Techniques to become one with the whole:
८८…
‘प्रत्येक वस्तु ज्ञान के द्वारा ही देखी जाती है।
ज्ञान के द्वारा ही आत्मा क्षेत्र में प्रकाशित होती है।
उस एक को ज्ञाता और ज्ञेय की भांति देखो।’
EACH THING IS PERCEIVED THROUGH KNOWING.
THE SELF SHINES IN SPACE THROUGH KNOWING.
PERCEIVE ONE BEING AS KNOWER AND KNOWN.८९…
‘हे प्रिये, इस क्षण में मन, ज्ञान, प्राण, रूप, सब को समाविष्ट होने दो।’
BELOVED, AT THIS MOMENT LET MIND, KNOWING, BREATH, FORM, BE INCLUDED.
पहली विधि:
८८…
‘प्रत्येक वस्तु ज्ञान के द्वारा ही देखी जाती है।
ज्ञान के द्वारा ही आत्मा क्षेत्र में प्रकाशित होती है।
उस एक को ज्ञाता और ज्ञेय की भांति देखो।’
EACH THING IS PERCEIVED THROUGH KNOWING.
THE SELF SHINES IN SPACE THROUGH KNOWING.
PERCEIVE ONE BEING AS KNOWER AND KNOWN.
जब भी तुम कुछ जानते हो, तुम उसे ज्ञान के द्वारा, जानने के द्वारा जानते हो। ज्ञान की क्षमता के द्वारा ही कोई विषय तुम्हारे मन में पहुंचता है। तुम एक फूल को देखते हो; तुम जानते हो कि यह गुलाब का फूल है। गुलाब का फूल बाहर है और तुम भीतर हो। तुमसे कोई चीज गुलाब तक पहुँचती है। तुमसे कोई चीज फूल तक आती है। तुम्हारे भीतर से कोई उर्जा गति करती है। गुलाब तक आती है, उसका रूप रंग और गंध ग्रहण करती है और लौट कर तुम्हें खबर देती है कि यह गुलाब का फूल है। सब ज्ञान, तुम जो भी जानते हो, जानने की क्षमता के द्वारा तुम पर प्रकट होता है। जानना तुम्हारी क्षमता है; सारा ज्ञान इसी क्षमता के द्वारा अर्जित किया जाता है।
लेकिन यह जानना दो चीजों को प्रकट करता है—ज्ञात को और ज्ञाता को। जब भी तुम गुलाब के फूल को जानते हो, तब अगर तुम ज्ञाता को, जो जानता है उसको भूल जाते हो। तो तुम्हारा ज्ञान आधा ही है। तो गुलाब को जानने में तीन चीजें घटित हुई: ज्ञेय यानी गुलाब, ज्ञाता यानी तुम और दोनों के बीच का संबंध यानी ज्ञान।
तो जानने की घटना को तीन बिंदुओं में बांटा जा सकता है। ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान। ज्ञान दो बिंदुओं के बीच, ज्ञाता और ज्ञेय के बीच सेतु की भांति है। सामान्यत: तुम्हारा ज्ञान सिर्फ ज्ञेय को, विषय को प्रकट करता है। और ज्ञाता जानने वाला अप्रकट रह जाता है। सामान्यत: तुम्हारे ज्ञान में एक ही तीर होता है। वह तीर गुलाब की तरफ तो जाता है। लेकिन वह कभी तुम्हारी तरफ नहीं जाता। और जब तक वह तीर तुम्हारी तरफ भी न जाने लगे तब तक ज्ञान तुम्हें संसार के संबंध में तो जानने देगा। लेकिन वह तुम्हें स्वयं को नहीं जानने देगा।
ध्यान की सभी विधियां जानने वाले को प्रकट करने की विधियां है। जार्ज गुरजिएफ इसी तरह की एक विधि का प्रयोग करता था। वह इसे आत्म-स्मरण करता था। उसने कहा है कि जब तुम किसी चीज को जान रहे हो तो सदा जानने वाले को भी जानो। उसे विषय में मत भुला दो; जानने वाले को भी स्मरण रखो।
अभी तुम मुझे सुन रहे हो। जब तुम मुझे सुन रहे हो तो तुम दो ढंगों से सुन सकते हो। एक कि तुम्हारा मन सिर्फ मुझ पर केंद्रित हो। तब तुम सुनने वाले को भूल जाते हो। तब बोलने वाला तो जाना जाता है, लेकिन सुनने वाला भुला दिया जाता है। गुरजिएफ कहता था कि सुनते हुए बोलने वाले के साथ-साथ सुनने वाले को भी जानों।
तुम्हारे ज्ञान को द्विमुखी होना चाहिए। वह एक साथ दो बिंदुओं की ओर, ज्ञाता और ज्ञेय दोनों की और प्रवाहित हो। उसे एक ही दिशा में सिर्फ विषय की दिशा में नहीं बहना चाहिए। उसे एक साथ दो दिशाओं में, ज्ञेय और ज्ञाता की तरफ प्रवाहित होना चाहिए। इसे ही आत्मा–स्मरण कहते है। फूल को देखते हुए उसे भी स्मरण रखो जो देख रहा है।
यह कठिन है। क्योंकि अगर तुम प्रयोग करोगे, अगर देखने वाले को स्मरण रखने की चेष्टा करोगे तो तुम गुलाब को भूल जाओगे। तुम एक ही दिशा में देखने के ऐसे आदी हो गए हो कि साथ-साथ दूसरी दिशा को भी देखने में थोड़ा समय लगाता है। अगर तुम ज्ञाता के प्रति सजग होते हो तो ज्ञेय विस्मृत हो जाएगा। और अगर तुम ज्ञेय के प्रति सजग होते हो तो ज्ञाता विस्मृत हो जाएगा। लेकिन थोड़े प्रयेत्न से तुम धीरे-धीरे दोनों के प्रति सजग होने में समर्थ हो जाओगे।
इसे ही गुरजिएफ आत्म-स्मरण कहता है। यह एक बहुत प्राचीन विधि है। बुद्ध ने इसका खूब उपयोग किया था। फिर गुरजिएफ इस विधि को पश्चिमी जगत में लाया। बुद्ध इसे सम्यक स्मृति कहते थे। बुद्ध ने कहा कि तुम्हारा मन सम्यक रूपेण स्मृतिवान नहीं है। अगर वह एक ही बिंदु को जानता है। उसे दोनों बिंदुओं को जानना चाहिए।
और तब एक चमत्कार घटित होता है। अगर तुम ज्ञेय और ज्ञाता दोनों के प्रति बोधपूर्ण हो तो अचानक तुम तीसरे हो जाते हो। तुम दोनों से अलग तीसरे हो जाते हो। ज्ञेय और ज्ञाता दोनों को जानने के प्रयत्न में तुम तीसरे हो जाते हो। साक्षी हो जाते हो। तत्क्षण एक तीसरी संभावना प्रकट होती है—साक्षी आत्मा का जन्म होता है। क्योंकि तुम साक्षी हुए बिना दोनों को कैसे जान सकते हो? अगर तुम ज्ञाता हो तो तुम एक बिंदु पर स्थिर हो जाते हो। उससे बंध जाते हो। आत्मा-स्मरण में तुम ज्ञाता के स्थिर बिंदु से अलग हो जाते हो। उससे बंध जाते हो। आत्म-स्मरण में तुम ज्ञाता के एक अलग हो जाते हो। तब ज्ञाता तुम्हारा मन है और ज्ञेय संसार है और तुम तीसरा बिंदू हो जाते हो—चैतन्य, साक्षी, आत्मा।
