Watching from the hills:
८६…
‘भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज की चिंतना करता हूं जो दृष्टि के परे है, जो पकड़ के परे है। जो अनस्तित्व के, न होने के परे है—मैं।’
SUPPOSE YOU CONTEMPLATE SOMETHING BEYOND PERCEPTION, BEYOND GRASPING, BEYOND NOT BEING – YOU.८७…
मैं हूं,
यह मेरा है।
यह-यह है।
हे प्रिये, भाव में भी असीमत: उतरो।
I AM EXISTING.
THIS IS MINE.
THIS IS THIS.
O BELOVED, EVEN IN SUCH KNOW ILLIMITABLY.
पहली विधि:
८६…
‘भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज की चिंतना करता हूं जो दृष्टि के परे है, जो पकड़ के परे है। जो अनस्तित्व के, न होने के परे है—मैं।’
SUPPOSE YOU CONTEMPLATE SOMETHING BEYOND PERCEPTION, BEYOND GRASPING, BEYOND NOT BEING – YOU.
“भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज कीं चिंतना करता हूं जो दृष्टि के परे है।” जिसे देखा नहीं जा सकता।
लेकिन क्या तुम किसी ऐसी चीज की कल्पना कर सकते हो जो देखी न जा सके। कल्पना तो सदा उसकी होती है जो देखी जा सके। तुम उसकी कल्पना कैसे कर सकते हो, उसका अनुमान कैसे कर सकते हो। जो देखी ही न जा सके। तुम उसकी ही कल्पना कर सकते हो जिसे तुम देख सकते हो। तुम उस चीज का स्वप्न भी नहीं देख सकते जो दृश्य न हो। जो देखी न जा सके। यही कारण है कि तुम्हारे सपने भी वास्तविकता की छायाएं है। तुम्हारी कल्पना भी शुद्ध कल्पना नहीं है; क्योंकि तुम जो भी कल्पना करते हो उसे उस संयोजन के सभी तत्व परिचित होंगे, जाने-माने होंगे।
तुम कल्पना कर सकते हो कि एक सोने का पहाड़ आकाश में बादलों की भांति उड़ा जा रहा है। तुमने कभी ऐसी चीज नहीं देखी है। लेकिन तुमने बादल देखा है; तुमने पहाड़ देखा है; तुमने सोना देखा है। ये तीन तत्व इकट्ठे किए जा सकते है। तो कल्पना कभी मौलिक नहीं होती; वह सदा ही उनका जोड़ होती है जिन्हें तुमने देखा है।
यह विधि कहती है: ‘भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज की चिंतना करता हूं जो दृष्टि के परे है।’
यह असंभव है। लेकिन इसीलिए यह प्रयोग करने लायक है। क्योंकि इसे करने में ही तुम्हें कुछ घटित हो जाएगा। ऐसा नहीं कि तुम देखने में सक्षम हो जाओगे। लेकिन अगर तुम उसे देखने की चेष्टा करोगे जो देखी न जा सके तो सारा दर्शन खो जाएगा। ऐसी चीज के देखने के प्रयत्न में तुमने जो भी देखा है वह सब विलीन हो जाएगा।
अगर तुम इस प्रयत्न में धैर्यपूर्वक लगे रहे तो अनेक चित्र, अनेक बिंब तुम्हारे सामने प्रकट होंगे। तुम्हें उन प्रतिबिंबों को इनकार कर देना है, क्योंकि तुम जानते हो कि तुमने उन्हें देखा है। वे देखे जा सकते है। हो सकता है कि तुमने उन्हें बिलकुल वैसे ही न देखा हो जैसे वे है; लेकिन यदि तुम उनकी कल्पना कर सकते हो तो वे देखे भी जा सकते है। उन्हें अलग हटा दो। और इसी तरह अलग करते चलो। यह विधि कहती है कि जो नहीं देखा जा सकता उसे देखने के प्रयत्न में लगे रहो।
यदि तुम मन में उभरने वाले प्रतिबिंबों को हटाते गए तो क्या होगा? यह कठिन होगा क्योंकि अनेक चित्र उभर कर सामने आएँगे। तुम्हारा मन अनेक चित्र, अनेक बिंब, अनेक सपने सामने ले आएगा। अनेक धारणाएं आएँगी। अनेक प्रतीक पैदा होंगे। तुम्हारा मन नए-नए दृश्य निर्मित करेगा। लेकिन उन्हें हटाते चलो, जब तक कि तुम्हें वह न घटित हो जो अदृश्य है। क्या है वह?
यदि तुम हटाते ही गए तो बाहर से तुम्हें कुछ घटित नहीं होगा। सिर्फ मन का पर्दा खाली हो जाएगा। उस पर कोई चित्र कोई प्रतीक कोई बिंब, कोई सपने नहीं होंगे। उस क्षण में रूपांतरण घटित होता है। जब खाली पर्दा रहता है, उस पर कोई चित्र नहीं रहता, उस क्षण में तुम्हें अपना बोध होता है। सारी चेतना पीछे लौट कर देखने लगती है। स्वमुखी हो जाती है। जब तुम्हें देखने को कुछ नहीं होता है तब तुम्हें पहली बार स्वयं का बोध होता है। तब तुम स्वयं को देखते हो।
यह सूत्र कहता है: ‘भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज की चिंतना करता हूं जो दृष्टि के परे है, जो पकड़ के परे है। जो अनस्तित्व के, अन होने के परे है—मैं।’
तब तुम स्वयं को उपलब्ध होते हो। स्वयं होते हो। तब तुम पहली दफा उसे जानते हो। जो देखता है। जो समझता है, जो जानता है। लेकिन यह जानने वाला सदा विषयों मैं छिपा होता है। तुम चीजों को तो जानते हो, लेकिन तुम कभी जानने वाले को नहीं जानते हो। ज्ञाता ज्ञान में खोया रहता है। मैं तुम्हें देखता हूं और फिर किसी दूसरे को देखता हूं,और यह जुलूस चलता रहता है। जन्म से मृत्यु तक मैं हजार-हजार चीजें देखता हूं। और जो दृष्टा है, जो इस जुलूस को देखता है, वह भूल गया है। वह भीड़ में खो गया है। भीड़ विषयों की और द्रष्टा उसमें खो गया है।
यह सूत्र कहता है कि अगर किसी ऐसी चीज की चिंतना करने की चेष्टा करते हो जो दृष्टि के परे है। पकड़ के परे है। जिसे तुम मन से नहीं पकड़ सकते—और जो अनस्तित्व के, न होने के भी परे है। तो तुरंत मन कहेगा कि अगर कोई चीज देखी नहीं जा सकती और पकड़ी नहीं जा सकती तो वह चीज है ही नहीं। मन तुरंत प्रतिक्रिया करेगा कि अगर कोई चीज अदृष्य और अग्राह्य है तो वह नहीं है। मन कहेगा कि वह नहीं है, असंभव है।
इस मन की बातों में मत पड़ो। यह सूत्र कहता है: ‘दृष्टि के परे, पकड़ के परे, अनस्तित्व के परे।‘ मन कहेगा कि ऐसा कुछ नहीं है। ऐसा हो ही नहीं सकता। यह असंभव है। सूत्र कहता है कि इस मन का विश्वास मत करो। कुछ हो जो अनस्तित्व के परे अस्तित्ववान है, जो है और फिरा भी देखा नहीं जा सकता, पकड़ा नहीं जा सकता। वह तुम हो।
