड़ने का काम करता है। क्‍योंकि शरीर सिर्फ श्‍वास लेकिन ही जीवित नही रह सकता।

एक प्रयोग करो। पूरे दिन जब भी तुम्‍हें स्‍मरण रहे। श्‍वास छोड़ने पर ध्‍यान दो। श्‍वास बाहर फेंको। और तुम श्‍वास भीतर मत लो। श्‍वास लेने का काम शरीर पर छोड़ दो; तुम केवल श्‍वास छोड़ते जाओ। लंबी और गहरी श्‍वास और तब तुम्‍हें एक गहन शांति का अनुभव होगा; क्‍योंकि मृत्‍यु मौन है, मृत्‍यु शांति है।

और अगर तुम श्‍वास छोड़ने पर ध्‍यान दे सके, ज्‍यादा से ज्‍यादा ध्‍यान दे सके, तो तुम अहंकार रहित अनुभव करोगे। श्‍वास लेने से तुम ज्‍यादा अहंकारी अनुभव करोगे। और श्‍वास छोड़ने से ज्‍यादा अहंकार रहित। तो श्‍वास छोड़ने पर ज्‍यादा ध्‍यान दो। पूरे दिन जब भी याद आए, गहरी श्‍वास बाहर फेंको लो मत, श्‍वास लेने का काम शरीर को करने दो; तुम कुछ मत करो।

श्‍वास छोड़ने पर यह जोर तुम्‍हें इस विधि के प्रयोग में बहुत सहयोगी होगा; क्‍योंकि तुम मरने के लिए तैयार होगे। मरने की तैयारी जरूरी हे। अन्‍यथा यह विधि बहुत काम की नहीं होगी। और तुम मृत्‍यु के लिए तैयार तभी हो सकते हो जब तुमने किसी ने किसी तरह से एक बार उसका स्‍वाद लिया हो। गहरी श्‍वास छोड़ो और तुम्‍हें उसका स्‍वाद मिल जायेगा।

हम मृत्‍यु से भयभीत है, इसका कारण मृत्‍यु नहीं है। मृत्‍यु को तो हम जानते ही नहीं है। तुम उस चीज से कैसे भयभीत हो सकते हो जिसका तुम्हें कभी सामना ही नहीं हुआ। तुम उस चीज से कैसे भयभीत हो सकते हो जिसे तुम जानते ही नहीं। किसी चीज से भयभीत होने के लिए उसे जानना जरूरी है।

तो असल में तुम मृत्‍यु से भयभीत नहीं हो, यह भय कुछ और है। तुम वस्‍तुत: कभी जीए ही नहीं; और इससे ही मृत्‍यु का भय पैदा होता है। मृत्‍यु का भय पकड़ता है। क्‍योंकि तुम जी नहीं रहे हो। और तुम्‍हारा भय यह है: ‘अब तक मैं जीया ही नहीं,और मृत्‍यु आ गई तो क्‍या होगा? मैं तो अतृप्‍त अन जीया ही मर जाऊँगा।’ मृत्‍यु का भय उन्‍हें ही पकड़ता है जो वस्‍तुत: जीवित नहीं है।

यदि तुमने जीवन को जीया है, जीवन को जाना है, तो तुम मृत्‍यु का स्‍वागत करोगे। तब कोई भय नहीं है। तुमने जीवन को जान लिया; अब तुम मृत्‍यु को भी जानना चाहोगे। लेकिन हम जीवन से ही इतने डरे हुए है कि हम उसे नहीं जान पाए है; हम उसमें गहरे नहीं उतरे है। वही चीज मृत्‍यु का भय पैदा करती है।

अगर तुम इस विधि में प्रवेश करना चाहते हो तो तुम्‍हें मृत्‍यु के प्रति इस सघन भय के प्रति जागना होगा, बोधपूर्ण होना होगा। और इस सघन भय को विसर्जित करना होगा। तो ही तुम इस विधि में प्रवेश कर सकते हो।

इससे मदद मिलेगी; श्‍वास छोड़ने पर ज्‍यादा ध्‍यान दो। सारा ध्‍यान श्‍वास छोड़ने पर दो, श्‍वास लेना भूल जाओ। और डरो मत कि मर जाओगे। तुम नहीं मरोगे। श्‍वास लेने का काम खुद शरीर कर लेगा। शरीर का अपना विवेक है। अगर तुम गहरी श्‍वास बाहर फेंकोगे तो शरीर खुद गहरी श्‍वास भीतर लेगा। तुम्‍हें हस्‍तक्षेप करने की जरूरत नहीं है। और तुम्‍हारी समस्‍त चेतना पर एक गहरी शांति फैल जाएगी। सारा दिन विश्राम अनुभव करोगे। और एक आंतरिक मौन घटित होगा।

अगर तुम एक और प्रयोग करो तो विश्रांति और मौन का यह भाव और भी प्रगाढ़ हो सकता है। दिन में सिर्फ पंद्रह मिनट के लिए गहरी श्‍वास बाहर छोड़ो। कुर्सी पर या जमीन पर बैठ जाओ फिर गहरी श्‍वास छोड़ो और शरीर को श्‍वास लेने दो। और जब श्‍वास भीतर जाये, आंखें खोल लो और तुम बाहर चले जाओ। ठीक उलटा करो: जब श्‍वास बाहर आये तुम भीतर चले जाओ। और जब श्‍वास भीतर आये तो तुम बाहर चले आओ।