इस तीसरे बिंदु का अतिक्रमण नहीं हो सकता। और जिसका अतिक्रमण नहीं हो सकता,जिसके पार नहीं जाया जा सकता, वह परम है। जिसका अतिक्रमण हो सकता है वह महत्वपूर्ण नहीं है। क्योंकि वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। तुम उसका अतिक्रमण कर सकते हो।
मैं इस एक उदाहरण से समझाने की कोशिश करूंगा। रात में तुम सोते हो और सपना देखते हो; सुबह तुम जानते हो और सपना खो जाता है। जब तुम जागे हुए हो, जब तुम सपना नहीं देख रहे हो, तब एक भिन्न ही जगत तुम्हारे सामने होता है। तुम रास्तों पर चलते हो; तुम किसी कारखाने या कार्यालय में काम करते हो। फिर तुम अपने घर लौट आते हो। और रात में सो जाते हो। और वह संसार जिसे तुमने जागते हुए जाना था, विदा हो जाता है। तब तुम्हें स्मरण नहीं रहता कि मैं कौन हूं। तब तुम नहीं जानते हो कि मैं काला हूं या गोरा हूं। गरीब हूं या अमीर हूं, बुद्धिमान हूं या बेवकूफ, तुम कुछ भी नहीं जानते हो। कि मैं जवान हूं या बूढ़ा। तुम नहीं जानते हो कि मैं स्त्री हूं या पुरूष हूं। जाग्रत चेतना से जो कुछ संबंधित था वह सब विलीन हो जाता है। और तुम फिर स्वप्न के संसार में प्रवेश कर जाते हो। तुम उस जगत को भूल जाते हो जो तुमने जागते में जाना था; वह बिलकुल खो जाता है। और सुबह फिर सपने का संसार विदा हो जाता है। तुम यथार्थ की दुनियां में लौट आते हो।
इनमें से कौन सच हो? क्योंकि जब तुम सपना देख रहे हो तब वह यथार्थ संसार, जिसे तुम जागते हुए जानते हो, खोजता है। तुम तुलना भी नहीं कर सकते; क्योंकि जब तुम जागे हुए हो तो सपने का संसार नहीं रहता है। इसलिए तुलना असंभव है। कौन सच है? तुम स्वप्न जगत को झूठा कैसे कहते हो? कसौटी क्यों है?
अगर तुम यह कहते हो कि क्योंकि जब मैं जागता हूं तो स्वप्न जगत विलीन हो जाता है। तो यह दलील कसौटी नहीं बन सकती, क्योंकि जब तुम सपना देखते हो तो तुम्हारा जाग्रत जगत वैसे ही विलीन हो जाता है। और सच तो यह है कि अगर तुम इसी को कसौटी मानो तो स्वप्न जगत ज्यादा सच मालूम पड़ता है। क्योंकि जागने पर तुम स्वप्न को याद कर सकते हो, लेकिन जब तुम स्वप्न देख रहे हो जब जाग्रत चेतना को और उसके चारों ओर के जगत को बिलकुल पोंछ देता है। जिसे तुम असली संसार कहते हो। और तुम्हारा असली संसार स्वप्न के संसार को पूरी तरह से नहीं पोंछ पाता है। तब कसौटी क्या है? कैसे तय किया जाए? कैसे तुलना की जाए?
तंत्र कहता है कि दोनों झूठ है। तब सत्य क्या है? तंत्र कहता है कि सत्य वह है जो स्वप्न जगत को जानता है और जो जाग्रत जगत को भी जानता है। वही सत्य है; क्योंकि उसका कभी अतिक्रमण नहीं हो सकता। वह कभी हटाया नहीं जा सकता है। चाहे तुम सपना देख रहे हो या जागे हुए हो, वह है, वह अमिट है। तंत्र कहता है कि वह जो स्वप्न को जानता है कि अब जाग्रत जगत खो गया है। वह सत्य है—क्योंकि ऐसा कोई बिंदु नहीं है जहां वह नहीं है; वह सदा है। जिसे किसी भी अनुभव से अलग नहीं किया जा सकता, वह सत्य है।
वह जिसका अतिक्रमण नहीं हो सकता, जिसके पार तुम नहीं जा सकते हो, वह तुम हो, वह तुम्हारी आत्मा है। और अगर तुम उसके पार जा सकते हो तो वह तुम्हारी आत्मा नहीं है।
गुरजिएफ की यह विधि जिसे वह आत्म-स्मरण कहता है, यह बुद्ध की यह विधि जिसे वह सम्यक स्मृति कहते है, या तंत्र की यह विधि तुम्हें एक ही जगह पहुंचा देती है। वह तुम्हें भीतर उस बिंदु पर पहुंचा देती है जो न ज्ञेय है और न ज्ञाता है। बल्कि जो साक्षी आत्मा है, जो ज्ञेय और ज्ञाता दोनों को जानती है। यह साक्षी परम है; तुम उसके पार नहीं जा सकते हो। क्योंकि अब तुम जो भी करोगे वह साक्षी-भाव ही होगा। तुम साक्षी भाव के आगे नहीं जा सकते। तो साक्षी-भाव चैतन्य का परम आधार है, आत्यंतिक तत्व है।
यह सूत्र तुम पर साक्षी को प्रकट कर देगा।
‘प्रत्येक वस्तु ज्ञान के द्वारा ही देखी जाती है। ज्ञान के द्वारा ही आत्मा क्षेत्र में प्रकाशित होती है। उस एक को ज्ञाता और ज्ञेय की भांति देखो।’
यदि तुम अपने भीतर उस बिंदु को देख सके तो ज्ञाता और ज्ञेय दोनों है। तो तुम आब्जेक्ट्स और सब्जैक्ट दोनों के पार हो गए। तब तुम उस पदार्थ और मन दोनों का अतिक्रमण कर गए; तब तुम बाह्म और आंतरिक दोनों के पार हो गए। तब तुम उस बिंदु पर आ गए जहां ज्ञाता और ज्ञेय एक है। उनमें कोई विभाजन नहीं है। मन के साथ विभाजन है; साक्षी के साथ विभाजन समाप्त हो जाता है। साक्षी के साथ तुम यह नहीं कह सकते कि कौन ज्ञेय है और कौन ज्ञाता है; वह दोनों है।