तुम अपने को नहीं देख सकते हो। या देख सकते हो? क्या तुम किसी एक ऐसी स्थिति की कल्पना कर सकते हो। जिसमें तुम अपना साक्षात्कार कर सको। जिसमें तुम अपने को जान सको? तुम आत्म ज्ञान शब्द को दोहराते रह सकते हो। लेकिन वह एक अर्थ हीन शब्द है। क्योंकि तुम स्वयं को, अपने को नहीं जान सकते हो। आत्मा सदा ज्ञाता है। उसे ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता है।
उदाहरण के लिए, अगर तुम सोचते हो कि मैं आत्मा को जान सकता हूं तो जिस आत्मा को तुम जानोंगे वह तुम्हारी आत्मा नहीं होगी। आत्मा तो वह होगी जो इस आत्मा को जान रही है। तुम सदा ज्ञाता रहोगे। तुम सदा ही पीछे रहोगे। तुम जो भी जानोंगे वह तुम नहीं हो सकते। इसका यह अर्थ है कि तुम स्वयं को नहीं जान सकते हो। तुम स्वयं को उस भांति नहीं जान सकते हो जिस भांति अन्य चीजों को जानते हो।
मैं अपने को उस भांति नही देख सता जिस भांति मैं तुम्हें देखता हूं। देखेगा कौन? क्योंकि ज्ञान, दृष्टि दर्शन का अर्थ है कि वहां कम से कम दो है: जानने वाला और जाना जाने वाला। इस अर्थ में आत्मज्ञान संभव नहीं है; क्योंकि वहां एक ही है। वहां ज्ञाता और ज्ञेय एक है; वहां द्रष्टा और दृश्य एक है। तुम अपने को विषय नहीं बना सकते हो।
इसलिए आत्मज्ञान शब्द गलत है। लेकिन यह कुछ कहता है। कुछ इशारा करता है। जो कि सच है। तुम अपने को जान सकते हो, लेकिन यह जानना उस जानने से भिन्न होगा। बिलकुल भिन्न होगा। जब सभी विषय खो जाते है, जब जो भी देखा और ग्रहण किया जा सकता है वह विदा हो जाता है। जब तुम सबको अलग कर देते हो, तब तुम्हें अचानक स्वयं का बोध होता है। और यह बोध द्वंद्वात्मक नहीं है। इसमें दो नहीं है। इसमें आब्जेक्ट्स ओर सब्जैक्ट नहीं है। यह अद्वैत है, अखंड है।
यह बोध एक भिन्न ही भांति का जानना है। यह बोध तुम्हें अस्तित्व का एक भिन्न ही आयाम देता है। तुम दो में नहीं बंटे हो; तुम स्वयं के प्रति बोधपूर्ण हो। तुम उसे देख नहीं रहे, तुम उसे पकड़ नहीं सकते हो; और बावजूद वह है—पूरी तरह है।
इसे इस तरह समझो, हमारे पास ऊर्जा है; वह ऊर्जा विषयों की तरफ बही जा रही है। ऊर्जा गतिहीन नहीं हो सकती है। कहीं ठहरी हुई नहीं है। स्मरण रहे, अस्तित्व के परम नियम में एक नियम यह है कि ऊर्जा गतिहीन नहीं हो सकती, वह गत्यात्मक है। दूसरा कोई उपाय नहीं है। उसे सतत गतिमान रहना है। गत्यात्मकता उसका स्वभाव है। ऊर्जा सतत गतिमान है।
तो जब मैं तुम्हें देखता हूं तब मेरी ऊर्जा तुम्हारी तरफ बहती है। जब मैं तुम्हें देखता हूं तो एक वर्तुल बन जाता है। मेरी ऊर्जा तुम्हारी तरफ बहती है। और फिर मेरी तरफ बहती है। इस तरह एक वर्तुल निर्मित होता है। यदि मेरी ऊर्जा तुम्हारी तरफ जाए, लेकिन मेरी तरफ वापस न आए तो मैं नहीं जान पाऊंगा। एक वर्तुल जरूरी है। ऊर्जा को जाना चाहिए और फिर लौट कर आना चाहिए।
ज्ञान का अर्थ है ऊर्जा ने एक वर्तुल बनाया है। उसने भीतर से बाहर की तरफ गति की; और फिर वह वापस मूल स्त्रोत पर लौट आई। अगर मैं इसी भांति जीता रहूँ, दूसरों के साथ वर्तुल बनाता रहूँ, तो मैं कभी स्वयं को नहीं जान पाऊंगा। क्योंकि मेरी ऊर्जा दूसरों की ऊर्जा से भरी है। वह दूसरों के प्रभा, दूसरों के प्रतिबिंब मुझे देती जाती है। इसी भांति तो तुम ज्ञान इकट्ठा करते हो।
यह विधि कहती है कि विषय को विलीन हो जाने दो अपनी ऊर्जा को रिक्तता में,शून्य में गति करने दो। वह तुम्हारी और से चलती तो है, लेकिन कोई विषय वहां नहीं है। जिसे वह पकड़ या जिसे देखे। तो वह शून्यता से गुजर कर तुम्हारे पास लौट आती है। वहां कोई विषय नहीं है। वह तुम्हारे लिए कोई जानकारी नहीं लाती है। वह खाली रिक्त और शुद्ध लौट आती है। वह अपने साथ कुछ नहीं लाती है। वह कुंवारी की कुंवारी है; कुछ भी उससे प्रविष्ट नहीं हुआ है। वह विशुद्ध है।
यही ध्यान की पूरी प्रक्रिया है। तुम शांत बैठे हो और तुम्हारी ऊर्जा गति कर रही है। वहां कोई विषय नहीं है, जिससे वह दूषित हो सके। जिससे वह आबद्ध हो सके, जिससे वह प्रभावित हो सके। जिसके साथ वह एक हो सके। तब तुम उसे अपने पर लौटा लेते हो। वहां कोई विषय नहीं है। कोई विचार नहीं है। कोई प्रतिबिंब नहीं है। ऊर्जा गति करती है। उसकी गति शुद्ध है। और वह शुद्ध ओर कुंवारी ही तुम्हारे पास लौट आती है। जिस अवस्था में वह तुमसे गई थी उसी अवस्था में वह लौट आती है। अपने साथ कुछ भी नहीं लाती है। वह सिर्फ अपने को अपने साथ लाती है। और शुद्ध ऊर्जा के उस प्रवेश में तुम स्वयं के प्रति बोध से भर जाते हो।
यदि ऊर्जा अपने साथ कोई जानकारी लाए तो तुम उस चीज के प्रति हो बोधपूर्ण होगे। तुम एक फूल को देखते हो। तुम्हारी ऊर्जा फूल पर जाली है। और उस फूल को फूल, फूल के प्रतिबिंब को, फूल के रंग को, फूल की गंध को अपने साथ ले आती है। ऊर्जा फूल को तुम्हारे पास ल रही है। वह तुम्हें फूल की जानकारी देती है। ऊर्जा फूल से आच्छादित है। तुम कभी उस शुद्ध ऊर्जा से परिचित नही हो सकते। तुम दूसरों की तरफ जाते हो और स्त्रोत पर लौट आते हो।