जब तुम श्‍वास छोड़ते हो तो भीतर खाली स्‍थान, अवकाश निर्मित होता है। क्‍योंकि श्‍वास जीवन है। जब तुम गहरी श्‍वास छोड़ते हो तो तुम खाली हो जाते हो। जीवन बाहर निकल गया। एक ढंग से तुम मन गए। क्षण भर के लिए मर गए। मृत्‍यु के उस मौन में अपने भीतर प्रवेश करो। श्‍वास बाहर जा रही है। आंखें बंद करो और भीतर सरक जाओ। वहां अवकाश है; तुम आसानी से सरक सकते हो। स्‍मरण रहे, जब तुम श्‍वास ले रहे हो तो तब भीतर जाना बहुत कठिन है। वहां जाने के लिए जगह कहां। तुम श्‍वास छोड़ते हुए ही तुम भीतर जा सकते हो। और जब श्‍वास भीतर हो तो तुम बाहर चले जाओ। आंखें खोलों और बहार निकल जाओ। इन दोनों के बीच एक लयवद्यिता निर्मित करो लो।

पंद्रह मिनट के इस प्रयोग से तुम गहन विश्राम में उतर जाओगे। और तब तुम इस विधि के प्रयोग के लिए अपने को तैयार पाओगे। इस विधि में उतरने के लिए पहले पंद्रह मिनट के लिए यह प्रयोग जरूर करे। ताकि तुम तैयार हो सको—तैयार ही नहीं उसके प्रति स्‍वागत पूर्ण हो सको। खुले हो सको। मृत्‍यु का भय खो जाये। क्‍योंकि अब मृत्‍यु प्रगाढ़ विश्राम मालूम पड़ेगी। अब मृत्‍यु जीवन के विरूद्ध नहीं,वरन जीवन का स्‍त्रोत जीवन की ऊर्जा मालूम पड़ेगा। जीवन तो झील की सतह पर लहरों की भांति है और मृत्‍यु स्‍वयं झील है। और जब लहरें नहीं है तब भी झील है। और झील तो लहरों के बिना हो सकती है, लेकिन लहरें झील के बिना नहीं हो सकती। जीवन मृत्‍यु के बिना नहीं हो सकता। लेकिन मृत्‍यु जीवन के बिना हो सकती है। क्‍योंकि मृत्‍यु स्‍त्रोत है। और तब तुम इस विधि का प्रयोग कर सकते हो।

‘प्रयोग करो कि एक आग तुम्‍हारे पाँव के अंगूठे से शुरू होकर पूरे शरीर में ऊपर उठ रही है……।’

बस लेट जाओ। पहले भाव करो कि तुम मर गए हो। शरीर एक शव मात्र है। लेटे रहो और अपने ध्‍यान को पैर के अंगूठे पर ले जाओ। आंखें बंद करके भीतर गति करो। अपने ध्‍यान को अँगूठों पर ले जाओं और भाव करो कि वहां से आग ऊपर बढ़ रही है। और सब कुछ जल रहा है……जैसे-जैसे आग बढ़ती है वैसे-वैसे तुम्‍हारा शरीर विलीन हो रहा है। अंगूठे से शुरू करो और ऊपर बढ़ो।

अंगूठे से क्‍यों शुरू करो। यह आसान होगा। क्‍योंकि अंगूठा तुम्‍हारे ‘मैं’ से, तुम्‍हारे अहंकार से बहुत दूर है। तुम्‍हारा अहंकार सिर में केंद्रित है; वहां से शुरू करना कठिन होगा। तो बिंदु से शुरू करो; भाव करो कि अंगूठे जल रहे है। और वहां अब राख ही बची है।

और फिर धीरे-धीरे ऊपर बढ़ो और जो भी आग की राह में पड़े उसे जलाते जाओ। सारे अंग—पैर,जांघ—विलीन हो जाएंगे। और देखते जाओ कि अंग-अंग राख हो रहे है; जिन अंगों से होकर आग गुजरी है वे अब नहीं है। वे राख हो गए है। ऊपर बढ़ते जाओ; और अंत में सिर भी विलीन हो जाता है। प्रत्‍येक चीज राख हो गई है; धूल-धूल में मिल रही है। और तुम देख रहे हो।

‘और अंतत: शरीर जलकर राख हो जाता है। लेकिन तुम नहीं।’

तुम शिखर पर खड़े द्रष्‍टा रह जाओगे, साक्षी रह जाओगे। शरीर वहां पडा होगा, मृत जला हुआ, राख—और तुम द्रष्‍टा होगे, साक्षी होगे। इस साक्षी का कोई अहंकार नहीं है।

यह विधि निरहंकार अवस्‍था की उपलब्‍धि के लिए बहुत उपयोगी है। क्‍यो? क्‍योंकि इसमें बहुत सी बातें घटती है। यह विधि सरल मालूम पड़ती है। लेकिन यह उतनी सरल है नहीं। इसकी आंतरिक संरचना बहुत जटिल है।

पहली बात यह है कि तुम्‍हारी स्‍मृतियां शरीर का हिस्‍सा है। स्‍मृति पदार्थ है; यही कारण है कि उसे संग्रहीत किया जा सकता है। स्‍मृति मस्‍तिष्‍क के कोष्‍ठों में संग्रहीत है। स्‍मृतियां भौतिक है, शरीर का हिस्‍सा है। तुम्‍हारे मस्‍तिष्‍क का आपरेशन करके अगर कुछ कोशिकाओं को निकाल दिया जाए तो उनके साथ कुछ स्‍मृतियां भी विदा हो जायेगी। स्‍मृतियां मस्‍तिष्‍क में संग्रहीत रहती है। स्‍मृति पदार्थ है; उसे नष्‍ट किया जा सकता है।

और अब तो वैज्ञानिक कहते है कि स्‍मृति प्रत्‍यारोपित कि जा सकती है। देर-अबेर हम उपाय खोज लेंगे कि जब आइंस्‍टीन जैसा व्‍यक्‍ति मरे तो हम उसके मस्‍तिष्‍क की कोशिकाओं को बचा लें। और उन्‍हें किसी बच्‍चे में प्रत्‍यारोपित कर दें। और उस बच्‍चे को आइंस्टीन के अनुभवों से गूजरें बिना ही आइंस्टीन की स्‍मृतियां प्राप्‍त हो जाएगी।