लेकिन इस साक्षी का अनुभव होना चाहिए; अन्यथा वह दार्शनिक ऊहा पोह बन कर रह जाता है। इसलिए इसे प्रयोग करो। तुम गुलाब के फूल के पास बैठे हो; उसे देखो। पहला काम ध्यान को एक जगह केंद्रित करना है। गुलाब के प्रति पूरे ध्यान को लगा देना है—जैसे कि सारी दुनिया विलीन हो गई है। और सिर्फ गुलाब ही रह गया है। तुम्हारी चेतना गुलाब के अस्तित्व के प्रति पूरी तरह उन्मुख हो।
और अगर ध्यान समग्र हो तो संसार विलीन हो जाता है। क्योंकि ध्यान जितना ही एकाग्र होगा,उतना ही गुलाब के बाहर की दुनिया खो जाएगी। सारा संसार विलीन हो जाता है। केवल गुलाब रहता है। गुलाब ही सारा संसार हो जाता है।
यह पहला कदम है। गुलाब पर एकाग्र होना पहला कदम है। अगर तुम गुलाब पर एकाग्र नहीं हो सकते तो तुम ज्ञाता की तरफ गति नहीं कर सकते; क्योंकि तब तुम्हारा मन सदा भटक-भटक जाता है। इसलिए ध्यान की तरफ जाने के लिए एकाग्रता पहला कदम है। तब सिर्फ गुलाब बचता है और सारा संसार विलीन हो जाता है। अब तुम भीतर की तरफ गति कर सकते हो; अब गुलाब वह बिंदु है जहां से तुम गति कर सकते हो। अब गुलाब को देखो और साथ ही स्वयं के प्रति, ज्ञाता के प्रति जागरूक होओ।
आरंभ में तुम चूक-चूक जाओगे। अगर तुम ज्ञाता की और गति करोगे तो गुलाब तुम्हारी चेतना से ओझल हो जाएगा। तब गुलाब धुंधला जाएगा, खो जाएगा। जब तुम फिर गुलाब पर आओगे तो स्वयं को भूल जाओगे। यह लुकाछिपी का खेल कुछ समय तक चलता रहेगा। लेकिन अगर तुम प्रयत्न करते ही रहे, करते ही रहे तो देर-अबेर एक क्षण आएगा जब तुम अपने को दोनों के बीच में पाओगे। ज्ञाता होगा,मन होगा। गुलाब होगा। और तुम ठीक माध्य में होगे,दोनों को देख रहे होगे। वह मध्य बिंदु, वह संतुलन का बिंदु ही साक्षी है।
और एक बार तुम यह जान गए तो तुम दोनों हो जाओगे। तब गुलाब और मन, ज्ञेय और ज्ञाता,तुम्हारे पंख हो जाएंगे। तब आब्जेक्ट्स और सब्जैक्ट दो पंख है और तुम दोनों के केंद्र हो। तब वे तुम्हारे ही विस्तार है। तब संसार और भगवता दोनों तुम्हारे ही विस्तार है। तुम अपने अस्तित्व के केंद्र पर पहुंच गए। और यह केंद्र साक्षी मात्र है।
‘उस एक को ज्ञाता और ज्ञेय की भांति देखो।’
किसी चीज पर एकाग्रता शुरू करो। और जब एकाग्रता समग्र हो तो भीतर की और मुड़ो, स्वयं के प्रति जागरूक होओ। और तब संतुलन की चेष्टा करो। इसमें समय लगेगा। महीनों लग सकते है। वर्षों भी लग सकते है। यह इस पर निर्भर है कि तुम्हारा प्रयत्न कितना तीव्र है। क्योंकि यह बहुत सूक्ष्म संतुलन है। लेकिन यह संतुलन आता है। और जब यह आता है तो तुम अस्तित्व के केंद्र पर पहुंच गए। उस केंद्र पर तुम आत्मस्थ हो। अचल हो, शांत हो, आनंदित हो, समाधिस्थ हो। वहां द्वैत नहीं रह जाता है। इसे ही हिंदुओं ने समाधि कहा है। इसे ही जीसस ने प्रभु का राज्य कहा है।
इसे सिर्फ शाब्दिक रूप से, सिर्फ शब्दों के तल पर समझना बहुत काम का नहीं है। लेकिन अगर तुम प्रयोग करते हो तो तुम्हें आरंभ से ही अनुभव होने लगेगा कि कुछ घटित हो रहा है। जब तुम गुलाब पर एकाग्रता करोगे तो सारा संसार विलीन हो जाएगा। यह चमत्कार है कि सारा संसार विलीन हो जाता है। तब तुम्हें बोध होता है कि बुनियादी चीज मेरा ध्यान है। तुम जहां भी अपनी दृष्टि को ले जाते हो वहीं एक संसार निर्मित हो जाता है। और जहां से तुम अपनी दृष्टि हटा लेते हो वह संसार खो जाता है। तो तुम अपनी दृष्टि से, अपने ध्यान से संसार की रचना कर सकते हो।
इसे इस भांति देखो। तुम यहां बैठे हो। अगर तुम किसी व्यक्ति के प्रेम में हो तो अचानक इस हॉल में एक ही व्यक्ति रह जाता है। शेष सब कुछ खो जाता है। मानो यहां और कुछ नहीं है। क्या हो जाता है। क्यों तुम्हारे प्रेम में होने पर एक ही व्यक्ति रह जाता है। सारा संसार बिलकुल खो जाता है। जैसे कि धूप छाया का खेल हो। सिर्फ एक व्यक्ति यथार्थ है, सच है। क्योंकि तुम्हारा मन एक व्यक्ति पर केंद्रित है, एकाग्र है; तुम्हारा मन एक व्यक्ति पर पूरी तरह तल्लीन है। शेष सब कुछ छाया वत हो जाता है। धूप छाया का खेल हो जाता है। तुम्हारे लिए यह यर्थाथ न रहा।
जब भी तुम एकाग्र होते हो, यह एकाग्रता तुम्हारे अस्तित्व के पूरे ढंग ढांचे को बदल देती है। तुम्हारे चित की सारी रूपरेखा बदल देती है। इसका प्रयोग करो—किसी भी चीज पर प्रयोग करो। बुद्ध की किसी प्रतिमा के साथ प्रयोग करो। या किसी फूल या वृक्ष या किसी भी चीज के साथ प्रयोग करो। या अपनी प्रेमिका या अपने मित्र के चेहरे पर प्रयोग करो—चेहरे को सिर्फ देखो।
यह सरल होगा, क्योंकि अगर तुम किसी चेहरे को प्रेम करते हो तो उस पर एकाग्र होना सरल होगा। और सच बात तो यह है जिन लोगों ने बुद्ध या जीसस या कृष्ण पर एकाग्र होने की कोशिश की, वे प्रेमी थे; बुद्ध को प्रेम करते थे। सारिपुत्र या मौद्गल्यायन या अनय शिष्यों के लिए बुद्ध के चेहरे पर ध्यान करना सरल था। जैसे ही वे बुद्ध के चेहरे को देखते थे, वे सरलता से उसकी तरफ प्रवाहित होने लगते थे। उन्हें उनसे प्रेम था; वे उनसे मोहित थे।
तो कोई चेहरा खोज लो—और जिस चेहरे से भी तुम्हें प्रेम हो वह काम देगा—बस आंखों में झांको चेहरे पर एकाग्र होओ। और अचानक तुम पाओगे कि सारा संसार विलीन हो गया है। और एक नया ही आयाम खुल गया है। तब तुम्हारा चित किसी एक चीज पर एकाग्र होता है तब वह व्यक्ति या वह चीज तुम्हारे लिए सारा संसार बन जाती है।