अगर इस ऊर्जा को कुछ भी प्रभावित न करे, अगर वह अप्रभावित संस्कारित, अस्पर्शित लौट जाए, अगर वह वैसी की वैसी लौट आए जैसी गई थी। अगर वह शुद्ध लौट आये तो कुछ साथ न लाए। तो तुम स्वयं को जानते हो। यह ऊर्जा का शुद्ध वर्तुल है। अब ऊर्जा कहीं बाहर न जाकर तुम्हारे भीतर ही गति करती है। तुम्हारे भीतर ही वर्तुल बनाती है। अब कोई दूसरा नहीं है। तुम स्वयं अपने में गति करते हो। यह गति ही आत्म-प्रकाश बन जाती है। आत्मज्ञान, आत्मबोध बन जाती है। बुनियादी तौर से सब ध्यान विधियां इसी के अलग-अलग प्रकार है।
‘भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज की चिंतना करता हूं जो दृष्टि के परे है। जो पकड़ के परे है। जो अनस्तित्व के, न होने के परे है—मैं।’
अगर यह हो सके तो तुम पहली दफा स्वय को जानोंगे। स्वयं के अस्तित्व को अस्तित्व को जानोंगे। जानने वाले को, आत्मा को जानोंगे।
ज्ञान दो प्रकार का है: विषयगत ज्ञान और आत्मगत ज्ञान। एक तो विषय का ज्ञान है और दूसरा स्वयं का ज्ञान है। और कोई आदमी चाहे लाखों चीजें जान ले। चाहे वह पूरे जगत को जान ले। लेकिन अगर वह स्वयं को नहीं जानता है तो वह अज्ञानी है। वह जानकार हो सकता है। पंडित हो सकता है। लेकिन वह प्रज्ञावान नहीं है। संभव है कि वह बहुत जानकारी इकट्ठी कर ले। बहुत ज्ञान इकट्ठा कर ले, लेकिन उसके पास उस बुनियादी चीज का अभाव है जो किसी को प्रज्ञावान बनाता है। वह स्वयं को नहीं जानता है।
उपनिषदों में एक कथा है। एक युवक, श्वेतकेतु, अपने गुरु के आश्रम से शिक्षा प्राप्त कर के घर आता है। उसने सभी परीक्षाए उत्तीर्ण कर ली थी। और उसने उनमें विशिष्टता हासिल की थी। गुरु जो भी उसे दे सके, उसने सब संजो कर रख लिया था। और वह बहुत अंहकार से भर गया था।
जब वह अपने पिता के घर पहुंचा तो पहली बात जो पिता ने पूछी वह यह थी: ‘तुम ज्ञान से बहुत भरे हुए मालूम पड़ते हो और तुम्हारे ज्ञान ने तुम्हें बहुत अहंकारी बना दिया है। यह तुम्हारे चलने के ढंग से—जिस ढंग से तुमने घर में प्रवेश किया—प्रकट होता है। मुझे तुमसे एक ही प्रश्न पूछना है, क्या तुमने उसे जान लिया है जिस के जानने से सब जाना लिया जाता है। तुम स्वय को जान गये हो।’
श्वेतकेतु ने कहा: ‘लेकिन हमारे विद्यापीठ के पाठय क्रम में यह नहीं था। हमारे गुरु ने इसकी कोई चर्चा नहीं की। मैंने सब जान लिया है जो जाना जा सकता है। आप मुझ कुछ भी पूछे और मैं उत्तर दूँगा। लेकिन यह जो आप पूछ रहे है। यह तो कभी बताया ही नहीं गया।’
पिता ने कहा: ‘फिर तुम वापस जाओ। और जब तक उसे नह जान लो जिसे जानकर सब जान लिया जाता है। और जिसे जाने बिना कुछ भी नहीं जाना जाता। तब तक घर मत लौटना। पहले स्वयं को जानो।’
श्वेतकेतु वापस गया। उसने गुरू से कहा: ‘मेरे पिता ने कहा कि तुम्हें घर में नहीं आने दिया जाएगा, इस घर में तुम्हारा स्वागत नहीं होगा; क्योंकि हमारे कुल में हम जन्म से ही ब्राह्मण नहीं है। हम ब्रह्म को जानकर ब्राह्मण है। हम ब्राह्मण जन्म से ही नहीं है, प्रामाणिक ज्ञान को प्राप्त करके हम ब्राह्मण है। तो जब तक तुम सच्चे ब्राह्मण न हो जाओ—जो जन्म से नहीं बह्म को जानकर हुआ जाता है। तब तक इस घर में प्रवेश मत करना। तुम हमारे योग्य नहीं हो। इसलिए अब आप मुझे वह ज्ञान सिखाएं।’
गुरु ने कहा: ‘जो भी सिखाया जा सकता है। वह सब मैंने तुम्हें सिखा दिया है। और तुम जिसकी बात कर रहे हो वह सिखाया नहीं जा सकता है। तो तुम एक काम करो; तुम बस इसके प्रति उपलब्ध रहो, इसके प्रति खुल रहो। यह ज्ञान सीधे-सीधे नहीं सिखाया जा सकता है। तुम सिर्फ खुले रहो। और किसी दिन घटना घट जाएगी। तुम आश्रम की गायों को ले जाओ।’ आश्रम में बहुत गायें थी। कहते चार सौ गाये थी—गुरु ने श्वेतकेतु से कहा: ‘तुम गायों को जंगल ले जाओ और गायों के साथ रहो। विचार करना बंद कर दो। शब्दों को छोड़ो; पहले गाय बनो। गायों के साथ रहो, उन्हें प्रेम करो, और वैसे ही मौन हो जाओ। जैसे गायें मौन है। जब गायें के साथ रहो, उन्हें प्रेम करो, और वैसे ही मौन हो जाओ जैसे गायें मौन है। और जब गायें एक हजार हो जाएं तब वापस आ जाना।’
श्वेतकेतु चार सौ गायों को लेकर जंगल चला गया। वहां सोचविचार का कोई उपयोग नहीं था। वहां कोई नहीं था। जिसके साथ बातचीत की जा सके। उसका चित धीरे-धीरे गाय जैसा हो गया। वह वृक्षों के नीचे मौन बैठा रहता था। और ऐसे वर्षो बीत गए, क्योंकि वह तभी वापस जा सकता था। जब गाएं एक हजार हो जाएं। धीरे-धीरे उसके मन से भाषा विलीन हो गई। धीरे-धीरे समाज उसके मन से विदा हो गया। धीरे-धीरे वह मनुष्य भी नहीं रहा;उसकी आंखें गायों की आंखों जैसी हो गई। वह गायों जैसा ही हो गया।
और कहानी बहुत सुंदर है। कहानी कहती है कि श्वेतकेतु गिनना भूल गया। क्योंकि अगर भाषा विलीन हो जाए, शब्द जाल खो जाए तो गिनना कैसा। वह भूल गया कि कैसे गिनती की जाती है। वह यह भी भूल गया कि वापस जाना है। और आगे की कहानी तो और भी सुंदर है। तब गायों ने कि: ‘श्वेतकेतु,अब हम हजार हो गई है। अब हम गुरु के घर लौट चलें। गुरु हमारी प्रतीक्षा करते होंगे।’
श्वेतकेतु वापस आया। और गुरु ने दूसरे शिष्यों से कहा: ‘गायों की गिनती करो।’ गायों की गिनती की गई। और शिष्यों ने गुरु से कहा: ‘’एक हजार गाएं है।‘’ गुरु ने कहा: ‘एक हजार नहीं, एक हजार एक गाए है—वह एक श्वेतकेतु है।’
श्वेतकेतु गायों के बीच खड़ा था—मौन,शांत; न कोई विचार था, न मन था; वह बिलकुल गाय की भांति शुद्ध और सरल और निर्दोष हो गया था। और गुरू ने उससे कहा: ‘तुम्हें यहां आने की जरूरत नहीं है, तुम अपने पिता के घर वापस चले जाओ। तुमने जान लिया; घटना घट गई। तुम अब मेरे पास क्यों आए हो?’