तो स्‍मृति शरीर का हिस्‍सा है। और अगर सारा शरीर जल जाए, राख हो जाए,तो कोई स्‍मृति नहीं बचेगी। याद रहे,यह बात समझने जैसी है। अगर स्‍मृति रह जाती है तो शरीर अभी बाकी है। और तुम धोखे में हो। अगर तुम सचमुच गहराई से इस भाव में उतरोगे कि शरीर नहीं है। जल गया है, आग ने उसे पूरी तरह राख कर दिया है। तो उसे क्षण तुम्‍हें कोई स्‍मृति नहीं रहेगी। साक्षित्‍व के उस क्षण में कोई मन नहीं रहेगा। सब कुछ ठहर जाएगा। विचारों की गति रूक जाएगी। केवल दर्शन,मात्र देखना रह जाएगा कि क्‍या हुआ है।

और एक बार तुमने यह जान लिया तो तुम इस अवस्‍था में निरंतर रह सकते हो। एक बार सिर्फ यह जानना है कि तुम अपने को अपने शरीर से अलग कर सकते हो। यह विधि तुम्‍हें अपने शरीर से अलग जानने का, तुम्‍हारे और तुम्‍हारे शरीर के बीच एक अंतराल पैदा करने का, कुछ क्षणों के लिए शरीर से बाहर होने का एक उपाय है। अगर तुम इसे साध सको तो तुम शरीर में होते हुए भी शरीर में नहीं होगे। तुम पहले की तरह ही जीए जा सकते हो; लेकिन अब तुम फिर कभी वही नहीं हो सकते हो।

इस विधि में कम से कम तीन महीने लगेंगे। इसे करते रहो; यह एक दिन में नहीं होगी। लेकिन यदि तुम प्रतिदिन इसे एक घंटा देते हो तो तीन महीने के भीतर किसी दिन अचानक तुम्‍हारी कल्‍पना सफल होगी। और एक अंतराल निर्मित हो जाएगा। और तुम सचमुच देखोगें कि तुम्‍हारा शरीर राख हो रहा है। तब तुम उसका निरीक्षण कर सकते हो। और उस निरीक्षण में एक गहन तथ्‍य को बोध होगा। कि अहंकार असत्‍य है, झूठ है; उसकी कोई सत्‍ता नहीं है। अहंकार था; क्‍योंकि तुम शरीर से विचारों से मन से तादात्‍म्‍य किए बैठे थे। तुम उनमें से कुछ भी नहीं हो—न मन, न विचार, न शरीर। तुम उस सब से भिन्‍न हो जो तुम्‍हें घेर हुए है। तुम अपनी परिधि से सर्वथा भिन्‍न हो।

तो उपर से यह विधि सरल मालूम पड़ती है। लेकिन यह तुम्‍हारे भीतर गहन रूपांतरण ला सकती है। लेकिन पहले मरघट में जाकर ध्‍यान करो, जो लोगों को जलाया जाता है। देखो कि कैसे शरीर जलता है। कैसे शरीर फिर मिट्टी हो जाता है। ताकि तुम फिर आसानी से कल्‍पना कर सको। और जब अँगूठों से आरंभ करो और बहुत धीरे-धीरे उपर बढ़ो।

और इस विधि में उतरने के पहले श्‍वास छोड़ने पर ज्‍यादा ध्‍यान दो। इस विधि को करने के ठीक पहले पंद्रह मिनट तक श्‍वास छोड़ो और आंखे बंद कर लो, फिर शरीर को श्‍वास लेने दो और आंखें खोल दो। पंद्रह मिनट तक गहन विश्राम में रहो। और फिर विधि में प्रवेश करो।

अग्‍नि संबंधि दूसरी विधि:

८०…
‘यह काल्‍पनिक जगत जलकर राख हो रहा है, यह भाव करो; और मनुष्‍य से श्रेष्‍ठतर प्राणी बनो।’
MEDITATE ON THE MAKE-BELIEVE WORLD AS BURNING TO ASHES, AND BECOME BEING ABOVE HUMAN.

अगर तुम पहली विधि कर सके तो यह दूसरी विधि बहुत सरल हो जाएगी। अगर तुम भाव कर सके कि तुम्‍हारा शरीर जल रहा है तो यह भाव करना कठिन नहीं होगा कि सारा जगत जल रहा है। क्‍योंकि तुम्‍हारा शरीर जगत का हिस्‍सा है। और तुम अपने शरीर के द्वारा ही जगत को जानते हो। उस से जुड़े हो। सच तो यह है कि अपने शरीर के कारण ही तुम इस जगत से जूड़े हो। जगत तुम्‍हारे शरीर का फैलाव है। अगर तुम अपने शरीर के जलने की कल्‍पना कर सकते हो तो जगत के जलने की कल्‍पना करना कठिन नहीं है।

और सूत्र कहता है कि यह जगत काल्‍पनिक है; वह है, क्‍योंकि तुमने उसे माना हुआ है। और यह सारा जगत जल रहा है, विलीन हो रहा है।
लेकिन अगर तुम्‍हें लगे कि पहली विधि कठिन है तो तुम दूसरी विधि से भी आरंभ कर सकते हो। पर पहली को साध लने से दूसरी बहुत आसान हो जाती है। और असल में अगर कोई पहली विधि को साध लेने से दूसरी विधि की जरूरत ही नहीं रहती। तुम्‍हारे शरीर के साथ सब कुछ अपने आप ही विलीन हो जाता है। लेकिन यदि पहली विधि कठिन लगे तो तुम दूसरी विधि में सीधे भी उतर सकते हो।

मैंने कहा कि अँगूठों से आरंभ करो, क्‍योंकि वे सिर से, अहंकार से बहुत दूर है। लेकिन हो सकता है कि तुम्‍हें अँगूठों से आरंभ करने की बात भी न जमे। तो और दूर निकल जाओ—संसार से शुरू करो। और तब अपनी तरफ आओ; संसार से शुरू करो। और अपने निकट आओ। और जब सारा जगत जल रहा हो तो तुम्‍हारे लिए उस पूरे जलते जगत में जलना आसान होगा।