मेरे कहने का मतलब यह है कि जब तुम्हारा ध्यान किसी चीज पर समग्र होता है, तब वह चीज ही सारा संसार हो जाती है। तुम अपने ध्यान के द्वारा अपना संसार निर्मित करते हो। तुम अपना संसार अपने ध्यान से बनाते हो। और जब तुम पूरी तरह तल्लीन हो, तुम्हारी चेतना जैसे नदी की धार की तरह विषय की तरफ बह रही है। तो अचानक तुम उस मूल स्त्रोत के प्रति बोधपूर्ण हो जाओ जहां से ध्यान प्रवाहित हो रहा है। नदी बह रही है। तुम उसके उद्गम के प्रति मूल स्त्रोत के प्रति होश पूर्ण हो जाओ।
आरंभ में तुम बार-बार होश खो दोगे; तुम यहां से वहां डोलते रहोगे। अगर तुम उद्गम की तरफ ध्यान दोगे तो तुम नदी को भूल जाओगे। और उस विषय को, सागर को भूल जाओगे। जिसकी और नदी प्रवाहित हो रही है। यह फिर बदलेगा—यदि तुम लक्ष्य पर ध्यान दोगे तो मूल स्त्रोत भूल जाएगा। यह स्वभाविक है; क्योंकि मन का बंधा-बंधाया ढंग है—यह ऑब्जेक्ट को देखता है या सब्जैक्ट को।
यही कारण है कि बहुत से लोग एकांत में चले जाते है। ये संसार को छोड़ ही देते है। संसार को छोड़ने का बुनियादी कारण है कि वे विषय को छोड़ रहे है। ताकि वे अपने आप पर एकाग्र हो सके। यह सरल है। अगर तुम संसार छोड़ दो और आँख बंद कर लो, इंद्रियों को बंद कर लो, तो तुम आसानी से स्वयं के प्रति बोधपूर्ण हो सकते हो।
लेकिन यह बोध भी झूठा है। क्योंकि तुमने द्वैत का एक बिंदू ही चुना है। यह उसी रोग की दूसरी अति है। पहले तुम विषय के प्रति सजग थे, ज्ञेय के प्रति सजग थे और तुम स्वयं का, ज्ञाता का बोध नहीं था। और अब तुम ज्ञाता से बंधे हो और ज्ञेय को भूल गए हो। लेकिन तुम द्वैत में ही हो। और फिर यह पुराना ही मन है जा नए रूप में प्रकट हो रहा है। कुछ भी नहीं बदला है।
यही करण है कि मैं इस बात पर जोर देता हूं कि आब्जेक्ट्स के संसार को नहीं छोड़ना है। आब्जेक्ट्स के जगत से मत भागों; बल्कि ऑब्जेक्ट और सब्जैक्ट दोनों के प्रति साथ-साथ बोधपूर्ण होने की कोशिश करो, बाह्म और आंतरिक दोनों के प्रति साथ-साथ सजग बनो। अगर दोनों मौजूद है तो ही तुम दोनों के बीच संतुलित हो सकते हो। अगर एक ही है तो तुम उससे ग्रस्त हो जाओगे।
जो लोग हिमालय चले जाते है और अपने को बंद कर लेते है, वे तुम्हारे ही जैसे लोग है सिर्फ शीर्षासन में खड़े है। तुम आब्जेक्ट्स से बंधे हो; वे सब्जैक्ट से बंध गए है। तुम बाहर अटके हो; वे भीतर अटक गए है। ने तुम मुक्त हो, न वे मुक्त है। क्योंकि एक के साथ तुम मुक्त नहीं हो सकते; एक के साथ तुम तादात्म्य कर लेते हो।
मुक्त तो तुम तभी हो सकते हो जब तुम दोनों के प्रति सजग होते हो, दोनों को जानते हो। तब तुम तीसरे हो जाते हो। और यह तीसरा ही मुक्ति का बिंदू है। एक के साथ तुम तादात्म्य कर लेते हो। दो के साथ गति संभव है, बदलाहट संभव है, संतुलन संभव है—और तुम मध्य बिंदु पर ठीक मध्य बिंदु पर पहुंच सकते हो।
बुद्ध कहते थे कि मेरा मार्ग मज्झम निकाय है। मध्य मार्ग है। यह बात ठीक से नहीं समझी गई कि क्यों वे इसे मध्यमार्ग कहने पर इतना जोर देते थे। कारण यह है; उनकी पूरी प्रक्रिया सजगता की है। सम्यक स्मृति की है—यह मध्य मार्ग है। बुद्ध कहते है: इस संसार को मत छोड़ो और परलोक से मत बंधो; मध्य में रहो। एक अति को छोड़कर दूसरी अति पर मत सरक जाओ। ठीक मध्य में रहो। क्योंकि मध्य में लोक और परलोक दोनों नहीं है। ठीक मध्य में तुम मुक्त हो। ठीक मध्य में द्वैत नही है। तुम अद्वैत को उपलब्ध हो गए और द्वैत तुम्हारा विस्तार भर है—जैसे दो पंख हो।
बुद्ध का मज्झम निकाय इसी विधि पर आधारित है। यह बहुत सुंदर विधि है। अनेक कारणों से यह सुंदर है। एक कि यह बहुत वैज्ञानिक है; क्योंकि तुम केवल दो के बीच संतुलन को उपलब्ध हो सकते हो। अगर एक ही बिंदु हो तो असंतुलन अनिवार्यतः: अनिवार्यतः: रहेगा। इसलिए बुद्ध कहते है। कि जो संसारी है तो असंतुलित और जो त्यागी है वे भी दूसरी अति पर असंतुलित है। संतुलित आदमी वह है जो न इस अति पर है और न उस अति पर; जो ठीक मध्य में है। तुम उसे संसारी नहीं कह सकते; तुम उसे गैर संसारी भी नहीं कह सकते। वह गति करने के लिए स्वतंत्र है; वह किसी से भी आसक्त नहीं है, बंधा नहीं है। वह मध्य बिंदू पर स्वर्णिम मध्य पर पहुंच गया है।
दूसरी बात: दूसरी अति पर चला जाना बहुत आसान है—बहुत ही आसान। अगर तुम बहुत भोजन लेते हो तो तुम उपवास आसानी से कर सकते हो; लेकिन सम्यक भोजन लेना कठिन है। अगर तुम बहुत बातचीत करते हो तो तुम मौन में आसानी से उतर सकत हो। लेकिन तुम मितभाषी नहीं हो सकते। अगर तुम बहुत खाते हो तो बिलकुल न खाना बहुत आसान है—यह दूसरी अति है। लेकिन सम्यक भोजन लेना, मध्य बिंदु पर रूक जाना बहुत मुश्किल है। किसी को प्रेम करना सरल है, किसी को धृणा करना भी सरल है; लेकिन उदासीन रहना बहुत मुश्किल है। तुम एक अति से दूसरी अति पर जा सकत हो। लेकिन मध्य में ठहरना बहुत कठिन है। क्यों?