घटना घटती है—जब चित में जानने के लिए कोई विषय नहीं रहता तो तुम जानने वाले को जानते हो। जब मन विचारों से खाली है, जब एक भी लहर नहीं है, एक भी कंपन नहीं है, तब तुम अकेले हो, स्वयं हो। तब तुम्हारे अतिरिक्त कुछ भी नहीं हो। एक आत्म–प्रकाश घटित होता है। आत्मबोध घटित होता है।
यह सूत्र आधार भूत सूत्रों में एक है। इसे प्रयोग करो। प्रयोग कठिन है। क्योंकि विचार करने की आदत, विषयों से चिपकने की आदत, देखे जा सकने वाले और पकड़े जा सकने वाले विषयों की आदत इतनी गहरी है कि उससे मुक्त होने के लिए, विषयों में विचारों में फिर ग्रस्त न होकर मात्र साक्षी हो जाने के लिए, नेति-नेति कह कर सब को हटा देने के लिए बहुत समय और सतत श्रम की जरूरत होगी।
उपनिषदों की समस्त विधि का सार निचोड़ इन दो शब्दों में निहित है: ‘नेति-नेति। यह भी नहीं, यह भी नहीं। जो भी मन के सामने आए उसे कहो। यह भी नहीं। यह कहते जाओ और मन के सारे फर्नीचर को बाहर फेंकते जाओ। हटाते जाओ। कमरे को खाली कर देना है। बिलकुल खाली कर देना है। उसी खालीपन में घटना घटती है।’
अगर कुछ भी रह जाएगा तो तुम उससे प्रभावित होते रहोगे। और तब तुम अपने को नहीं जान सकोगे। तुम्हारी निर्दोषता विषयों में खो जाती है। विचारों से भरा मन बाहर भटकता रहता है। तब तुम स्वयं से नहीं जुड़ सकते।
दूसरी विधि:
८७…
मैं हूं,
यह मेरा है।
यह-यह है।
हे प्रिये, भाव में भी असीमत: उतरो।
I AM EXISTING.
THIS IS MINE.
THIS IS THIS.
O BELOVED, EVEN IN SUCH KNOW ILLIMITABLY.
‘मैं हूं।’ तुम इस भाव में कभी गहरे नहीं उतरते हो कि मैं हूं। है प्रिये, ऐसे भाव में भी असीमत: उतरो।
मैं तुम्हें एक झेन कथा कहता हूं। तीन मित्र एक रास्ते से गुजर रहे थे संध्या उतर रही थी। और सूरज डूब रहा था। तभी उन्होंने एक साधु को नजदीक की पहाड़ी पर खड़ा देखा। वे लोग आपस में विचार करने लगे कि साधु क्या कर रहा है। एक ने कहा: ‘यह जरूर अपने मित्रों की प्रतीक्षा कर रहा है। वह अपने झोंपड़े से घूमने के लिए निकला होगा और उसके संगी-साथी पीछे छूट गए होंगे। वह उनकी राह देख रहा है।’
दूसरे मित्र ने इस बात को काटते हुए कहा: ‘यह सही नहीं है, अगर कोई व्यक्ति किसी की राह देखता है तो वह कभी-कभी पीछे मुड़ कर भी देखता है। लेकिन यह आदमी तो पीछे की तरफ कभी नहीं देखता है। इसलिए मेरा अनुमान है कि यह किसी की राह नहीं देख रहा है। बल्कि उसकी गाय खो गई है। सांझ निकट आ रही है। सूरज डूब रहा है। और जल्दी ही अँधेरा घिर जाएगा। इसलिए वह अपनी गाय की तलाश कर रहा है। वह पहाड़ी की चोटी पर खड़ा देख रहा है। जंगल में गाय कहां है।’
तीसरे मित्र ने कहा: ‘ऐसा नहीं हो सकता है। क्योंकि वह इतना शांत खड़ा है, जरा भी इधर-उधर नहीं हिलता है। ऐसा नहीं लगता है कि वह कहीं कुछ देख रहा है—उसकी आंखें भी बंद है। जरूर वह प्रार्थना कर रहा होगा। वह किसी खोई हुई गाय का या किन्हीं पीछे छूट गए मित्रों का इंतजार नहीं कर रहा है।’
इस तरह वह तर्क-वितर्क करते रहे। लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहूंच पाए। फिर उन्होंने तय किया कि हमें पहाड़ी पर चलकर खुद साधु से पूछना चाहिए कि आप क्या कर रहे है। और वे साधु के पास उपर गये। क्या आप अपने मित्र की प्रतीक्षा कर रहे है जो पीछे छूट गए है।
साधु ने आंखें खोली और कहा: मैं किसी की भी प्रतीक्षा में नहीं हूं। और मेरे न मित्र है और न शत्रु, जिनकी मैं प्रतीक्षा करूं। यह कह कर उसने आंखे बंद कर ली।
दूसरे मित्र ने कहा : ‘तब मैं जरूर सही हूं। क्या आप अपनी गाय को खोज रहे है जो जंगल में खो गई है।’
साधु ने कहा: ‘नहीं मैं किसी को नहीं खोज रहा हूं—न गाय को और न किसी अन्य को। मैं स्वयं के अतिरिक्त किसी में भी उत्सुक नहीं हूं।’
तीसरे मित्र ने कहा: ‘’तब तो निश्चित ही आप कोई प्रार्थना या कोई ध्यान कर रहे है।‘’
साधु ने फिर आंखे खोली और कहा: ‘मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं मैं बस यहां हूं।’
बौद्ध इसे ही ध्यान कहते है। अगर तुम कुछ करते हो तो वह ध्यान नहीं है। तुम बहुत दूर चले गए। अगर तुम प्रार्थना करते हो तो वह ध्यान नहीं है; तुम बातचीत करने लगे। अगर तुम कोई शब्द उपयोग में लाते हो तो वह ध्यान नहीं है; मन उसमें प्रविष्ट हो गया। उस साधु ने ठीक कहा। उसने कहा: मैं यहां बस हूं, कुछ कर नहीं रहा हूं।
यह सूत्र कहता है: ‘मैं हूं।’
इस भाव में गहरे उतरो। बस बैठे हुए इस भाव में गहरे उतरो कि मैं मौजूद हूं। मैं हूं। इसे अनुभव करो;इस पर विचार मत करो। तुम अपने मन में कह सकते हो कि मैं हूं; लेकिन कहते ही वह व्यर्थ हो गया। तुम्हारा सिर सब गुड़ गोबर कर देता है। सिर में मत दोहराओं कि मैं जीता हूं, मैं हूं। कहना व्यर्थ है; कहना दो कौड़ी का है। तुम बात ही चूक गए। इसे अपने प्राणों में अनुभव करो। इसे अपने पूरे शरीर में अनुभव करो। केवल सिर में नहीं। इसे समग्र इकाई की भांति अनुभव करो। बस अनुभव करो: ‘मैं हूं।’