दूसरी विधि: ‘यह काल्‍पनिक जगत जलकर राख हो रहा है। यह भाव करो;और मनुष्य से श्रेष्‍ठतर प्राणी बनो।’

अगर तुम सारे संसार को जलता हुआ देख सके तो तुम मनुष्‍य के ऊपर उठ गए, तुम अतिमान हो गए। तब तुम अति मानवीय चेतना को जान गए।

तुम यह कल्‍पना कर सकते हो; लेकिन कल्‍पना का प्रशिक्षण जरूरी है। हमारी कल्‍पना बहुत प्रगाढ़ नहीं है। यह कमजोर है, क्‍योंकि कल्‍पना के प्रशिक्षण की व्‍यवस्‍था ही नहीं है। बुद्धि प्रशिक्षित है; उसके लिए विद्यालय है और महाविद्यालय है। बुद्धि के प्रशिक्षण में जीवन का बड़ा हिस्‍सा खर्च हो जाता है। लेकिन कल्‍पना का कोई प्रशिक्षण नहीं होता है। और कल्‍पना का अपना ही जगत है। बहुत अद्भुत जगत है। यदि तुम अपनी कल्‍पना को प्रशिक्षित कर सको तो चमत्‍कार घटित हो सकते है।

छोटी-छोटी चीजों से शुरू करो। क्‍योंकि बड़ी चीजों में कूदना कठिन है। और संभव है तुम्‍हें उनमें असफलता हाथ लगे। उदाहरण के लिए, यह कल्‍पना कि सारा संसार जल रहा है, जरा कठिन है। यह भाव बहुत गहरा नहीं जा सकता है।

पहली बात कि तुम जानते हो कि यह कल्‍पना है। और यदि कल्‍पना में तुम सोचो भी कि चारों और लपटें ही लपटें है तो भी तुम्‍हें लगेगा कि संसार जला नहीं है। वह अभी भी है। क्‍योंकि यह केवल तुम्‍हारी कल्‍पना है। और तुम नहीं जानते हो कि कल्‍पना कैसे यर्थाथ बनती है। तुम्‍हें पहले उसे महसूस करना होगा।

इस विधि में उतरने के पहले एक सरल प्रयोग करो। अपने दोनों हाथों को एक दूसरे में गूँथ लो, आंखें बंद कर लो। और भाव करो कि अब वे ऐसे गूँथ गए है कि खुल नहीं सकते। और उन्‍हें खोलने के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता।

शुरू-शुरू में तुम्‍हें लगेगा कि तुम केवल कल्‍पना कर रहे हो। और तुम उन्‍हें खोल सकते हो। लेकिन तुम सतत दस मिनट तक भाव करते रहो कि मैं उन्‍हें नहीं खोल सकता। मैं उन्‍हें खोलने के लिए कुछ नहीं कर सकता। मेरे हाथ खुल ही नहीं सकते। और फिर दस मिनट के बाद उन्‍हें खोलने कि कोशिश करो।

दस में से चार व्‍यक्‍ति तुरंत सफल हो जाएंगे। चालीस प्रतिशत लोग तुरंत कामयाब हो जाएंगे—दस मिनट के बाद वे अपने हाथ नहीं खोल सकते। कल्‍पना यथार्थ हो गई। वे जितना ही संघर्ष करेंगे। वे हाथ खोलने के लिए जितनी ताकत लगाएंगे उतना ही हाथों का खुलना कठिन होता जाएगा। तुम्‍हें पसीना आने लगेगा। तुम्‍हारे ही हाथ है। और तुम देख रहे हो कि वे बंध गए है और तुम उन्‍हें नहीं खोल सकत।
लेकिन भयभीत मत होओ। फिर आंखें बंद कर लो और फिर भाव करो कि मैं उन्‍हें खोल रहा हूं। खोल सकता हूं। और तुम उसे खोल सकते हो। चालीस प्रतिशत लोग तुरंत खोल लेंगे।

ये चालीस प्रतिशत लोग इस विधि में आसानी से उतर सकते है। उनके लिए कोई कठिनाई नहीं है। बाकी साठ प्रतिशत के लिए यह विधि कठिन पड़ेगी; उन्‍हें समय लगेगा। जो लोग बहुत भाव प्रवण है वे कुछ भी कल्‍पना कर सकते है। और वह घटित होगा। और एक बार उन्‍हें यह प्रतीति हो जाए कि कल्‍पना यथार्थ हो सकती है। कि भाव वास्‍तविक बन सकता है। तो उन्‍हें आश्‍वासन मिल गया। और वे आगे बढ़ सकते है। तब तुम अपने भाव के द्वारा बहुत कुछ कर सकते हो।

तुम अभी भी भाव से बहुत कुछ करते हो, लेकिन तुम्‍हें पता नहीं होता। तुम अभी भी करते हो, लेकिन तुम्‍हें उसका बोध नहीं है। शहर में कोई नया रोग फैलता है, फ्रैंच फ्लू फैलता है, और तुम उसके शिकार हो जाते हो। तुम कभी सोच भी नहीं सकते कि सौ में से सत्‍तर लोग सिर्फ कल्‍पना के कारण बीमार हो जाते है। चूंकि शहर में रोग फैला है। तुम कल्‍पना करने लगते हो कि मैं भी इसका शिकार होने वाला हूं—और तुम शिकार हो जाओगे। तुम सिर्फ अपनी कल्‍पना से अनेक रोग पकड़ लेते हो। तुम सिर्फ अपनी कल्‍पना से अनेक समस्‍याएं निर्मित कर लेते हो।