क्योंकि मध्य में तुम्हें अपना मन गंवाना पड़ेगा। तुम्हारा मन अतियों में जीता है। मन का मतलब अति है। मन सदा अतियों में डोलता रहता है। तुम या तो किसी के पक्ष में होते हो यह विपक्ष में; तुम तटस्थ नहीं हो सकते। मन तटस्थता में नहीं हो सकता है। वह यहां हो सकता है या वहां हो सकता है। क्योंकि मन को विपरीत की जरूरत है; उसे किसी के विरोध में होना जरूरी है। अगर वह किसी के विरोध में नह हो तो वह तिरोहित हो जाता है। तब उसकी कोई प्रयोजन नहीं रहा जाता है।
इसे प्रयोग करो। किसी भी बात में तटस्थ हो जाओ, उदासीन हो जाओ, और तुम पाओगे कि अचानक मन को कोई काम न रहा। अगर तुम पक्ष में हो तो तुम सोच-विचार कर सकते हो। अगर तुम विपक्ष में हो तो भी तुम सोच विचार कर सकते हो। लेकिन अगर तुम न पक्ष में हो न विपक्ष में तो सोच विचार के लिए क्या रह जाता है।
बुद्ध कहते है कि उपेक्षा मज्झम निकाय का आधार है। उपेक्षा—अतियों की उपेक्षा करो। बस इतना ही करो के अतियों के प्रति उदासीन रहो, और संतुलन घटित हो जाएगा।
यह संतुलन तुम्हें अनुभव का एक नया आयाम देगा। जहां तुम ज्ञाता और ज्ञेय दोनों हो, लोक और परलोक, यह और वह शरीर और मन दोनों हो; जहां तुम दोनों हो और साथ ही साथ दोनों नहीं हो, दोनों के पार हो, एक त्रिकोण निर्मित हो गया।
तुमने देखा होगा कि अनेक रहस्यवादी गुह्म संप्रदायों ने त्रिकोण को अपना प्रतीक चुना है। त्रिकोण गुह्म विद्या का एक अति प्राचीन प्रतीक रहा, उसका यही कारण है। त्रिकोण में तीन कोण है। सामान्यत: तुम्हारे दो कोण ही है। तीसरा कोण गायब है। तीसरा कोण अभी नहीं है। वह अभी विकसित नहीं हुआ है। तीसरा कोण दोनों के पार है। दोनों कोण इस तीसरे कोण के अंग है। और फिर भी यह कोण उनके पार है और दोनों से ऊँचा है।
अगर तुम यह प्रयोग करो तो तुम्हें अपने भीतर त्रिकोण निर्मित करने में सहयोगी होगा। तीसरा कोण धीरे-धीरे ऊपर उठेगा। और जब वह अनुभव में आता है तो तुम दुःख में नहीं रह सकते। एक बार तुम साक्षी हुए कि दुःख नहीं रह सकता है। दुःख का अर्थ है किसी चीज के साथ तादात्म्य बना लेना।
लेकिन एक सूक्ष्म बात याद रखने जैसी है—तब तुम आनंद के साथ भी तादात्म्य नहीं जोड़ोगे। यही कारण है कि बुद्ध कहते है: ‘मैं इतना ही कहा सकता हूं,कि दुःख नहीं होगा। समाधि में दुःख नहीं होगा। मैं यह नहीं कहा सकता कि आनंद होगा। बुद्ध कहते है: मैं यह बात नहीं कह सकता; मैं यही कह सकता हूं कि दुःख नहीं होगा।’
और बुद्ध ठीक कहते है। क्योंकि आनंद का अर्थ है कि किसी भी तरह का तादात्म्य नहीं रहा, आनंद के साथ भी तादात्म्य नहीं रहा। यह बहुत बारीक बात है। सूक्ष्म बात है। अगर तुम्हें ख्याल है कि मैं आनंदित हूं तो देर अबेर तुम फिर दुःखी होने की तैयारी कर रहे हो। तुम अब भी किसी मनोदशा से तादात्म्य कर रहे हो।
तुम सुखी अनुभव करते हो; अब तुम सुख के साथ तादात्म्य कर रहे हो। और जिस क्षण तुम्हारा सुख से तादात्म्य होता है उसी क्षण दुख शुरू हो जाता है। अब तुम सुख से चिपकोगे; अब तुम उसके विपरीत से, दुःख से भयभीत होगे और चाहोगे कि सुख सदा तुम्हारे साथ रहे। अब तुमने वे सब उपाय कर लिए जो दुःख के होने के लिए जरूरी है। और फिर दुःख आएगा। और जब तुम सुख से तादात्म्य करते हो तो तुम दुःख से भी तादात्म्य कर लोगे। तादात्म्य ही रोग है।
इस तीसरे बिंदु पर तुम किसी के साथ भी तादात्म्य नहीं करते हो। जो भी आता-जाता है, बस आता-जाता है। तुम मात्र साक्षी रहते हो। देखते हो—तटस्थ, उदासीन और तादात्म्य रहित। सुबह आती है, सूरज उगता है। और तुम उसे देखते हो, तुम उसके साक्षी रहते हो। तूम यह नहीं कहते कि मैं सुबह हूं। फिर जब दोपहर आती है तो तुम यह नहीं कहते कि मैं दोपहर हूं। और जब सूरज डूबता है, अँधेरा उतरता है और रात आती है, तब तुम यह नहीं कहते कि मैं अँधेरा हूं, कि मैं रात हू। तुम उनके साक्षी रहते हो। तुम कहते हो कि सुबह थी, फिर दोपहर हुई फिर श्याम हुई, अब रात है। और फिर सुबह होगी और यह चक्र चलता रहेगा। और मैं केवल द्रष्टा हूं। देखनेवाला हूं, मैं देखता रहता हूं।
और अगर यही बात तुम्हारी मनोदशा ओर के साथ लागू हो जाए—सुबह की मनोदशा, दोपहर की मनोदशा, श्याम की, रात की मनोदशा और उनके अपने वर्तुल है, वे घूमते रहते है। तो तुम साक्षी हो जाते हो। तुम कहते हो: अब सूख आया है—ठीक सुबह की भांति,और अब रात आयेगी—दूःख की रात। मेरे चारों और मन:स्थितियां बदलती रहेंगी और मैं स्वयं में केंद्रित, स्थिर बना रहूंगा। मैं किसी भी मन स्थिति में आसक्त नही होऊंगा। मैं किसी भी मन: स्थिति में चिपकूंगा नहीं, बाधूंगा नहीं। मैं किसी चीज की आशा नहीं करुंगा और न मैं निराशा ही अनुभव करूंगा। मैं केवल साक्षी रहूंगा। जो भी होगा मैं उसका देखूँगा। जब वह आएगा,मैं उसका आना देखूँगा; जब वह जाएगा मैं उसका जाना देखूँगा।
बुद्ध इसका बहुत प्रयोग करते है। वे बार-बार कहते है कि जब कोई विचार उठे तो उसे देखो। दूःख का विचार उठे, सूख का विचार उठे, उसे देखते रहो। जब वह शिखर पर आए तब उसे देखो, उसके साक्षी रहो। और जब वह उतरने लगे तब भी उसके द्रष्टा बने रहो। विचार अब पैदा हो रहा है। वह अब है, और अब वह विदा हो रहा है—सभी अवस्थाओं में तुम उसे देखते रहो। उसके साक्षी बने रहो।
यह तीसरा बिंदु तुम्हें साक्षी बना देता है। और साक्षी चैतन्य की परम संभावना है।
दूसरी विधि:
८९…
‘हे प्रिये, इस क्षण में मन, ज्ञान, प्राण, रूप, सब को समाविष्ट होने दो।’
BELOVED, AT THIS MOMENT LET MIND, KNOWING, BREATH, FORM, BE INCLUDED.