मैं हूं, इन शब्दों का उपयोग मत करो। क्योंकि मैं तुम्हें समझा रहा हूं, इसलिए मुझे इन शब्दों का उपयोग करना पड़ रहा है। शिव पार्वती को समझा रहे थे। इसलिए उन्हें भी मैं हूं को शब्दों में कहना पडा।
तुम शब्दों का उपयोग मत करा। यह कोई मंत्र नहीं है। तुम्हें यह दोहराना नहीं है कि मैं हूं। अगर तुम दोहराओगे तो तुम सो जाओगे। तुम आत्म-सम्मोहित हो जाओगे।
जब तुम किसी चीज को दोहराते हो तो तुम आत्मा-सम्मोहित हो जाते हो। पहले दोहराने से ऊब पैदा होती है। और फिर तुम्हें नींद आने लगती है। और फिर होश खो जाता है। तुम इस आत्म-सम्मोहन में जब वापस आओगे तो बहुत ताजा अनुभव करोगे—वैसे ही ताजा अनुभव करोगे, जैसे गहरी नींद से जागने पर करते हो।
यह स्वास्थ्य के लिए अच्छा है। लेकिन यह ध्यान नहीं है। अगर तुम्हें नींद न आती हो तो तुम मंत्र का उपयोग कर सकते हो। मंत्र बिलकुल ट्रैंक्विलाइजर जैसा है—उससे भी बेहतर। तुम किसी शब्द को निरंतर दोहराते रहो, उसका एकसुरा जाप करते रहो। और तुम्हें नींद लग जाएगी। जो भी चीज ऊब लाती है। वह नींद पैदा करती है।
मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक अनिद्रा से पीड़ित लोगों को सलाह देते है कि घड़ी की टिक-टिक सुनते रहो और तुम्हें नींद आ जाएगी। यह टिक-टिक लोरी का काम करता है। मां के गर्भ में बच्चा निरंजन नौ महीने तक सोया रहता है। मां का ह्रदय निरंतर धड़कता रहता है और वह धड़कन नींद का कारण बन जाती है।
यही कारण है कि जब तुम्हें कोई अपने ह्रदय से लगा लेता है तो तुम्हें अच्छा लगाता है। उस धड़कन के पास तुम्हें अच्छा लगता है। तुम विश्राम अनुभव करते हो। जो भी चीज एकरसता पैदा करती है उसे विश्राम मिलता है। तुम सो जाते हो।
तुम गांव में शहर के मुकाबले ज्यादा नींद ले सकते हो। क्योंकि गांव का जीवन एकरस है, सपाट है, उबाऊ है। शहर का जीवन भिन्न है। यहां प्रतिपल कुछ न कुछ नया हो गया है। सड़कों का शोरगुल भी बदलता रहता है। गांव में सब कुछ वहीं का वही रहता है। सच तो यह है गांव में खबर ही निर्मित नहीं होती है। वहां कुछ होता ही नहीं है। गांव में सब कुछ वर्तुल में ही घूमता रहता है। इसलिए गांव के लोग गहरी नींद सोते है। क्योंकि उनके चारों और का जीवन उबाने वाला है। शहर में नींद कठिन है, क्योंकि तुम्हारे चारों और का जीवन उत्तेजना से भरा है; वहां सब कुछ बदल रहा है।
तुम कोई भी मंत्र काम में ला सकते हो। राम-राम या ओम-ओम कुछ भी चलेगा। तुम जीसस क्राइस्ट का नाम जप सकते हो। अवे मारिया जप सकते हो। कोई भी शब्द ले लो और उसे एक ही सुर में जपते रहो, तुम्हें गहरी नींद आ जाएगी। और तुम यह भी कर सकते हो। रमण महर्षि साधना की एक विधि बताते थे कि स्वयं पूछो कि मैं कौन हूं। लोगों ने उसको भी मंत्र बना लिया। वे आंखें बंद करके बैठते थे और दोहराते रहते थे। ‘मैं कौन हूं?’ मैं कौन हूं? यह मंत्र बन गया। लेकिन वह रमण का उद्देश्य नहीं था।
तो इसे मंत्र बनाओ। बैठ कर यह मत दोहराओं कि मैं हूं, उसकी कोई जरूरत नहीं है। सब जानते है और तुम भी जानते हो कि तुम हो। उसकी जरूरत नहीं है। वह फिजूल है। मैं हूं—यह अनुभव करो। अनुभव भिन्न बात है। सर्वथा भिन्न बात है। विचार करना अनुभव से बचने की तरकीब है। विचार करना न केवल भिन्न है। बल्कि धोखा है।
जब मैं कहता हूं कि अनुभव करो कि मैं हूं तो उसका क्या मतलब है। मैं इस कुर्सी पर बैठा हूं। अगर मैं अनुभव करने लगू कि मैं हूं तो मैं अनेक चीजों के प्रति बोधपूर्ण हो जाऊँगा। कुर्सी पर पड़ने वाले दबाव का बोध होगा। मखमल के स्पर्श का बोध होगा। कमरे से हवा के गुजरने का बोध होगा। मेरे शरीर से ध्वनि के स्पर्श होने का बोध होगा। ह्रदय की धड़कन का बोध होगा। शरीर में खून मौन प्रवाह का बोध होगा, शरीर की एक सूक्ष्म तरंग का बोध होगा। हमारा शरीर जीवंत और गत्यात्मक है; वह कोई स्थिर, ठहरी हुई चीज नहीं है। तुम तरंगायित हो रहे हो। निरंतर एक सूक्ष्म कंपन जारी है; और जब तक तुम जीवित हो, यह जारी रहेगा। तो एक कंपन का बोध होगा। तुम सारी बहुआयामी चीजों के प्रति बोध से भर जाओगे।
और अगर तुम इसी क्षण अपने भीतर-बाहर होने वाली चीजों के प्रति इतने ही बोधपूर्ण हो जाओ, तो मैं हूं का वह अनुभव होगा जो उसका मतलब है। अगर तुम पूरी तरह बोधपूर्ण हो जाओ तो विचार रूक जायेगे। क्योंकि जब तुम अनुभव ऐसी समग्र घटना है कि उसमें विचार नहीं चल सकता।
शुरू-शुरू में तुम पाओगे कि विचार तैर रहे है। लेकिन धीरे-धीरे जब अस्तित्व में तुम्हारी जड़ें गहरी होगी। जितने ही तुम अपने होने के अनुभव में थिर होगे। उतने ही विचार दूर होते जाएंगे। और तुम इस दूरी को महसूस करोगे। तुम्हें लगेगा कि यह विचार मुझे नहीं , किसी और को घट रहे है—बहुत-बहुत दूर। दूरी स्पष्ट अनुभव होगी। और तुम जब वस्तुत: अपने केंद्र में अपने होने में स्थित हो जाओगे, तब मन विलीन हो जाएगा। तुम होगे; लेकिन न कोई शब्द होगा, न कोई प्रतिबिंब होगा।