तो तुम समस्‍याओं को हल भी कर सकते हो। यदि तुम्‍हें पता हो कि तुमने ही उन्‍हें निर्मित किया है। अपनी कल्‍पना को थोड़ा बढ़ाओं और तब यह विधि बहुत उपयोगी होगी।

अग्‍नि संबंधि तीसरी विधि:

८१…
‘जैसे विषयीगत रूप से अक्षर शब्‍दों में और शब्‍द वाक्‍यों में जाकर मिलते है और विषयगत रूप से वर्तुल चक्रों में और चक्र मूल-तत्‍व में जाकर मिलते है, वैसे ही अंतत: इन्‍हें भी हमारे अस्‍तित्‍व में आकर मिलते हुए पाओ।’
AS, SUBJECTIVELY, LETTER FLOW INTO WORDS AND WORDS INTO SENTENCES, AND AS, OBJECTIVELY, CIRCLES FLOW INTO WORLDS AND WORLDS INTO PRINCIPLES, FIND AT LAST THESE CONVERGING IN OUR BEING.

यह भी एक कल्‍पना की विधि है।

अहंकार सदा भयभीत है। वह संवेदनशील होने से, खुला होने से डरता है। वह डरता है कि कोई चीज भीतर प्रवेश करके उसे नष्‍ट कर न दे। इसलिए अहंकार अपने चारों और एक किला बंदी करता है। और तुम एक कारागृह में रहने लगते हो। तुम अपने अंदर किसी को भी प्रवेश नहीं देते हो। तुम डरते हो कि यदि कोई चीज भीतर आ गई तो झंझट खड़ा कर देगी। तो बेहतर है कि किसी को आने ही मत दो। तब सारा संवाद बंद हो जाता है; उनके साथ भी संवाद बंद हो जाता है। जिन्‍हें तुम प्रेम करते हो। या सोचते हो कि तुम प्रेम करते हो।

किन्‍हीं पति-पत्‍नी को बा करते हुए देखा; वे एक दूसरे से बात नहीं कर रहे है। उनके बीच कोई संवाद नहीं है। बल्‍कि वे शब्‍दों के द्वारा एक दूसरे से बच रहे है। वे बात कर रहे है ताकि एक दूसरे से बचा जाए। मौन में वे एक दूसरे के प्रति खुल जाएंगे। मौन में वे एक दूसरे के समीप आ जायेंगे। क्‍योंकि मौन में कोई दीवार नहीं रहती है। कोई अहंकार नही रहता हे। इसलिए पति पत्‍नी कभी चुप नहीं रहते, वे समय काटने के लिए किसी ने किसी चीज की चर्चा करते रहेगें। अन्‍यथा डर है कि कहीं एक दूसरे के प्रति संवेदनशील न हो जाएं। खुल न जाएं। हम एक दूसरे से इतने भयभीत है।

मैंने सुना है कि एक दिन मुल्‍ला नसरूदीन घर से बाहर निकल रहा था कि उसकी पत्‍नी ने कहा: ‘नसरूदीन क्‍या तुम भूल गये कि आज कौन सा दिन है?’ नसरूदीन को पता था, यह विवाह की पच्‍चीसवीं वर्षगांठ का दिन था। तो उसने कहा, ‘मुझे याद है, बखूबी याद है।‘ पत्‍नी ने फिर पूछा: ‘तो हम लोग इस दिन को किस तरह मनाने जा रहे है?’ नसरूदीन ने कहा: ‘प्रिये मुझे नहीं मालूम।’ और फिर उसने सिर खुजलाते हुए हैरानी के स्‍वर में कहा: ‘कितना अच्‍छा होगा कि हम इस उपलक्ष्‍य में दो मिनट मौन रहें।’

तुम किसी के साथ मौन नहीं रह सकते: तुम बेचैन होने लगते हो। मौन में दूसरा तुम्‍हें प्रवेश करने लगता है। मौन में तुम खुले होते हो; तुम्‍हारे द्वार दरवाजे खुल होते है। तुम्‍हारी खिड़कियाँ खुली होती है। तुम डरते हो। तो तुम बातचीत करते हो, बंद रहने के उपाय करते हो। अहंकार कवच है, अहंकार कारागृह है। और हम इतने असुरक्षित अनुभव करते है। कि हमें कारागृह भी स्‍वीकार है। कारागृह थोड़ी सुरक्षा का भाव देता है; तुम सुरक्षित अनुभव करते हो।

इस विधि का, इस तीसरी विधि का प्रयोग करने के लिए पहली और सब से बुनियादी बात है कि भली भांति जान लो कि जीवन एक असुरक्षा है। उसे सुरक्षित बनाने का कोई उपाय नहीं है। तुम जो भी करोगे, उससे कुछ होने वाला नहीं है। तुम सिर्फ सुरक्षा का भ्रम पैदा कर सकते हो; जीवन असुरक्षित ही रहता है। असुरक्षा ही उसका स्‍वभाव है; क्‍योंकि मृत्‍यु उसमें अंतर्निहित है, साथ-साथ जुड़ी है। जीवन सुरक्षित कैसे हो सकता है?