यह विधि थोड़ी कठिन है। लेकिन अगर तुम इसे प्रयोग कर सको तो यह विधि बहुत अद्भुत और सुंदर है। ध्यान में बैठो तो कोई विभाजन मत करो;ध्यान में बैठे हुए सब को—तुम्हारे शरीर, तुम्हारे मन, तुम्हारे प्राण, तुम्हारे विचार, तुम्हारे ज्ञान—सब को समाविष्ट कर लो। सब को समेट लो, सब को सम्मिलित कर लो। कोई विभाजन मत करो, उन्हें खंडों में मत बांटो।
साधारणत: हम खड़ों में बांटते रहते है। तोड़ते रहते है। हम कहते है: ‘यह शरीर मैं नहीं हूं।’ ऐसी विधियां भी है जो इसका प्रयोग करती है। लेकिन यह विधि सर्वथा भिन्न है, बल्कि ठीक विपरीत है। तो कोई विभाजन मत करो। मत कहो कि मैं शरीर नहीं हूं। मत कहो कि मैं श्वास नहीं हूं। मत कहो कि मैं मन नहीं हूं। कहो कि मैं सब हूं और सब हो जाओ। अपने भीतर कोई विभाजन, कोई बँटाव मत निर्मित करो। यह एक भाव दशा है। आंखें बंद कर लो और तुम्हारे भीतर जो भी है। सब को सम्मिलित कर लो। अपने को कहीं एक जगह केंद्रित मत करो—अकेंद्रित रहो।
श्वास आती है और जाती है। विचार आता है और चला जाता है। शरीर का रूप बदलता रहता है। इस पर तुमने कभी ध्यान नहीं दिया है। अगर तुम आंखें बंद करके बैठो तो तुम्हें कभी लगेगा कि मेरा शरीर बहुत बड़ा है और कभी लगेगा कि मेरा शरीर बिलकुल छोटा है। कभी शरीर बहुत भारी मालूम पड़ता है। और कभी इतना हलका कि तुम्हें लगेगा कि मैं उड़ सकता हूं। इस रूप के घटने-बढ़ने को तुम अनुभव कर सकते हो। आंखों को बंद कर लो और बैठ जाओ। और तुम अनुभव करोगे कि कभी शरीर बहुत बड़ा है। इतना बड़ा कि सारा कमरा भर जाए और कभी इतना छोटा लगेगा जैसे कि अणु हो। यह रूप क्यो बदलता है?
जैसे-जैसे तुम्हारा ध्यान बदलता है। वैसे-वैसे तुम्हारे शरीर का रूप भी रूप बदलता है। अगर तुम्हारा ध्यान सर्वग्राही है तो रूप बहुत बड़ा हो जायेगा। और अगर तुम तोड़ते हो करते हो, विभाजन करते हो, कहते हो कि मैं यह नहीं हूं, तो तुम बहुत छोटा, बहुत सूक्ष्म और आणविक हो जाता है।
यह सूत्र कहता है: ‘हे प्रिय, इस क्षण में मन, ज्ञान, रूप, सब को समाविष्ट होने दो।’
अपने अस्तित्व में सब को सम्मिलित करो, किसी को भी अलग मत करो, बाहर मत करो। मत कहो कि मैं यह नहीं हूं, कहो कि मैं यह हूं और सब को सम्मिलित कर लो। अगर तुम इतना ही कर सको तो तुम्हें बिलकुल नए अनुभव, अद्भुत अनुभव घटित होंगे। तुम्हें अनुभव होगा कि कोई केंद्र नहीं है। मेरा कोई केंद्र नहीं है।
और केंद्र के जाते ही अहंभाव नहीं रहता। अहंभाव नहीं रहता। केंद्र के जाते ही केवल चैतन्य रहता है—आकाश जैसा चैतन्य जो सब को घेरे हुए है। और जब यह प्रतीति बढ़ती है तो तुममें न सिर्फ तुम्हारी श्वास समाहित होगी, न केवल तुम्हारा रूप समाहित होगा, बल्कि अंतत: तुम में सारा ब्रह्मांड समाहित हो जाएगा।
स्वामी रामतीर्थ ने अपनी साधना में इस विधि का प्रयोग किया था। और एक क्षण आया जब उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि सारा जगत मुझमें है और ग्रह-नक्षत्र मेरे भीतर घूम रहे है। कोई उनसे बात कर रहा था और उसने कहा कि यहां हिमालय में सब कुछ कितना सुंदर है। रामतीर्थ हिमालय में थे। और उस व्यक्ति ने उनसे कहा: यह हिमालय कितना सुंदर है। और कहते है रामतीर्थ ने उससे कहा: ‘हिमालय? हिमालय मेरे भीतर है।’
उस आदमी ने सोचा कि रामतीर्थ पागल है। हिमालय कैसे उनके भीतर हो सकता है? लेकिन यदि तुम इस विधि का प्रयोग करो तो तुम यह अनुभव कर सकते हो। कि हिमालय तुममें है। मैं तुम्हें थोड़ा स्पष्ट करूं कि यह कैसे संभव है।
सच तो यह है कि जब तुम मुझे देखते हो तो उसे नहीं देखते जो कुर्सी पर बैठा हुआ है, तुम दरअसल मेरी तस्वीर को देखते हो जो तुम्हारे भीतर है। जो तुम्हारे मन में बनती है। तुम इस कुर्सी में बैठे हुए मुझको कैसे जान सकते हो? तुम्हारी आंखें केवल मेरी तस्वीर ले सकती है। तस्वीर भी नहीं, सिर्फ प्रकाश की किरणें तुम्हारी आंखों में प्रवेश कर सकती है। फिर तुम्हारी आंखें खुद मन के पास नहीं पहुँचती है; सिर्फ आंखों से होकर गुजरने वाली किरणें भीतर जाती है। फिर तुम्हारा स्नायु-तंत्र जो उन किरणों को ले जाता है। उन्हें किरणों की भांति नहीं ले जा सकता । वह उन किरणों को रासायनिक पदार्थों में रूपांतरित कर देता है। तो केवल रासायनिक पदार्थ यात्रा करते है। वहां इन रासायनिक पदार्थों को पढ़ा जाता है। उन्हें डिकोड़ किया जाता है। उन्हें उनके मूल चित्र में फिर बदला जाता है। और तब तुम अपने मन में मुझे देखते हो।