ऐसा क्यों होता है? क्योंकि मन दूसरों से संबंधित होने का एक उपाय है। यदि मुझे तुमसे संबंधित होना है। तो मुझे मन का उपयोग करना होगा। मुझे शब्दों का और भाषा का उपयोग करना पड़ेगा। यह सामाजिक घटना है, सामूहिक क्रिया है। अगर तुम अकेले में भी बोलते हो तो तुम अकेले नहीं हो। तुम किसी अन्य व्यक्ति से बोल रहे हो। भले ही तुम अकेले हो, लेकिन अगर तुम बातचीत कर रहे हो तो तुम अकेले नहीं हो। तुम किसी से बातें कर रहे हो। तुम अकेले कैसे बातें कर सकते हो। कोई और मन के भीतर मौजूद है और तुम उससे बोल रहे हो।
मैं दर्शन शास्त्र के एक अध्यापक की आत्मकथा पढ़ रहा था। उसने अपने संस्मरण में कहा है कि एक दिन वह अपनी पाँच साल कि बेटी को स्कूल छोड़ने जा रहा था। बेटी को स्कूल में छोड़कर उसे विश्वविद्यालय पहुंचना था और वहां लेक्चर देना था। तो वह रास्ते में
अपने लेक्चर की तैयारी करने लगा। वह भूल ही गया कि उसकी बेटी कार में उसके बगल में बैठी है और वह बोल-बोल कर लेक्चर देने लगा। लड़की कुछ क्षणों तक सब सुनती रही और फिर उसने पूछा: ’डैडी, आप मुझसे बोल रहे है या मेरे बिना बोल रहे है।’
जब भी तुम बोलते हो तो किसी से बोलते हो—किसी न किसी से बोलते हो। चाहे वह वहां उपस्थित न हो, लेकिन तुम्हारे लिए वह उपस्थित है, तुम्हारे मन के लिए वह उपस्थित है। सब विचार वार्तालाप है विचार मात्र वार्तालाप है। वह एक सामाजिक कृत्य है। इसलिए अगर किसी बच्चे को समाज के बाहर बड़ा किया जाए तो वह भाषा से वंचित रह जाएगा। वह बातचीत करना नहीं सीख पाएगा। समाज तुम्हें भाषा देता है। समाज के बिना भाषा नहीं हो सकती। भाषा सामाजिक घटना है।
जब तुम अपने में प्रतिष्ठित हो जाते हो तो कोई समाज नहीं रहता है। कोई भी नहीं रहता है। मात्र तुम होते हो। मन विलीन हो जाता है। तब तुम किसी से संबंधित नहीं हो रहे हो—कल्पना में भी नहीं—और इसीलिए मन विलीन हो जाता है। तुम मन के बिना होते हो—और यही ध्यान है। मन के बिना होना ही ध्यान है। तुम मूर्च्छित नहीं हो, पूर्णत: सजग और सावचेत हो, अस्तित्व को उसकी समग्रता में उसके बहु-आयाम मे अनुभव कर रहे हो। लेकिन मन खो गया है।
और मन के खोने के साथ ही अनेक चीजें विदा हो जाती है। मन के साथ तुम्हारा नाम विदा हो जाता हे। मन के साथ तुम्हारा रूप विदा हो जाता है। मन के साथ तुम्हारा हिंदू, मुसलमान या पारसी होना विदा हो जाता है। मन के साथ ही तुम्हारा भला या बुरा होना, पुण्यात्मा या पापी होना सुंदर या कुरूप होना विदा हो जाता है। मन के साथ ही तुम्हारा सब कुछ, जो तुम पर थोपा गया था, विलीन हो जाता है। तब तुम अपनी मौलिक शुद्धता में प्रकट होते हो। तब तुम अपनी समग्र निर्दोषता में, अपने कुँवारे पन में प्रकट होते हो। तब तुम तिनके की तरह झोंकों में उड़ते रहते हो। तुम अस्तित्व में प्रतिष्ठित होते हो।
मन के साथ तुम अतीत में गति कर सकते हो। मन के साथ तुम भविष्य की यात्रा कर सकते हो। मन के बिना न तुम अतीत में जा सकते हो और न भविष्य में। मन के बिना तुम यहां और अभी हो। मन के विलीन होते ही वर्तमान क्षण शाश्वत हो जाता है। वर्तमान क्षण के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता है। और आनंद घटित होता है। तुम्हें किसी खोज में नहीं जाना है। वर्तमान क्षण में स्थित, आत्मा में प्रतिष्ठित—तुम आनंदित हो। और यह आनंद कुछ ऐसा नहीं है जो तुम्हें घटित होता है। तुम स्वयं आनंद हो।
तुमने कभी अपने शरीर को अनुभव नहीं किया। तुम्हारे हाथ है, लेकिन तुमने उन्हें भी कभी अनुभव नहीं किया। तुमने कभी नहीं जाना कि हाथ क्या करते है। वे सतत तुम्हें क्या-क्या सूचनाएं देते रहते है। हाथ कभी भारी और उदास होता है और कभी हलका और प्रफुल्लित। कभी उसमें रसधार बहती है। और कभी सब कुछ मुर्दा हो जाता है। कभी तुम उसे जीवंत और नृत्य करते हुए पाते हो और कभी ऐसा लगता है कि उसमें जीवन नहीं है। वह जड़ और मृत है, तुमसे लटका है, लेकिन जीवित नहीं है।
जब तुम अपने अस्तित्व को अनुभव करने लगते हो तो सारा जगत तुम्हारे लिए सर्वथा नए रूप में जीवित हो उठता है। अब तुम उसी सड़क से गुजरते हो जिससे रोज गुजरते थे, लेकिन अब वह सड़क वही सड़क नहीं है। क्योंकि अब तुम अस्तित्व में केंद्रित हो। तुम उन्हीं मित्रों से मिलते हो जिनसे सदा मिलते थे। लेकिन अब वे वही नहीं है। क्योंकि तुम बदल गए हो। तुम अपने घर वापस आते हो तो जिस पत्नी के साथ वर्षों से रहते आए हो उसी भी सर्वथा भिन्न पाते हो। वह भी वही नहीं रही।
तुम सोए-सोए चलते हो और ऐसे ही सोए लोगों की भीड़ के बीच जीते हो। प्रत्येक व्यक्ति गहरी नींद में है। तुम्हें बस इतना होश है कि तुम गहरी नींद में सोए लोगों के बीच से गुजरते हो और बिना किसी दुर्घटना के अपने घर वापस आ जाते हो। बस इतना ही। इतना होश तुम्हें है। और मनुष्य के लिए यह अल्पतम संभावना है। यही कारण है कि तुम इतने ऊबे हुए हो। इतने सुस्त और मंद हो। जीवन एक बोझ है। और भीतर प्रत्येक मनुष्य मृतयु की प्रतीक्षा कर रहा है। ताकि जीवन से छुटकारा हो। मृत्यु ही एक मात्र आशा मालूम पड़ती है।
ऐसा क्यों है? जीवन परम आनंद हो सकता है। वह इतना ऊब भरा क्यो है? क्योंकि तुम जीवन में केंद्रित नहीं हो। तुम जीवन से उखड़़ गये हो। तुम अल्पतम पर जीते हो। और जीवन तो तभी घटित होता है जब तम अधिकतम पर जीते हो।