एक क्षण के लिए सोचो, अगर जीवन पूरी तरह सुरक्षित हो तो वह मृत ही होगा। सर्वथा सुरक्षित जीवन, समग्ररतः: सुरक्षित जीवन जीवंत नहीं हो सकता। क्‍योंकि उसमें चुनौती की पुलक नहीं रहेगी। अगर तुम सभी खतरों से सुरक्षित हो जाओगे तो तुम मुर्दा हो जाओगे। जीवन के होने में ही जोखिम है, खतरा है, असुरक्षा है, चुनौती है। उसमें मौत सम्‍मिलित है।

मैं तुम्‍हें प्रेम करता हूं। अब मैं खतरनाक रास्‍ते पर कदम रखा है। अब कुछ भी सुरक्षित नहीं हो सकता। लेकिन अब मैं कल के लिए सब कुछ सुरक्षित करने की चेष्‍टा करूंगा। कल के लिए मैं उस सब की हत्‍या करूंगा जो जीवित है। क्‍योंकि तभी में कल के लिए सुरक्षित अनुभव करूंगा। तो प्रेम विवाह में बदल जाता है।

विवाह सुरक्षा है। प्रेम असुरक्षित है—अगले क्षण सब कुछ बदल सकता है। और तुमने कितनी-कितनी आशाएं बांधी है। और अगले क्षण प्रेमिका तुम्‍हें छोड़कर चली जा सकती है। या मित्र तुम्‍हें छोड़ कर जा सकता है। तुम अपने को अचानक अकेला पाते हो। प्रेम असुरक्षित है। तुम भविष्‍य के संबंध में आश्‍वस्‍त नहीं हो सकते; कोई भविष्‍यवाणी नहीं हो सकती है।

तो हम प्रेम की हत्‍या कर देते है। और उसकी जगह एक सुरक्षित परिपूरक खोज लेते है। उसका नाम विवाह है। विवाह के साथ तुम सुरक्षित हो सकते हो, उसकी भविष्‍यवाणी की जा सकती है। तुम्‍हारी पत्‍नी कल भी तुम्‍हारी पत्‍नी रहेगी। तुम्‍हारा पति भविष्‍य में भी तुम्‍हारा पति रहेगा। लेकिन क्‍योंकि तुमने सब सुरक्षा कर ली, अब कोई खतरा नहीं है। प्रेम मर गया। वह नाजुक संबंध मर गया। क्‍योंकि मृत चीजें ही स्‍थाई हो सकती है। जीवित चीजें बदलेगी ही, वे बदलने का बाध्‍य है। बदलाहट जीवन का गुण है; और बदलाहट में असुरक्षा है।

तो जो भी जीवन की गहराइयों में उतना चाहते है उन्‍हें असुरक्षित रहने के लिए तैयार रहना चाहिए; उन्‍हें खतरे में जीने के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्‍हें अज्ञात में जीने के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्‍हें किसी भी तरह भविष्‍य को बांधने की सुरक्षित करने की चेष्‍टा नहीं करनी चाहिए। यह चेष्‍टा ही सब चीजों की हत्‍या कर देती है।

और यह भी स्‍मरण रहे, असुरक्षा जीवंत ही नहीं है, सुंदर भी है। सुरक्षा कुरूप और गंदी है। असुरक्षा जीवंत और सुंदर है। तुम तभी सुरक्षित हो सकते हो, यदि तुम अपने सभी द्वार दरवाजे , सभी खिड़कियाँ, सब झरोखे बंद कर लो। न हवा को अंदर आने दो और न रोशनी को, कुछ भी अंदर मत आने दो। तब किसी तरह तुम सुरक्षित हो जाते हो। लेकिन तब तुम जीवित नहीं हो, तुम अपनी कब्र में प्रवेश कर गए।

यह विधि तभी संभव है जब तुम खुले हुए हो, ग्रहणशील हो, भयभीत नहीं हो। क्‍योंकि यह विधि पूरे ब्रह्मांड को अपने में प्रवेश देने की विधि है।

‘’जैसे विषयीगत रूप से अक्षर शब्‍दों में और शब्‍द वाक्‍यों में जाकर मिलते है और विषयगत रूप में वर्तुल चक्रों में और चक्र मूल तत्‍व में जाकर मिलते है, वैसे ही अंतत: इन्‍हें भी हमारे आस्‍तित्‍व में आकर मिलते हुए पाओ।‘’

प्रत्‍येक चीज मेरे अस्‍तित्‍व में आकर मिल रही है। मैं खुले आकाश के नीचे खड़ा हूं और सभी दिशाओं से, सभी कोने-कातर से सारा आस्‍तित्‍व मुझमें मिलने चला आ रहा है। इस हालत में तुम्‍हारा अहंकार नहीं रह सकता। इस खुलेपन में जहां समस्‍त अस्‍तित्‍व तुममें मिल रहा है, तुम ‘मैं’ की भांति नहीं रह सकते हो। तुम खुले आकाश की भांति तो रहोगे, लेकिन एक जगह केंद्रित ‘मैं’ की भांति नहीं।

इस विधि को छोटे-छोटे प्रयोगों से शुरू करो। किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ। हवा बह रही है। और वृक्ष के पत्‍तों से सरसराहट की आवाज हो रही है। हवा तुम्‍हें छूती है, तुम्‍हारे चारों और डोलती है। तुम्‍हें छू कर गूजर रही है, लेकिन तुम उसे ऐसे मत गुजरने दो। उसे अपने भीतर प्रवेश करने दो और अपने में होकर गुजरने दो। आंखें बंद कर लो। और जैसे हवा वृक्ष से होकर गुज़रे और पत्‍तों में सरसराहट हो, तुम भाव करो कि मैं भी वृक्ष के समान खुला हुआ हूं। और हवा मुझमें से होकर गुजर रही है। मेरे आस-पास से नहीं, ठीक मेरे भीतर से होकर वह बह रही है। वृक्ष की सरसराहट तुम्‍हें अपने भीतर अनुभव होगी और तुम्‍हें लगेगा कि मेरे शरीर के रंध्र-रंध्र से हवा गुजर रही है।

और हवा वस्‍तुत: तुमसे होकर गुजर रही है। यह कल्‍पना ही नहीं है, यह तथ्‍य है। तुम भूल गये हो। तुम नाक से ही श्‍वास नहीं लेते,तुम्‍हारा पूरा शरीर श्‍वास लेता है। एक-एक रंध्र से श्‍वास लेता है। लाखों छिद्रों से श्‍वास लेता है। अगर तुम्‍हारे शरीर के सभी छिद्र बंद कर दिये जाये,उन पर रंग पोत दिया जाये और तुम सिर्फ नाक से श्वास लेने दिया जाए तो तुम तीन घंटे के अंदर मर जाओगे। सिर्फ नाक से श्‍वास लेकर तुम जीवित नहीं रह सकते। तुम्‍हारे शरीर का प्रत्‍येक कोष्‍ठ जीवंत है और प्रत्‍येक कोष्‍ठ श्‍वास लेता है। हवा सच में तुम्‍हारे शरीर से होकर गुजरती है, लेकिन उसके साथ तुम्‍हारा संपर्क नहीं रहा है।