तुम कभी अपने मन के बाहर नहीं गए हो। सम्पूर्ण जगत को, जिसे तुम जानते हो। तुम अपने मन में देखते हो। मन में ही उघाड़ते हो। मन में ही जानते हो। सारे हिमालय, समस्त सूर्य और चाँद-तारे तुम्हारे मन के भीतर अत्यंत सूक्ष्म अस्तित्व मे मौजूद है। अगर तुम अपनी आंखें बंद करो और अनुभव करो कि सब कुछ सम्मिलित है तो तुम जानोंगे कि सारा जगत तुम्हारे भीतर घूम रहा है।
और जब तुम यह अनुभव करते हो कि सारा जगत मेरे भीतर घूम रहा है। तो तुम्हारे सभी व्यक्तित्व दुःख विसर्जित हो गए। विदा हो गए। अब तुम व्यक्ति न रहे, अव्यक्ति हो गए। परम हो गए। अब तुम समस्त अस्तित्व हो गए।
यह विधि तुम्हारी चेतना को विस्तृत करती है। उसे फैलाव देती है।
अब पश्चिम में चेतना को विस्तृत करने के लिए अनेक नशीली चीजों का प्रयोग हो रहा है। एल एस डी है, मारीजुआना है, दूसरी मादक द्रव्य है। भारत में भी पुराने दिनों में उनका प्रयोग होता था। क्योंकि ये मादक द्रव्य चेतना के विस्तार का एक झूठा भाव पैदा कर देते है। और जो लोग भी मादक द्रव्य लेते है, उनके लिए ये विधियां बहुत सुंदर है, बहुत काम की है। क्योंकि वे लोग चेतना के विस्तार के लिए लालायित है।
जब तुम एल एस डी लेते हो तो तुम अपने में ही सीमित नही रहते, तब तुम सब को अपने में समेट लेते हो। इसके प्रयोग के अनेक उदाहरण है। एक लड़की सात मंजिल के मकान से कूद पड़ी, क्योंकि उसे लगा कि मैं नहीं मर सकती हूं। कि मृत्यु असंभव है। उसे लगा कि मैं उड़ सकती हूं, और उसे लगा कि इसमें कोई बाधा नहीं है। कोई भय नहीं है। वह लड़की सात मंजिल मकान से कूद पड़ी और मर गई। उसकी देह टूट फूट कर बिखर गई लेकिन उसके मन में—नशे के प्रभाव में—कोई सीमा का भाव नहीं था। मृत्यु का ख्याल नहीं था।
चेतना का विस्तार एक सनक का रूप ले चुकी है। क्योंकि जब तुम्हारी चेतना फैलती है तो तुम अपने को बहुत ऊँचाई पर अनुभव करते हो,सारा संसार धीरे-धीरे तुममें समा जाता है। तुम विराट हो जाते हो। अति विराट हो जाते हो। और तुम्हारे व्यक्तित्व दुःख विदा हो जाते है। लेकिन एल एस डी या अन्य ऐसी चीजों से पैदा होने वाला यह भाव भ्रामक है, झूठा है।
तंत्र की इस विधि से यह भाव वास्तविक हो जाता है। यथार्थत: सारा संसार तुम्हारे भीतर आ जाता है।
इसके दो कारण है। एक हमारी व्यक्तिगत चेतना दरअसल व्यक्तित्व नहीं है। बहुत गहराई में यह सामूहिक ऊपर हम द्वीपों जैसे अलग-अलग दिखते है। लेकिन गहरे में सभी द्वीप पृथ्वी से जुड़े है। हम द्वीपों जैसे दिखते है—मैं चेतन हूं तुम चेतन हो—लेकिन तुम्हारी चेतना और मेरी चेतना किसी गहराई में एक ही है। वे धरती से मूल आधार से संबद्ध है।
यही कारण है कि ऐसी बहुत सी बातें घटती है जो बेबूझ लगती है। अगर तुम अकेले ध्यान करते हो तो ध्यान में प्रवेश बहुत कठिन होता है। लेकिन अगर तुम समूह में ध्यान करते हो तो प्रवेश बहुत ही आसान हो जाता है। कारण यह है कि समूचा समूह एक इकाई की तरह काम करता है। ध्यान-शिविरों में मैंने देखा है, अनुभव किया है कि दो या तीन दिन के बाद तुम्हारी वैयक्तिकता जाती है। तुम एक वृहत चेतना के हिस्से बन जाते हो। और तब बहुत सूक्ष्म तरंगें अनुभव होने लगती है, बहुत सूक्ष्म तरंगें गति करने लगती है। और एक समूह चेतना विकसित होती है।
तो जब तुम नाचते हो तो असल में तुम नहीं नाच रहे होते हो, वरन समूह-चेतना नाच रही होती है। और तुम उसके अंग भर होते हो। नृत्य तुम्हारे ही नहीं है, तुम्हारे बाहर भी है। तुम्हारे चारों तरफ एक तरंग है। समूह में तुम नहीं होते हो, समूह ही होता है। द्वीप होने की सतही घटना भूल जाती है। और एक होने की गहरी घटना घटती है। समूह में तुम भगवता के निकटतर होते हो। अकेले में तुम उसके बहुत दूर होते हो। क्योंकि अकेले में तुम फिर अपने अहंकार पर सतही भेद पर सतही अलगाव पर केंद्रित हो जाते हो।
यह विधि सहयोगी है, क्योंकि सचाई यही है कि तुम ब्रह्मांड के साथ एक हो। प्रश्न इतना ही है कि कैसे इसे आविष्कृत किया जाए, कैसे इसमें उतरा जाए और इसे उपलब्ध हुआ जाए।
किसी मैत्री पूर्ण समूह के साथ होना तुम्हें सदा ऊर्जा से भरता है। किसी ऐसे व्यक्ति के साथ होने में, जो शत्रुतापूर्ण है, तुम्हें सदा अनुभव होता है कि मेरी ऊर्जा चूसी जा रही है। क्यों? अगर तुम मित्रों के साथ हो, परिवार के साथ हो और आनंदित हो और सुख ले रहे हो, तो तुम ऊर्जस्वी अनुभव करते हो। शक्तिशाली अनुभव करते हो। किसी मित्र के मिलने पर तुम ज्यादा जीवंत मालूम पड़ते हो—उससे ज्यादा जितना मिलने के पहले जीवंत थे। और किसी दुश्मन के पास से गुजरने पर तुम्हें लगता है कि तुम्हारी थोड़ी ऊर्जा कम हो गई, तुम थके-थके लगते हो। क्या होता है?