यह सूत्र तुम्हें अधिकतम जीवन प्रदान करेगा। विचार तुम्हें अल्पतम ही दे सकता है। भाव तुम्हें अधिकतम दे सकता है। जीवन की रहा मन से होकर नहीं जाती, ह्रदय से होकर ही उसकी राह है।
‘मैं हूं। इसे ह्रदय से अनुभव करो। और अनुभव करो कि यह अस्तित्व मेरा है।’
‘यह मेरा है। यह-यह है।’
यह बहुत सुंदर है—इसे अनुभव करो। इसमे स्थित होओ। और फिर जानो कि यह मेरा है, यह अस्तित्व, यह प्रवाहमान जीवन मेरा है।
तुम कहे चले जाते हो कि यह घर मेरा है, यह सामान मेरा है। तुम अपनी चीज की बातें करते रहते हो और तुम्हें पता भी नहीं चलता की तुम्हारी सच्ची संपदा क्या है। समग्र जीवन, समस्त आत्मा तुम्हारी संपदा है। तुम्हारे भीतर गहनत्म संभावना है। अस्तित्व का आत्यंतिक रहस्य तुममें छिपा है और तुम उसके मालिक हो।
शिव कहते है: ‘मैं हूं—इसे अनुभव करो। और अनुभव करो कि यह मेरा है।
यह बात सतत स्मरण रखनी है कि इसे विचार नहीं बना लेना है। इसे अनुभव करो, ह्रदय से अनुभव करो कि यह मेरा है। यह अस्तित्व मेरा है और तब तुम कृत्यज्ञता अनुभव करोगे, तब तुम अहोभाव अनुभव करोगे।
अभी तो तुम परमात्मा को धन्यवाद कैसे दे सकते हो? तुम्हारा धन्यवाद भी ऊपरी है। औपचारिकता है। और कैसी हमारी दीनता है कि हम परमात्मा के साथ भी औपचारिकता बरतते है। तुम कृतज्ञ कैसे हो सकते हो? कृतज्ञ होने लायक तुमने कुछ किया ही नहीं है, कुछ ऐसा जाना ही नहीं है।
अगर तुम अपने को अस्तित्व में केंद्रित अनुभव कर सको। उसके साथ एक अनुभव कर सको, उससे परिपूरित अनुभव कर सको। उसके साथ नृत्य में सहभागी हो सको—तब तुम अनुभव करोगे कि यह मेरा है, यह अस्तित्व मेरा है। तब तुम्हें प्रतीति होगी कि यह समस्त रहस्यमय ब्रह्मांड मेरा है। यह सारा जगत मेरा लिए अस्तित्व में है। उसने पैदा किया है और मैं उसका ही फूल हूं।
यह चेतना जो तुम्हें मिली है, यही जगत का सुंदरतम फूल है। और करोड़ो-करोड़ो वर्षो से यह पृथ्वी तुम्हारे होने के लिए तैयार है।
‘’यह मेरा है। यह-यह है।‘’
यह अनुभव करना है। अनुभव करना है कि यही जीवन है, ऐसा है—यह तथाता। अनुभव करना कि मैं नाहक ही चिंता कर रहा हूं। मैं व्यर्थ ही भिखारी बना हुआ था। व्यर्थ ही अपने को भिखारी समझ रहा था। मैं तो मालिक हूं। जब तुम केंद्रित होते हो तो तुम समष्टि के साथ पूर्ण के साथ हो जाते हो। और तब समस्त अस्तित्व तुम्हारे लिए है; तब तुम भिखारी नहीं हो, तुम अचानक सम्राट हो जाते हो।
यह-यह है। प्रिये ऐसे भाव में भी असीमत: उतरो।
और यह अनुभव करते हुए उसकी कोई सीमा मत बनाओ, उसे असीमत: अनुभव करो। उस पर कोई सीमा-रेखा मत खींचो; कोई सीमा है भी नहीं। वह कहीं समाप्त होता है। अस्तित्व का न कोई आरंभ है और न अंत। और तुम्हारा भी कोई आरंभ और अंत नहीं है।
आरंभ और अंत मन के कारण है। मन का आरंभ है और मन का अंत है। अपने जीवन में वापस लोटों, पीछे की और चलो। और तुम पाओगे कि एक क्षण आता है जहां सब कुछ ठहर जाता है। वहां आरंभ है—मन का आरंभ। तुम पीछे वहां तक स्मरण कर सकते हो। जब तुम तीन वर्ष के रहे होगे या ज्यादा से ज्यादा दो वर्ष के रहे होगे। दो वर्ष तक लौटना बहुत दुर्लभ है—वहां जाकर स्मृति ठहर जाती है। तुम अपनी स्मृति में ज्यादा से ज्यादा वहां तक लौट सकते हो जब तुम दो वर्ष के थे। इसका क्या अर्थ है? इसके पहले की, दो वर्ष की उम्र के पहले की कोई स्मृति तुम्हारे पास नहीं है। अचानक एक शून्य, एक गैप आ जाता है। तुम्हें उसके आगे कुछ भी नहीं मालूम है।
क्या तुम्हें अपने जन्म के संबंध में कुछ याद है? क्या तुम्हें उन नौ महीनों का कुछ स्मरण है जब तुम मां के पेट में थे? तुम तो थे, लेकिन मन नहीं था। मन का आरंभ दो वर्ष की उम्र के आसपास हुआ। यही कारण है कि दो वर्ष की उम्र तक तुम लौटकर स्मरण कर सकते हो। उसके आगे मन नहीं है। वहां स्मृति ठहर जाती है।
तो मन का आरंभ है। मन का अंत है। लेकिन तुम्हारा कोई आरंभ नहीं है। तुम अनादि हो। अगर गहन ध्यान में, अगर ऐसे ध्यान में तुम अस्तित्व को अनुभव कर सको तो मन नहीं है। केवल एक आरंभहीन, अंतहीन ऊर्जा का प्रवाह है, जागतिक ऊर्जा का प्रवाह है। तुम्हारे चारो और एक अनंत असीम सागर है और तुम उसमें मात्र एक लहर हो। लहर का आरंभ है और अंत है। लेकिन सागर का कोई आरंभ और अंत नहीं है। और जब तुम जान लेते हो कि तुम लहर नहीं हो, सागर हो, तो सब दुख, सब संताप विलीन हो जाता है।
तुम्हारे दुःख की नींव में, उसकी गहराई में क्या है? उसकी गहराई में मृत्यु है। तुम भयभीत हो कि तुम्हारा अंत होगा, तुम्हारी मृत्यु होगी। वह बिलकुल निश्चित है। जगत में कुछ भी उतना निश्चित नहीं है। जितनी मृत्यु निश्चित है। वही भय है। वही कंपन है। वहीं दुःख है। कुछ भी करो। तुम मृत्यु के सामने असहाय हो। लाचार हो। कुछ भी नहीं किया जा सकता है। मृत्यु होने ही वाली है। और यह बात तुम्हारे चेतन-अचेतन मन में चलती ही रहती है। जब यह बात चेतन मन में उभर आती है। तुम मृत्यु से भयभीत हो जाते हो। फिर तुम उसे दबा देते हो, और वह भय अचेतन में सरकता रहता है। प्रत्येक क्षण तुम मृत्यु से, मिटने से भयभीत हो।