तो किसी झाड़ के नीचे बैठो और अनुभव करो। आरंभ में यह कल्‍पना मालूम पड़ेगी। लेकिन जल्‍दी ही कल्‍पना यथार्थ बन जाएगी। वह यथार्थ ही है कि हवा तुमसे होकर गुजर रही है। और फिर उगते हुए सूरज के नीचे बैठो और अनुभव करो कि सूरज की किरणें न केवल मुझे छू रही है। बल्‍कि मुझमें प्रवेश कर रही है। और मुझसे होकर गुजर रही है। इस तरह तुम खुल जाओगे, ग्रहणशील हो जाओगे।

और यह प्रयोग किसी भी चीज के साथ किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, मैं यहां बोल रहा हूं,और तुम सुन रहे हो। तुम मात्र कानों से भी सून सकते हो और अपने पूरे शरीर से भी सून सकते हो। तुम अभी और यहीं यह प्रयोग कर सकते हो। सिर्फ थोड़ी सी बदलाहट की बात है। और अब तुम मुझे कानों से ही नहीं सुन रहे हो, तुम मुझे अपने पूरे शरीर से सून रहे हो। तुम्‍हारा कोई अंश नहीं सुनता है, तुम्‍हारी ऊर्जा का कोई एक खंड नहीं सुनता है; पूरे के पूरे सुनते हो। तुम्‍हारा समूचा शरीर सुनने में संलग्न होता है। और तब मेरे शब्‍द तुमसे होकर गुजरते है; अपने प्रत्‍येक कोष्‍ठ से, प्रत्‍येक रंध्र से, प्रत्‍येक छिद्र से तुम उन्‍हें पीते हो। वे सभी और से तुममें समाहित होते है।

तुम एक और प्रयोग कर सकते हो: जाओ और किसी मंदिर में बैठ जाओ। अनेक भक्‍त आएँगे जाएंगे ओर मंदिर का घंटा बार-बार बजेगा। तुम अपने पूरे शरीर से उसे सुनो। घंटा बज रहा है और पूरा मंदिर उसकी ध्‍वनि से गूंज रहा है। मंदिर की प्रत्‍येक दीवार उसे प्रतिध्‍वनित कर रही है। उसे तुम्‍हारी ओर वापित फेंक रही है।

इस लिए हमनें मंदिर को गोलाकार बनाया है। ताकि आवाज हर तरफ से प्रतिध्‍वनित हो और तुम्‍हें अनुभव हो कि हर तरफ से ध्‍वनि तुम्‍हारी और आ रही है। सब तरफ से ध्‍वनि लौटा दी जाती है। सब तरफ से ध्‍वनि तुममें आकर मिलती है। और तुम उसे अपने पूरे शरीर से सुन सकते हो। तुम्‍हारी प्रत्‍येक कोशिका, प्रत्‍येक रंध्र उसे सुनता है। उसे पीता है। अपने में समाहित करता है। ध्‍वनि तुम्‍हारे भीतर होकर गुजरती है। तुम रंध्र मय हो गए हो। सब तरफ द्वार ही द्वार है। अब तुम किसी चीज के लिए बाधा न रहे हो। अवरोध न रहे—न हवा के लिए,न ध्‍वनि के लिए—न किरण के लिए, किसी के लिए भी नहीं। अब तुम किसी भी चीज का प्रतिरोध नहीं करते हो। अब तुम दीवार न रहे।

और जैसे ही तुम्‍हें अनुभव होता है कि तुम अब प्रतिरोध नहीं करते,संघर्ष नहीं करते। वैसे ही अचानक तुम्‍हें बोध होता है कि अहंकार भी नहीं है। क्‍योंकि अहंकार तो तभी है जब तुम संघर्ष करते हो। अहंकार प्रतिरोध है। जब-जब तुम कहते हो, ‘नहीं’ अहंकार खड़ा हो जाता है। जब-जब तुम कहते हो ‘हां’ अहंकार विदा हो जाता है।

मैं उस व्‍यक्‍ति को आस्‍तिक कहता हूं,सच्‍चा आस्‍तिक जिसने अस्‍तित्‍व को हाँ कहां है। उसमें कोई ‘नहीं’ नहीं रहा, कोई प्रतिरोध नही रहा। उसे सब स्‍वीकार है; वह सब कुछ को घटित होने देता है। अगर मृत्‍यु भी आती है तो वह अपना द्वार बंद नहीं करेगा। उसके द्वार मृत्‍यु के लिए भी खुले रहेंगे।

इस खुलेपन को लाना है; तो ही तुम यह विधि साध सकते हो। क्‍योंकि यह विधि कहती है कि सारा अस्‍तित्‍व तुममें बहा आ रहा है। तुममें आकर मिल रहा है। तुम समस्‍त अस्‍तित्‍व के संगम हो, तुम्‍हारी तरफ से विरोध नहीं स्‍वागत है; तुम उसे अपने में मिलने देते हो। इस मिलन में तुम तो विलीन हो जाओगे, तुम तो शुन्‍य आकाश हो जाओगे—असीम आकाश। क्‍योंकि यह विराट ब्रह्मांड अहंकार जैसी क्षुद्र चीज में नहीं उतर सकता। वह तो तभी उतर सकता है जब तुम भी उसके जैसे ही असीम हो गए हो। जब तुम स्‍वयं विराट आकाश हो गए हो। लेकिन यह होता है। धीरे-धीरे तुम्‍हें ज्‍यादा से ज्‍यादा संवेदनशील होना है और तुम्‍हें अपने प्रतिरोधों के प्रति बोधपूर्ण होना है।