जब तुम किसी मैत्रीपूर्ण,सहानुभूतिपूर्ण समूह से मिलते हो तो तुम अपनी वैयक्तिकता को भूल जाते हो। तुम उस मूल आधार पर उतर आते हो जहां पर मिल सकते हो। जब किसी शत्रुतापूर्ण व्यक्ति से मिलते हो तो तुम ज्यादा वैयक्तिक, ज्यादा अहंकारी हो जाते हो। तुम अपने अहंकार से चिपक जाते हो। और इसी अहंकार से चिपकने के कारण तुम थके-थके लगते हो। सब ऊर्जा मूल स्त्रोत से आती है। सब ऊर्जा सामूहिक जीवन के भाव से आती है। यह ध्यान करते समय प्रारंभ में तुम्हें सामूहिक जीवन के भाव का अनुभव होगा, और अंत में जागतिक चेतना का अनुभव होगा। जब सब भेद गिर जाते है, सारी सीमाएं विलीन हो जाती है। और अस्तित्व एक इकाई हो जाता है। पूर्ण होता है, तब सब सम्मिलित हो जाता है। समाहित हो जाता है। यह सब को समाविष्ट करने का प्रयत्न अपने निजी अस्तित्व से शुरू होता है। सब कुछ को समाविष्ट करो।
हे प्रिय, इस क्षण में मन, ज्ञान,प्राण, रूप, को समाविष्ट होने दो।‘
याद रखने की बुनियादी बात है समावेश—सब को अपने में समाविष्ट करो। किसी को अलग मत करो, बाहर मत रखो। इस सूत्र की कुंजी है: सब का समावेश। सब को समाविष्ट करो, सब को अपने भीतर समेट लो। समाविष्ट करो और बढते जाओ। समाविष्ट करो और विस्तृत होओ। पहले अपने शरीर से यह प्रयोग शुरू करो और फिर बाहरी संसार के साथ भी यही प्रयोग करो।
किसी वृक्ष के नीचे बैठकर वृक्ष को देखो। और फिर आंखें बंद कर लो और अनुभव करो कि वृक्ष मेरी भीतर है। आकाश को देखो; और फिर आंखें बंद करके महसूस करो कि आकाश मेरे भीतर है। उगते हुए सूरज को देखो;फिर आंखें बंद करके भाव करो कि सूरज मेरे भीतर उग रहा है। और-और फैलते जाओ। विराट होते जाओ।
एक अद्भुत अनुभव तुम्हें होगा। जब तुम अनुभव करते हो कि वृक्ष मेरे भीतर है तो तुम तत्क्षण ज्यादा युवा हो जाते हो। और यह कल्पना नहीं है। क्योंकि वृक्ष और तुम दोनों पृथ्वी के अंग हो। पृथ्वी से आए हो। तुम दोनों की जड़ें एक ही धरती में गड़ी है। और अंतत: तुम्हारी जड़ें एक ही अस्तित्व में समाई है। तो जब तुम भाव करते हो कि वृक्ष मेरे भीतर होगा। वृक्ष की जीवंतता उसकी हरियाली उसकी ताजगी, उससे गुजरती हुई हवा, सब तुम्हारे भीतर तुम्हारे ह्रदय में अनुभव होगा।
तो अस्तित्व को और-और अपने भीतर समाविष्ट करो,कुछ भी बाहर मत छोड़ो।
अनेक ढंगों से अनेक जगह गुरु इसकी शिक्षा देते रहे है। जीसस कहते है: ‘अपने शत्रु को वैसे ही प्रेम करो जैसे अपने को करते हो।’ यह समावेश का प्रयोग है।
फ्रायड कहा करता था: ‘मैं क्यों अपने शत्रु को अपने समान प्रेम करूं? वह मेरा शत्रु है; फिर क्यों मैं उसे स्वयं की भांति प्रेम करूं? और मैं उसे प्रेम कैसे कर सकता हूं?
उसका प्रश्न संगत मालूम पड़ता है। लेकिन फ्रायड को पता नहीं है कि क्यों जीसस कहते थे कि अपने शत्रु को वैसे ही प्रेम करो जैसे अपने को करते हो। यह किसी सामाजिक राजनीति की बात नहीं है। यह कोई समाज-सुधार की, एक बेहतर समाज बनाने की बात नहीं है। यह तो सिर्फ तुम्हारे जीवन और तुम्हारे चैतन्य को विस्तार देने की बात है।
अगर तुम शत्रु को अपने में समाविष्ट कर सको तो वह तुम्हें चोट नहीं पहुंचा सकता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह तुम्हारी हत्या नहीं कर सकता। वह तुम्हारी हत्या कर सकता है। लेकिन वह तुम्हें चोट नहीं पहुंचा सकता। चोट तो तब लगती है जब तुम उसे अपने से बारह रखते हो। जब तुम उसे अपने से बाहर रखते हो तो तुम अहंकारी हो जाते हो। पृथक और अकेले हो जाते हो, तुम अस्तित्व से विच्छिन्न हो जाते हो। कट जाते हो। अगर तुम को अपने भीतर समाविष्ट कर सको तो सब समाविष्ट हो जाता है। जब शत्रु समाविष्ट हो सकता है तो फिर वृक्ष और आकाश क्यों समाविष्ट नहीं हो सकते।
शत्रु पर जोर इसलिए है कि अगर तुम शत्रु को सम्मिलित कर सकते हो तो तुम सब को सम्मिलित कर सकते हो। तब किसी को बाहर छोड़ने की जरूरत नहीं रही। और अगर तुम अनुभव कर सको कि तुम्हारा शत्रु भी तुममें समाविष्ट है तो तुम्हारा शत्रु भी तुम्हें शक्ति देगा। ऊर्जा देगा,वह अब तुम्हारे लिए हानिकारक नहीं हो सकता। वह तुम्हारी हत्या कर सकता है; लेकिन तुम्हारी हत्या करते हुए भी वह तुम्हें हानि नहीं पहुंचा सकता। हानि तो तुम्हारे मन से आती है। जब तुम किसी को पृथक मानते हो, अपने से बाहर मानते हो।
लेकिन हमारे साथ तो बात पूरी तरह विपरीत है, बिलकुल उलटी है। हम तो मित्रों को भी अपने में सम्मिलित नहीं करते। शत्रु तो बाहर होते ही है; मित्र भी बाहर ही होते है। तुम अपने प्रेमी-प्रेमिकाओं को भी बाहर ही रखते हो। अपने प्रेमी के साथ होकर भी तुम उसमें डूबते नहीं, एक नहीं होते; तुम पृथक बने रहते हो। तुम अपने को नियंत्रण में रखते हो। तुम अपनी अलग पहचान गंवाना नहीं चाहते हो।
और यही कारण है कि प्रेम असंभव हो गया है। जब तक तुम अपनी अलग पहचान नहीं छोड़ते हो, अहंकार को विदा नहीं देते हो। तब तक तुम प्रेम कैसे कर सकते हो? तुम-तुम बने रहते हो, तुम्हारा प्रेमी भी अपने को बचाए रहता है। तुम दोनों में कोई भी एक दूसरे में डूबने को समाविष्ट होने को राजी नहीं है। तुम दोनो एक दूसरे को बाहर रखते हो। तुम दोनों अपने-अपने घेरे में बंद रहते हो। परिणाम यह होता है कि कोई मिलन नहीं होता है, कोई संवाद नहीं होता है। और जब प्रेमी भी समाविष्ट नहीं हो सकते है तो यह सुनिश्चित है कि तुम्हारा जीवन दरिद्रतम जीवन है। तब तुम अकेले हो, दीन-हीन हो। भिखारी हो। और जब सारा अस्तित्व तुममें समाविष्ट होता है। तो तुम सम्राट हो।
इसे स्मरण रखो। समाविष्ट करने को अपनी जीवन-शैली बना लो। उसे ध्यान ही नहीं,जीवन शैली, जीने का ढंग बना लो। अधिक से अधिक को सम्मिलित करने की चेष्टा करो। तुम जितना ज्यादा सम्मिलित करोगे तुम्हारा उतना ही ज्यादा विस्तार होगा। तब तुम्हारी सीमाएं अस्तित्व के और-छोर को छूने लगेंगी। और एक दिन केवल तुम होगे। समस्त अस्तित्व तुममें समाविष्ट होगा। यही सभी धार्मिक अनुभवों का सार सूत्र है।
‘’हे प्रिय, इस क्षण में मन, ज्ञान,प्राण, रूप, सब को समाविष्ट होने दो।’