मन मिटेगा, लेकिन तुम नहीं मिटोगे। मगर तुम अपने को नहीं जानते हो। तुम जिसे जानते हो वह मन है। वह निर्मित हुआ है। उसका आरंभ है और उसका अंत हे। जिसका आरंभ है, उसका अंत निश्चित है। अगर तुम अपने भीतर खोज सको जिसका कोई आरंभ नहीं है। जो बस है, जिसका कोई अंत नहीं है। तो मृत्यु का भय विलीन हो जाता है।
और जब मृत्यु का भाव खो जाता है। तब तुमसे प्रेम प्रवाहित होता है—उसके पहले नहीं। जब तक मृत्यु है तब तक तुम प्रेम कैसे कर सकते हो? तुम किसी से चिपके रह सकते हो। लेकिन तुम प्रेम नही कर सकते। तुम किसी का उपयोग कर सकते हो। तुम प्रेम नहीं कर सकते। तुम किसी का शोषण कर सकते हो। तुम प्रेम का फूल नहीं खिला सकते हो।
प्रत्येक मनुष्य मरने वाला है, प्रत्येक मनुष्य क्यू में, कतार में खड़ा अपने समय का इंतजार कर रहा है। तुम प्रेम कैसे कर सकते हो। पूरी बात ही बेतुकी मालूम पड़ती है। मृत्यु है तो प्रेम अर्थहीन मालूम पड़ता है। क्योंकि मृत्यु सब कुछ मिटा देगी। प्रेम भी शाश्वत नहीं है। तुम अपने प्रियजन के लिए चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकते हो। क्योंकि तुम मृत्यु को नहीं टाल सकते हो। मृत्यु सब के पीछे खड़ी है।
तुम मृत्यु को भूल सकते हो। तुम एक धोखा निर्मित कर सकते हो। तुम मान सकते हो की मृत्यु नहीं है। लेकिन तुम्हारा सब मानना ऊपर का है। गहरे में तुम जानते हो कि मृत्यु होने वाली है। अगर मृत्यु है तो जीवन अर्थ हीन मालूम होता है। तुम झूठे अर्थ रच ले सकते हो। लेकिन उनसे कुछ हल नहीं होगा। थोड़ी देर के लिए उनसे सहारा मिल सकता है। लेकिन फिर सचाई उभरेगी और अर्थ खो जाएंगे। तुम बस अपने को धोखे में रख सकते हो, तुम सतत आत्म वंचना में रह सकते हो—यदि तुम उसे नहीं जानते हो जो अनादि और अंनत है, जो मृत्यु के पार है।
अमृत को जानने पर ही प्रेम संभव है, क्योंकि तब मृत्यु नहीं है। प्रेम संभव है। बुद्ध तुम्हें प्रेम करते है। जीसस तुम्हें प्रेम करते है। लेकिन वह प्रेम तुम्हारे लिए बिलकुल अपरिचित है। सर्वथा अज्ञात है। वह प्रेम भय के विलीन होने से आया है।
तुम्हारा प्रेम तो भय से बचने का उपाय भर है। इसलिए जब तुम प्रेम में होते हो, तुम निर्भय मालूम पड़ते हो। कोई तुम्हें बल देता है। और यह पारस्परिक बात है। तुम दूसरे को बल देते हो। दूसरा तुम्हें बल देता है। दोनों दीन-हीन है और दोनों किसी दूसरे को खोज रहे है। और फिर दो दीन हीन व्यक्ति मिलते है और एक दूसरे को बल देने की चेष्टा करते है। यह चमत्कार है। यह हो कैसे सकता है? यह केवल वंचना है, धोखा है। तुम सोचते हो कि कोई तुम्हारे पीछे है, तुम्हारे साथ है। लेकिन तुम भली भांति जानते हो कि मृत्यु में कोई भी तुम्हारे साथ नहीं हो सकता। और जब कोई मृत्यु में तुम्हारे साथ नहीं हो सकता तो वह जीवन में तुम्हारे साथ कैसे हो सकता है। यह मृत्यु को टालने का, भुलाने का उपाय भर है। क्योंकि तुम भयभीत हो, तुम्हें निर्भय होने के लिए किसी की जरूरत नहीं है।
कहा जाता है, इमर्सन ने कहीं कहा है, कि बड़े से बड़ा योद्धा भी अपनी पत्नी के सामने कायर होता है। नेपोलियन भी पत्नी के सामने कायर है। क्योंकि पत्नी जानती है कि पति को उसके सहारे की जरूरत है। उसे स्वयं होने के लिए उसके बल की जरूरत है। पति पत्नी पर निर्भर है। जब वह युद्ध क्षेत्र से वापस आता है, लड़ कर वापस आता है, तो कांपता आता है। भयभीत आता है। पत्नी की बाँहों में विश्राम पाता है। आश्वासन पाता है। पत्नी उसे सांत्वना देती है। आश्वस्त करती है। पत्नी के सामने वह बच्चे जैसा हो जाता है। हरेक पति पत्नी केसामने बच्चा है। और पत्नी? वह पति पर निर्भर है। वह पति के सहारे जीती है। वह पति के बिना नहीं जी सकती है। पति उसका जीवन है।
पारस्परिक धोखा है। दोनों भयभीत है, क्योंकि मृत्यु है। दोनों एक दूसरे के प्रेम में मृत्यु को भुलाने की चेष्टा करते है। प्रेमी-प्रेमिका निर्भीक हो जाती है। या निर्भीक होने की चेष्टा करते है। वे कभी-कभी बहुत निर्भीकता के साथ मृत्यु का मुकाबला भी कर लेते है। लेकिन वह भी ऊपरी है; वैसा दिखता भर है।
हमारा प्रेम भय का ही अंग है। उससे बचने के लिए है। सच्चा प्रेम तब घटित होता है जब भय नहीं रहता है। जब भय विलीन हो जाता है। जब तुम जानते हो कि न तुम्हारा कोई आरंभ है और न तुम्हारा कोई अंत है।
और इस पर विचार मत करो। भय के कारण तुम ऐसा सोचने लग सकते हो। तुम सोच सकते हो। ‘हां, मैं जानता हूं,मेरा कोई अंत नहीं है। मेरी कोई मृत्यु नहीं है। आत्मा अमर है।’ तुम भय के कारण ऐसा सोच सकते हो, लेकिन उसमे कुछ भी नहीं होगा।
प्रामाणिक अनुभव तभी होगा जब तुम ध्यान में गहरे उतरोगे। तब भय विसर्जित हो जाएगा। क्योंकि तुम स्वयं को अनंत-असीम देखते हो। तुम अनंत की तरह फैल जाते हो—आदिहीन अतीत में, अंतहीन भविष्य में। और इस क्षण में,इस वर्तमान क्षण में उसकी गहराई में तुम हो। तुम बस हो, सनातन से हो—तुम्हारा कभी आरंभ नहीं था, तुम्हारा कभी अंत नहीं होगा।
इसे असीमत: अनुभव करो, अनंतत: अनुभव करो।