हम बहुत प्रतिरोध से भरे है। अगर मैं अभी तुम्‍हें स्‍पर्श करूं तो तुम महसूस करोगे कि तुम मेरे स्‍पर्श का प्रतिरोध कर रहे हो। तुम एक बाधा खड़ी कर रहे हो। ताकि मेरी ऊष्‍मा तुममें प्रविष्‍ट न हो सके। मेरा स्‍पर्श तुममें प्रविष्‍ट न हो सके। हम एक दूसरे को छूने को इजाजत भी नहीं देते। अगर कोई तुम्‍हें जरा सा भी छू देता है तो तुम सजग हो जाते हो और दूसरा कहता है: ‘क्षमा करें।’

हर जगह प्रतिरोध है। अगर मैं तुम्‍हें गौर से देखता हूं तो तुम प्रतिरोध करते हो; क्‍योंकि मेरा देखना तुममें प्रवेश कर सकता है, तुममें उतर सकता है, तुम्‍हें उद्वेलित कर सकता है। तब तुम क्‍या करोगे?

और ऐसा अजनबी व्यक्ति के साथ ही नहीं होता है। वैसे तो अजनबी व्‍यक्‍ति के साथ अजनबी है। एक ही छत के नीचे रहने से अजनबी नहीं है। या कहें कि हर कोई अजनबी है। एक ही छत के नीचे रहने से अजनबीपन कैसे मिट सकता है। क्‍या तुम अपने पिता को जानते हो जिन्‍होंने तुम्‍हें जन्‍म दिया है? वह भी अजनबी है। तो या तो हर कोई अजनबी है या कोई भी अजनबी नहीं है। लेकिन हम डरे हुए है। और हम सब जगह अवरोध निर्मित करते है। और ये अवरोध हमें असंवेदनशील बना देता है। और तब कुछ भी हममें प्रवेश नहीं कर सकता है।

लोग मेरे पास आते है और वे कहते है: ‘कोई प्रेम नही करता, कोई मुझे प्रेम नहीं करता है।’ और मैं उस व्‍यक्‍ति को छूता हूं और महसूस करता हूं कि वह स्‍पर्श से भी डर जाता है। एक सूक्ष्‍म खिंचाव है, मैं उसका हाथ अपने हाथ में लेता हूं और वह अपने को सिकोड़ लेता है। वह अपने हाथ में मौजूद ही नहीं है। मेरे हाथ में उसका मुर्दा हाथ है। वह तो पीछे हट चुका है। और वह कहता है कि ‘कोई मुझे प्रेम नहीं करता है।’

कोई तुम्‍हें प्रेम कैसे कर सकता है। और अगर सारा संसार भी तुम्‍हें प्रेम करे तो भी तुम उसे अनुभव नहीं करोगे। क्‍योंकि तुम बंद हो। प्रेम तुममें प्रवेश नहीं कर सकता है। कोई द्वार-दरवाजा नहीं है। और तुम अपने ही कारागृह में बंद होकर दुःख पा रहे हो।

अगर अहंकार है तो तुम बंद हो—प्रेम के प्रति, ध्‍यान के प्रति, परमात्‍मा के प्रति। इसलिए पहले तो ज्‍यादा संवेदनशील,ज्‍यादा ग्राहक, ज्‍यादा खुले होने की चेष्‍टा करो; जो तुम्‍हें होता है उसे होने दो। तो ही भगवता घटित हो सकती है। क्‍योंकि वह अंतिम घटना है। अगर तुम साधारण चीजों को ही अपने में प्रवेश नहीं दे सकते हो तो परम तत्‍व को कैसे प्रवेश दोगे? क्‍योंकि जब तुम्‍हें परम घटित होगा तब तो तुम बिलकुल नही रहोगे; तुम बिलकुल खो जाओगे।

कबीर ने कहा है: ‘जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं।’ खोजने वाला कबीर अब नहीं रहा? वह तो रहा नहीं। कबीर आश्‍चर्य से पूछते है: ‘ये कैसा मिलन है? जब मैं था तो परमात्‍मा नहीं था और अब जब परमात्‍मा है तो मैं नहीं हूं।’

लेकिन वस्‍तुत: यही मिलन-मिलन है। क्‍योंकि दो नहीं मिल सकते। सामान्‍यत: हम सोचते है कि मिलन के लिए दो की जरूरत है। अगर एक ही है तो मिलन कैसे होगा। सामान्‍य तर्क कहता है कि मिलन के लिए दो जरूरी है। मिलन के लिए दूसरा जरूरी है। लेकिन सच्‍चे मिलन के लिए, उस मिलन के लिए जिसे हम समाधि कहते है, एक ही होना चाहिए। जब साधक है तो साध्‍य नहीं है। और जब साध्‍य आता है तो साधक विलीन हो जाता है।
ऐसा क्‍या होता है?

क्‍योंकि अहंकार बाधा है। जब तुम्‍हें लगता है कि मैं हूं तो तुम इतने मौजूद होते हो कि तुममें कुछ भी प्रवेश नही कर सकता। तुम अपने से ही इतने भरे होते हो। जब तुम नहीं होते हो तो सब कुछ तुमसे होकर गुजर सकता है। तुम इतने विराट हो गए होते हो कि परमात्‍मा भी तुमसे होकर गुजर सकता है। अब पूरा अस्‍तित्‍व तुमसे होकर गुजरने को तैयार है; क्‍योंकि तुम तैयार हो।

धर्म की सारी कला इसमें है कि कैसे स्‍वयं को खोया जाए कैसे विलीन हुआ जाए। कैसे समर्पित हुआ जाए,कैसे शुन्‍य आकाश हुआ जाए।